भारतीय उपमहाद्वीप में क्यों मारे जा रहे हैं स्वतंत्र सोच वाले लेखक-पत्रकार ?

भारतीय उपमहाद्वीप में किसी निष्पक्ष और अकेली बेखौफ आवाज की पहली हत्या नहीं है।

New Delhi, Jun 16 : कल शुजात बुखारी को गोली मार दी गयी. अब तक यही कहा जा रहा है कि किसी आतंकी ग्रुप ने उनकी हत्या की. हालांकि कश्मीर के तकरीबन सभी बड़े आतंकी समूह ने उनकी हत्या की निंदा की है. इसलिए अब तक साफ नहीं है कि उनकी हत्या किसने और किस वजह से की है. मगर यह निर्विवाद तथ्य है कि वे कश्मीर की आवाज थे. उस आवाज में न भारतीय सेना का प्रभाव था, न आतंकियों का. वे कश्मीर में इन दिनों मौजूद इन दोनों ताकतों से अलग होकर कश्मीरी आवाम की बात करते थे. पूरा भारत उन्हें इसी वजह से पढ़ता था. मगर महज 50 साल की उम्र में मार दिये गये.

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यह भारतीय उपमहाद्वीप में किसी निष्पक्ष और अकेली बेखौफ आवाज की पहली हत्या नहीं है. पिछले सात-आठ सालों में इस इलाके में माहौल कुछ इस कदर बदला है कि यहां आप कट्टरता के खिलाफ आवाज उठाते हैं तो आप खतरे की जद में होते हैं. पाकिस्तान और अफगानिस्तान में तो इस तरह की गतिविधियों का पुराना इतिहास रहा है. बांग्लादेश में ऐसे 48 लोगों की हत्या कट्टरपंथियों द्वारा की जा चुकी है. इनमें ज्यादातर ब्लॉगर रहे हैं. भारत में अब यह आंकड़ा आधा दर्जन तक पहुंच रहा है. नरेंद्र दाभोलकर, गोबिंद पनसारे, कलबुर्गी, गौरी लंकेश और अब शुजात बुखारी.

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इन तमाम लोगों का एक ही अपराध है. इन्होंने धार्मिक कट्टरता के खिलाफ बेखौफ होकर लिखा है. और इनकी कलम की ताकत ने उन लोगों को परेशान किया है जो समाज में कट्टरता फैलाकर राज करना चाहते हैं. चाहे वे आतंकी हों, या महजब के नाम पर सत्ता तक पहुंचने वाले राजनीतिक दल और उनके पक्ष में बनी सेनाएं. यह बड़ा अजीब सा मसला है कि 2010 के बाद की दुनिया में यकायक धर्मनिरपेक्षता और विश्व बंधुत्व को खारिज किया जाने लगा है. महजबी कट्टरता और क्षेत्रवाद राजनीति का पसंदीदा विचार बन गया है. जो कुछ लोग इन विचारों के खतरे की तरफ आगाह करते हैं, वे ऐसे लोगों को अखरते हैं.

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इसको समझने के लिए पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश में झांकने की जरूरत है. जहां 2013 में एक राजनेता को फांसी की सजा सुनाये जाने पर देश भर के सेक्युलर ब्लॉगर और समान सोच वाले लोग विरोध के लिए जुटे थे. यह बात कट्टरपंथियों को अखर गयी और ऐसे 84 स्वतंत्र विचार वाले सेक्युलर लेखकों की हिट लिस्ट बनी और उन्हें चुन-चुनकर मारा गया. इनमें निहत्थे लेखक, पत्रकार और विचारकों की संख्या सबसे अधिक थी. इनके लिखे आलेखों की ताकत कट्टरपंथियों को अखर रही थी. अब तक 48 लोग मारे जा चुके हैं.
अपने देश में सेक्युलरों की हिट लिस्ट नहीं बनी है मगर पांच-छह बड़े लेखक-पत्रकार मारे जा चुके हैं. पैटर्न वही है. और जिस तरह अलग सोच वाले पत्रकारों को सोशल मीडिया पर घेर कर संगठित रूप से सरकार समर्थक लोग गालियां देते हैं, ट्रोल करते हैं. वह बताता है कि हम भी उसी राह पर हैं. रवीश हों, राणा अयूब हो, बरखा दत्त हो, राजदीप सरदेसाई हो इनकी सरकार विरोधी बातों से लोग असहमत हो सकते हैं. मगर जिस तरह से उन्हें फेसबुक और वाट्सएप पर मां-बहन की गालियां दी जाती हैं. बददुआएं दी जाती हैं, वह वही पैटर्न है, जो पैर्टन बांग्लादेश में खूंखार हो चुका है.

आप लिखे का प्रतिकार कलम से कीजिये, गाली-गलौज, हाथापाई और बंदूक से मत कीजिये. जैसे ही आप शब्दों की ताकत से हारने लगते हैं. तर्कों से परेशान होने लगते हैं तो आप शब्दकारों को चुप कराने की कोशिश करते हैं. फिर आपके पास सबसे आसान तरीका होता है, आप उसे बेइज्जत कीजिये, हाथापाई कीजिये या गोली मार दीजिये. शुजात बुखारी को जिसने भी गोली मारी है, वह जरूर उनके शब्दों की ताकत से हार गया होगा. तभी उसने बंदूक से उस हार के अपमान का बदला लिया होगा. अगर आप किसी लेखक, पत्रकार या विचारक के तर्कों का प्रतिकार गालियों से, बल से या गोली से करते हैं, इसका मतलब उनके तर्कों ने आपको पराजित कर दिया है. आप फिर भी जीत जाना चाहते हैं, येनकेन प्रकारेन.

यही तानाशाही है. इसी वजह से सत्ता जाने के खतरे को देखकर इंदिरा ने इमरजेंसी लगा दी थी और अखबारों को बैन कर दिया था. पाकिस्तान में मार्शल लॉ लगना तो सामान्य बात है. नेपाल, श्रीलंका और म्यांमार में हालात बहुत बेहतर नहीं है. हम सब साझी विरासत वाले देश, इतने दिनों तक मजहबी कट्टरता से दूर रहे, अब अपनी पहचान मजहबी कट्टरता के आधार पर गढ़ने की कोशिश कर रहे हैं.
भारत हिंदू राष्ट्र होना चाहता है, बांग्लादेश और अधिक मजहबी होना चाहता है. श्रीलंका के सिंहली तमिलों को बरदास्त नहीं कर रहे. म्यांमार में बौद्ध मुसलमानों को खदेड़ रहे और नेपाल में मधेसी उपेक्षा के शिकार हैं. हम सबको अब बहुलतावाद किताबी थियरी लगने लगी है और हम सब मानने लगे हैं कि बहुलतावाद की वजह से बहुसंख्यकों को ज्यादा नुकसान होता है. हम सब बहुसंख्यकों का आधिपत्य चाहते हैं. हम कम चाहते हैं, मगर इस आग में सत्ता की रोटी सेकने वाली पार्टियां दिन-रात इस आग को भड़काने में लगी है. और जो लोग देख पा रहे हैं कि इस आग से अपना ही घर जल कर भस्म होगा, वे विरोध करते हैं और मारे जाते हैं.

(वरिष्ठ पत्रकार पुष्य मित्र के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)