‘मैंने अभी-अभी देखा है शांति के कुछ फेक मुख़ौटों को फ़ेसबुक वॉल पर पीस का कबूतर उड़ाते हुए’

10 साल की बेटी सौम्या ने जैसे ही पापा को आग दी, चिता के पास ही बेहोश होकर गिर गई। जरा उसकी राय तो पूछो वो बदला चाहती है या नहीं।

New Delhi, Feb 17 : मैंने अभी-अभी देखा है शांति के कुछ फेक मुख़ौटों को फ़ेसबुक वॉल पर पीस का कबूतर उड़ाते हुए। ये कबूतर हाल ही में लॉन्च हुए हैं, कुछ पत्रकार, कुछ कलाकार और कुछ ism (वाद) का भांग घोंटकर बौराये स्वैच्छिक बेरोजगार। ये नहीं चाहते हैं कि इनकी रोज़ाना की ज़िंदगी में जरा भी खलल पड़े। कन्नौज के शहीद प्रदीप की चिता की राख के नीचे की आग अभी भी नहीं बुझी है, 10 साल की बेटी सौम्या ने जैसे ही पापा को आग दी, चिता के पास ही बेहोश होकर गिर गई। जरा उसकी राय तो पूछो वो बदला चाहती है या नहीं।

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हे दिल्ली में बसने वाले privilieged intellectual bird, सच कहूँ, युद्ध से तुम इसलिए दूर भागते हो क्योंकि तुमने कोई अपना नहीं खोया है। तुम्हें इसकी टीस नहीं मालूम। अरे कर्नाटक के शहीद शिवचंद्रन की माँ से तो पूछो उनके सीने में भावनाओं की कौन सी गंगा और प्रतिशोध की कौन सी ज्वालामुखी दबी है।
तुम जानते हो आज शिवचंद्रन के बाप ने आर्मी वाली पोशाक पहनी, उसका 3 साल का बेटा भी पुलिस की वर्दी पहना और पापा को विदाई दिया। राय तो उसकी ली जाएगी। फेसबुक पर आकर तुम ज्यादा ताकतवर होने का जो ढोंग रचते हो इससे तुरंत बाहर निकलो। याद रखना तुम्हें भी एक ही वोट का अधिकार है और उसे भी। लिहाजा शांति का प्रपंच रचकर अपनी खोह में सुरक्षित दुबके रहने का वितंडा रचना छोड़ दो।

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मेरे दोस्त, हमले को न कहने की सहूलियत तुम्हारे पास सिर्फ इसलिए है क्योंकि तुम दिल्ली में well settled हो। तुम्हारे बच्चे स्कूल जाते हैं। तुम भी अच्छे पढ़े लिखे। तुम्हें करियर चुनने का अच्छा विकल्प मिला। ये सुविधाएं, तुम्हारे जैसे आकर्षक विकल्प ; साधारण घरों से आए उन 40 बच्चों को शायद नहीं मिला। गांव की मिट्टी में पल बढ़ कर वे जवान बन गए।
मुझे लगता है बेकारी से जूझ रही गर्म खून को 30-40 हजार की ये नौकरी जम गई। military adventure का रोमांच मिला, सेना का अनुशासन सीखा और ज़िन्दगी दौड़ पड़ी। सब ठीक रहता, बदले की कोई बात न करता अगर हर दो चार महीने में इनकी कुर्बानियों के ब्रेकिंग न्यूज़ टीवी पर न चलते। वजह कभी ऐतिहासिक गलतियां रहती, कभी सरकारी उदासीनता तो कभी दुश्मन मौका देख पीठ पर खंजर घोंप देता.

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तुम चाहते हो ये मरते रहें लेकिन हमारी भावनाएं उबाल ना मारे, हम knee jerk reaction ना दें. ताकि तुम, सिर्फ तुम opinion maker बने रहो। युद्ध से तुम डरते क्यों हो ? भागलपुर के शहीद रतन ठाकुर के पिता तो नहीं डरते, वो तो अपने दूसरे बेटे को भी बॉर्डर पर भेजने को तैयार हैं। ताकि हिसाब चुकता किया जा सके। दिल्ली में अभी इतनी भी तो ठंड नहीं कि एक शहीद सैनिक के पिता की ललकार सुनने के बाद भी तुम्हारा लहू न गर्म हो। तुमसे शारीरिक नहीं तो वैचारिक समर्थन की उम्मीद तो की ही जा सकती है। क्या हो गया है तुम्हें? अरे क्या होगा अगर पाकिस्तान के जवाबी हमले में मैं मर जाऊंगा। 100- 200 या फिर 1000 दो हजार मर जाएंगे। देश तब भी आगे चलेगा मेरे और तुम्हारे बिना।

कभी लगता है कि तुम अपने पेशे पर इतराते हो। जीवन के फैसले लेने में समझदार दिखने की कोशिश करते हो। तुम ऐसा इसलिए कर पाते हो क्योंकि इन 40 जवानों ने तुम्हें बॉर्डर पर सुरक्षा कवच दिया था, ताकि तुम mainland में रहकर ये सारा आडम्बर रच सको, नहीं तो पैग के सुरूर में वह भी गरीबी हटाने और साम्यवाद लाने की गजब की क्षमता रखता था।
देखो, उस शहीद द्वारा सैन्य पेशा चुने जाने के उसके फैसले का मजाक मत उड़ाओ। उसकी कुर्बानी का हिसाब होना चाहिए।
मैं ये नहीं कह रहा कि तुम देश को लेकर संवेदनशील न रहे, या फिर मैं तुमसे ज्यादा फिक्रमंद हूँ, कतई नहीं। ये तो पुलवामा हमले के बाद सोशल मीडिया पर choke हो गये गटर को साफ करने के लिए पानी की तेज बौछार है।
(पत्रकार पन्‍ना लाल के फेसबुक वॉल से साभार,  ये लेखक के निजी विचार हैं)