‘जीएसटी को इतना सरल बनाया जाना चाहिए कि गांव के अनपढ़ व्यापारी को भी कोई दिक्कत न हो’

नोटबंदी के बाद जीएसटी ने इतना कीचड़ फैला दिया कि मोदी की नाव फंसने लगी। तीनों हिंदी राज्यों में हार का वह बड़ा कारण रहा है।

New Delhi, Dec 24 : जीएसटी के मामले में मोदी सरकार की हालत वही हो गई थी, जो हालत किसी यजमान की हवन करते वक्त कभी-कभी हो जाती है याने हवन करते-करते हाथ जल जाते हैं। यह सारे देश के लिए एकरुप टैक्स इसलिए लाया गया था कि लोगों को अपने खरीदे हुए माल पर कम टैक्स देना पड़े और सरकारों और व्यापारियों का सिरदर्द भी कम हो जाए। लेकिन जब डाॅक्टर ही भोंदू हो तो क्या करें ? दवा ही दर्द बन जाती है।

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नोटबंदी के बाद जीएसटी ने इतना कीचड़ फैला दिया कि मोदी की नाव फंसने लगी। तीनों हिंदी राज्यों में हार का वह बड़ा कारण रहा है। जो व्यापारी समाज राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और भाजपा के दानापानी का इंतजाम करता रहा है, उसकी रीढ़ तोड़ने का काम नोटबंदी और जीएसटी ने कर दिया। लेकिन मुझे खुशी है कि सरकार को अब अक्ल आ रही है। हिंदी प्रांतों के धक्के ने सर्वज्ञजी की नींद खोल दी है।

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अब जीएसटी कौंसिल ने 17 चीजों और 6 सेवाओं पर लगनेवाले टैक्सों को घटा दिया है। कुछ पर 28 प्रतिशत से 18 और कुछ पर 18 से 12 और कुछ पर शून्य टैक्स लगाया है। याने जैसा कि नरेंद्र मोदी ने घोषणा की है कि 99 प्रतिशत वस्तुएं अब सबसे ज्यादा टैक्स (28 प्रतिशत) से मुक्त कर दी गई हैं। इस कदम से सरकार को 5500 करोड़ रु. का घाटा होगा। अब भी 28 वस्तुएं ऐसी हैं, जिन पर टैक्स की दर 28 प्रतिशत हैं। अगली बैठक में जीएसटी कौंसिल इनमें से कुछ चीजों पर टैक्स कम करेगी। बिना सोचे-समझे जल्दबाजी में उसने कई फैसले कर लिये थे, जिन्हें वह जाते-जाते ठीक करने की कोशिश करेगी।

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मुझे कुछ व्यापारियों ने बताया कि अभी तक कुछ चीजों पर इतने विचित्र ढंग से जीएसटी लगाया गया है कि हमको हमारे नेताओं पर हंसी आने लगे। जैसे छोले और भटूरे आप अलग-अलग खाएं तो आपको 18 प्रतिशत टैक्स देना होगा और साथ-साथ खाएं तो 12 प्रतिशत। कपड़ों में लगनेवाली झिप में चैन और स्लाइडर पर यह बात लागू होती है। फ्रोजन सब्जियां (बर्फ में जमी हुई) कौन लोग खाते हैं और कितने लोग खाते हैं ? उन पर टैक्स माफ करने की तुक क्या है, समझ में नहीं आता। कुल मिलाकर सरकार के पास टैक्स की आमदनी धुआंधार हो रही है। इस आमदनी का सीधा फायदा गरीबों, ग्रामीणों और मजदूरों को मिले, यह जरुरी है। जीएसटी के हिसाब की प्रणाली को भी इतना सरल बनाया जाना चाहिए कि गांव के अनपढ़ व्यापारी को भी कोई दिक्कत न हो। यह भी अच्छा है कि विभिन्न राज्यों की टैक्स-प्रणालियों के विवादों को निपटाने के लिए एक केंद्रीकृत संस्था बनाई जा रही है। देर आयद, दुरुस्त आयद !

(वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)