‘भाजपा अपनों से हार गई, भीतरघात किसी नेता और बागी ने नहीं बल्कि अपने पुराने विश्वस्त मतदाता ने किया’

चुनाव में हमेशा जीत किसी की नहीं होती, लेकिन चिंता इस बात की है कि भाजपा कांग्रेस से नहीं हारी, बल्कि भाजपा अपनों से हार गई।

New Delhi, Dec 31 : पांच राज्यों के चुनाव परिणाम के बाद ‘मोदी मैजिक’ का असर कम हुआ है…. कर्नाटक और गुजरात के बाद… पांच राज्यों का विधानसभा चुनाव जिसे लोकसभा का सेमिफाइनल माना जा रहा है उसमें भाजपा की हार मोदी ‘मैजिक’ के लिए चेतावनी है…
कहने के लिए कहा जा सकता है कि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में तीन बार लगातार सरकार बनाने के बाद सरकार विरोधी मत का सामना हर सरकार को करना पड़ता है…लेकिन इस तर्क को मोदी-शाह की जोड़ी भी समझती होगी यह एक बहाना से अधिक कुछ नहीं…
देश में हर पार्टी के पास एक सुरक्षित वोट बैंक है…नई पार्टियां उस वोट बैंक को बढ़ाने के लिए संघर्ष करती हैं और बड़ी/पुरानी पार्टियां उस वोट बैंक को बचाने के लिए… राम धुन की राजनीति और आरएसएस की परोक्ष भूमिका के बदौलत भाजपा के पास 1989 से ही एक सुरक्षित वोट बैंक है…लेकिन इस वोटबैंक के आसरे लेकिन सत्ता की देहरी पार कर राजप्रासाद में प्रवेश पाना मुश्किल हो रहा था… मुश्किल को आसान किया अटल बिहारी वाजपेयी की सरल सौम्य छवि ने…लेकिन चुनावी शह-मात में 2004 में अटल जी चूक गये..

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10 साल के बाद दक्षिणपंथी राजनीतिक खेमा से एक प्रांतीय नेता (नरेंद्र मोदी) ने कांग्रेस के कुशासन पर प्रचंड प्रहार करना शुरू किया..उसके शब्दों के सम्मोहन से सत्ताधारी समिकरण का उलझ गया… 2014 में सत्तानशीं होने के बाद मोदी जी ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया… अपने सहयोगी अमित शाह के साथ मिल राष्ट्रीय राजनीति के इन दोनों नये नायकों ने एक एक कर कांग्रेसी/विपक्षी राज्यों को जीतना शुरू किया… समुद्रगुप्त की भांती इस जोड़ी ने किसी प्रदेश को जीत लिया तो किसी को हारने पर मजबूर कर दिया…प्रजातंत्र की भाषा में मोदी मैजिक दिखने लगा…
मोदी जी के पास राज्य संभालने का अनुभव तो था लेकिन राष्ट्र के लिए ये नये खिलाड़ी थे…लिहाजा राष्ट्रीय राजनीति में अमरत्व प्राप्ति की लालसा में मोदी सरकार ने जनोपयोगी नीतियों के मुकाबले खबर की सुर्खियों में छाने वाली नीतियों को अमली जामा पहनाना शुरू किया…संगठन पर कब्जा करने की दृष्टिकोण से मोदा-शाह की जोड़ ने भाजपा के पुराने मंजे हुए दिग्गजों को भी किनारे कर दिया… वर्तमान के दिग्गजों यथा..राजनाथ सिंह.. सुषमा स्वराज, कल्याण सिंह, शिवराज सिंह, रमण सिंह हर किसी को धीरे-धीरे नेपथ्य की राजनीति में जाने को मजबूर कर दिया गया…दसों दिशाओं में मोदीनामा ही मोदीनामा …अति सर्वत्र वर्जयेत की तर्ज पर एक ना एक दिन मोदीनामा मंत्र का असर तो कमना ही था…

