‘आपातकाल की बात वहीं कह रहे हैं, जिन्होने इसे ना देखा है ना भोगा है, या उस दौर में इसका लाभ उठाया’

चोेर, डाकू और न जाने क्या- क्या बोनस में छप रहा है। क्या आपातकाल में यह संभव था ? यदि आज किसी खबर में दम है, सच्ची खबर है और कहीं नहीं आ पा रही है तो सोशल मीडिया पर तो कोई रोक नहीं है।

New Delhi, Nov 26 : आज कुछ लोग कहते हैं कि देश में ‘आपातकाल’ जैसी स्थिति है। ऐसा कहने वाले मुख्यतः दो तरह के लोग हैं। एक वैसे जिन लोगों ने न तो आपातकाल देखा है और न भोगा है। उनके किसी परिजन ने भी नहीं भोगा है। बल्कि उसका लाभ उठाया होगा। इसलिए चैन से होंगे।
दूसरी तरह के लोग ऐसा कह कर अपनी राजनीति कर रहे हैं। ऐसा कहने का उन्हें पूरा अधिकार है भले उस कारण कुछ लोग यह समझें कि राजनीति का मतलब ही झूठ होता है।

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1975-77 के आपातकाल का मुख्य हथियार मीडिया पर कठोर सेंसरशिप था। आज वैसा कहीं नहीं है। यदि होता भी सोशल मीडिया ने उसे भी अब तक बेमतलब व ध्वस्त कर दिया होता। आज के सोशल मीडिया से नरेंद्र मोदी भी परेशान रहते हैं। आपातकाल की प्रधान मंत्री को किसी मीडिया से किसी तरह की परेशानी नहीं थी। अब जरा पहले के मीडिया को देखिए। गैर इमरजेंसी दिनों की बात कह रहा हूं। उन दिनों गोदी मीडिया शब्द का इजाद नहीं हुआ था। पर इंदिरा गांधी के गैर इमरजेंसी राज में इंडियन एक्सप्रेस-स्टेट्समैन-ट्रिब्यून जैसे थोड़े से अखबारों को छोड़ कर बाकी तो गोदी मीडिया ही तो थे।
दूसरी ओर आज मोदी सरकार के खिलाफ कौन सी ऐसी खबर है जो कही न कहीं छप या आ नहीं जा रही है ?

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चोेर, डाकू और न जाने क्या- क्या बोनस में छप रहा है। क्या आपातकाल में यह संभव था ? यदि आज किसी खबर में दम है, सच्ची खबर है और कहीं नहीं आ पा रही है तो सोशल मीडिया पर तो कोई रोक नहीं है। खुद सोशल मीडिया से आज कई भाजपा नेता भी परेशान है। हालांकि वे लोग भी उसका लाभ उठा रहे हैं और आरोपों को काउंटर कर रहे हैं। आरोप भी लगा रहे हैं। सोशल मीडिया का नकारात्मक पक्ष यह है कि उसमें अफवाहों के लिए भी बहुत जगह व गुंजाइश है। संपादन के प्रावधान के अभाव में ऐसा हो रहा है। कई बार तो लगता है कि यह बंदर के हाथ में नारीयल है। जबकि सोशल मीडिया का बहुत अच्छा इस्तेमाल संभव है। इसके अलावा आज एन.डी.टी.वी. में कोई न्यूज रोकवाने की स्थिति में कोई सरकार नहीं है। मोदी सरकार भी नहीं।

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टेलिग्राफ को भला कौन दबा सकता है ? इंडियन एक्सप्रेस और हिन्दू-फ्रंटलाइन अपने आप में अब भी मीडिया के बादशाह बने हुए हैं। कुछ अन्य भी होंगे। देश बड़ा है। इसके अलावा भी कुछ डिजिटल न्यूज पोर्टल हैं । उनमें से एक पर तो अमित शाह के पुत्र को केस करना पड़ा है। इसके अलावा मीडिया जगत में कुछ ऐसे दिग्गज आज उपलब्ध हैं जो मोदी जी की भी पहुंच से ऊपर हैं। वहां किसी और की पहुंच हे। यानी, उन्हें प्रभावित नहीं किया जा सकता है। वे अपनी धुन में हैं। अपने एजेंडे हैं। दूसरी ओर मीडिया के कुछ ऐसे दिग्गज भी हैं जहां मोदी की ही पहुंच है। यह कोई नई बात नहीं है। ऐसा सब दिन रहा है।
अब 1975-77 का इमरजेंसी देख चुके कोई निष्पक्ष व्यक्ति जरा बताएं कि आज इमरजेंसी की स्थिति है ? उस इमरजेंसी के बारे में आडवाणी जी ने कहा था कि तब ‘मीडिया से सिर्फ झुकने के लिए कहा गया था, पर वे तो लेट गए थे।’ आज के हालात को इमरजेंसी बताना इंदिरा जी की कठोर इमरजेंसी का अपमान करना हुआ। साथ ही, इमरजेंसी के उन भुक्तभोगियों की पीड़ा को हल्का दिखाना और उनके जले पर नमक छिड़कना भी हुआ। इमरजेंसी के दिनों में अखबार वाले अपनी -अपनी खबर की काॅपियां लेकर पी.आई.बी. आॅफिस में हर शाम हाजिर होते थे। अफसर जो पास करते थे, वही छपता था। आज ऐसा हो रहा है क्या ?

(वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)