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… नोटबंदी के बाद मिली चुनावी सफलता ने शासन के मन में यह भ्रम स्थापित कर दिया कि सरकार के हर फैसले के साथ जनता खड़ी है…ऐसे में नोटबंदी के बाद जीएसटी एक भारी भूल साबित हुई…जीएसटी ने पार्टी से व्यापारी वर्ग को दूर किया…यह वर्ग तकरीबन हर चुनाव में (कम से कम 1989 के बाद से) भाजपा को वोट देते रही है…
दूसरी गलती हुई सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ जाकर संसद में एससी-एसटी एक्ट में संशोधन पेश करना…दरअसल इस मोर्चे मोदी सरकार कांग्रेस की जाल में फंस गई…लंबे अर्से से संवेदनशील मुद्दे की तलाश में बैठी कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों ने मिलकर दलितों के बीच मोदी सरकार की नकारात्मक छवि गढ़ने में कामयाब रही… बिना किसी राजनीतिक बैनर का इस्तेमाल किए दलित संगठनों ने भारत बंद का आंदोलन किया गया…हालांकि इस आंदोलन को विपक्ष का गुप्त लेकिन गंभीर समर्थन प्राप्त था…केंद्र सरकार डर गई…और वो गलती कर बैठी जो शाहबानों केस में राजीव सरकार ने की थी… दलित शांत हुए..सुप्रीम कोर्ट का फैसला संसद में पलटा गया… उनके नेताओं ने संदेश दिया कि सरकार ने उनको कुछ दिया नहीं है बल्कि हमने लड़ कर लिया है… परिणाम सरकार दलितों का दिल जीतने में नाकाम रही…

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अब विपक्ष का दूसरा दांव सवर्णों के बीच चला गया… सवर्णों को यह मैसेज दिया गया कि एससीएटी एक्ट के जरिए सरकार सवर्णों के उत्पीड़न का रास्ता खोज रही है…गौर करने वाली बात है कि इस एक्ट से परेशान एससीएसटी को छोड़कर 80 फीसदी आबादी को होना है लेकिन परेशानी सवर्णों के दिलो दिमाग में पैबंद करने में कांग्रेस सहित तमाम विपक्ष कामयाब रही..
उधर भाजपा सवर्णों को अपना कोर/मजबूर वोटबैंक मान कर आश्वस्त थी…लेकिन चूक यहीं पर हुई…. मोदी-शाह की जोड़ी से पार्टी में उपेक्षित सवर्ण नेता भी बैठे शांत रहे…

अब राजस्थान और मध्यप्रदेश के जनादेश को समझिए…
कांग्रेस को क्या मिला?… सीधा सा जवाब है सत्ता…
भाजपा का क्या गया?…सीधा सा जवाब है सत्ता…
फिर भाजपा के लिए चिंता किस बात की है…चुनाव में हमेशा जीत किसी की नहीं होती… लेकिन चिंता इस बात की है कि भाजपा कांग्रेस से नहीं हारी..बल्कि भाजपा अपनों से हार गई… भीतरघात किसी नेता और बागी ने नहीं किया बल्कि अपने पुराने विश्वस्त मतदाता ने किया…
क्या मध्य प्रदेश का जनादेश पीछले तीन कार्यकाल के विरोध में उपजे जनाक्रोश है…नहीं! बिल्कुल नहीं! …अगर ऐसा होता तो मध्य प्रदेश में भाजपा के विरोध में सुनामी होता… जैसा 2014 में केंद्र में कांग्रेस के विरोध में दिखा था और 2003 में मध्यप्रदेश में ही कांग्रेस के विरोध में दिखा था… भाजपा अंतिम परिणाम आने तक कांग्रेस के लिए सत्ता की सड़क पर चट्टान की भांती खड़ी थी.. मध्यप्रदेश के 11 विधानसभा में भाजपा 500 से लेकर 5000 के मतांतर से हार गई…ऐसा हुआ क्यों…ऐसा हुआ नोटा के कारण…

राजस्थान में नोटा का कहर…
राजस्थान में भाजपा को कांग्रेस से मात्र 0.5% मत कम मिला है कांग्रेस से… इसी प्रदेश में नोटा मतो की संख्या 1.3% है… आंकड़ों के आइना में अगर इस चुनाव को समझिये … राजस्थान में कांग्रेस को कुल 13935205/ मत मिले और भाजपा को 13757502/ मत मिले…अगर नोटा वोट को भाजपा के साथ मिला देते हैं तो भाजपा के पास 14225238/ मत हो जाते हैं…तस्वीर साफ है…जनता नोटा के रूप में GST काट कर भाजपा को वोट दे दिया…हां छत्तीसगढ़ में भाजपा के विरोध में जनादेश आया है और रमण सिंह तीन कार्यकाल के बाद जनता के बीच अपनी सरकार की लोकप्रियता खो बैठे…

नोटा से आखिर भाजपा को ही नुकसान क्यों…
पहली बात..नोटा का प्रयोग वो कर रहा है जो सरकार से नाराज है…नाराजगी विपक्ष से होती है ऐसा किसी राजनीति शास्त्र की किताब में नहीं लिखा गया… नाराजगी अगर राजनीति से होती तो नोटा का बटन दबाने वाला मतदाता घर बैठता…
मध्य प्रदेश में भाजपा के पास प्रतिशत के लिहाज से भी कांग्रेस से अधिक वोट है लेकिन 11 विधानसभा में पार्टी पर नोटा का सोंटा ऐसा चला कि प्रदेश से लेकर केंद्र तक पार्टी कराहने लगी….
दरअसल एससीएसटी एक्ट के विरोध में सवर्णों के बीच सरकार के खिलाफ कुछेक लोगों ने नोटा इस्तेमाल करने का मुहिम चला रखा था…पार्टी के बड़े सवर्ण नेता अपनों के बीच पार्टी की स्थिति दर्ज कराने में असफल रहे और छोटे सवर्ण नेता आम जनता के हाथों लज्जित होते रहे…सवर्ण पार्टी का कोर वोटर है..पार्टी मान कर चल रही थी कि सवर्ण वोटर की नाराजगी मतदान में नहीं दिखेगी… हुआ भी ऐसा है लेकिन सवर्णों ने जो तीसरा रास्ता खोला उससे सप्ष्ट हो ता है कि सवर्णों ने भाजपा के खिलाफ जाने के बनिस्पत भाजपा को चेताने का मन बना लिया है…
पांच राज्यों के जनादेश का परिणाम क्या हो सकता है….
1..राहुल गांधी रेस में आ गये…
2..महागठबंधन को राहुल गांधी के रूप में लोकसभा चुनाव के लिए एक चेहरा मिल गया… यह स्थिति लोकसभा चुनाव में कांग्रेस से ज्यादा भाजपा को सहज करेगी…
3..भाजपा… भाजपा में मोदी अब एक मात्र चेहरा रह गये… अगामी चुनाव के मदद्नजर मोदी जी के लिए यह स्थिति नुकसानदायक ज्यादा होगा….
हिन्दी पट्टी को अगर साधना है तो राजनाथ सिंह, नीतीन गडकरी, सी पी ठाकुर, अर्जुन मुंडा, यशवंत सिन्हा जैसे दूसरी पंक्ति के नेताओं को आगे लाना होगा…
गठबंधन में अब छोटे दलों का बड़ा तवज्जो देना होगा…

पार्टी अब सवर्णों को रिझाने के लिहाज से पीछले दरवाजे से एक बार फिर राम मंदिर का मसला गरमाने के फिराक में है… लेकिन इस मुद्दे पर पार्टी के सवर्ण नेताओं से लेकर सवर्ण मतदातोँ में अब पहले वाला उत्साह नहीं रहा… फिर भी सरकार इस खास मुद्दे पर आक्रमक होती है तो चुनाव आते आते माहौल बदल सकता है… बीजेपी शासित राज्यों में शहरों का नाम बदलने पर भी उत्पन्न माहौल बीजेपी के लिए चुनावी फाएदा दिला सकती है… आयुष्मान भारत योजना से लेकर स्वच्छ भारत अभियान और विदेशी नीति पर मोदी सरकार के फैसले को सहज भाषा में आक्रमक रूप से आम जन तक पहुंचाना होगा… कांग्रेस पर हमला करने के बजाए अपनी उपलब्धी गिनाने पर अधिक ध्यान देना होगा…एक बार फिर मोदी-शाह को मातृ संगठन आरएसएस की शरण में जाना ही होगा…

(पत्रकार धीरेन्द्र कुमार के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)