जहां हमारा लहू गिरा है, वह कश्मीर हमारा है !

सात दशकों में इस्लामी पाकिस्तान से चार युद्धों (पाँचवाँ जारी है) के बाद कश्मीर मसले के हल हेतु मोदी सरकार के पास केवल एक ही विकल्प बचा है| इसमें राजग प्रधानमन्त्री की वाग्मिता अनावश्यक है| केवल क्रियान्वयन की दरकार है|

New Delhi, Mar 02 : दसवीं लोकसभा में सभी सांसदों की सहमति से पारित प्रस्ताव (22 फ़रवरी 1994) के मुताबिक भारत सरकार को जनादेश दिया गया था कि पाकिस्तानी अवैध कब्जे से “हर ढंग” से (बाई आल मीन्स) गुलाम कश्मीर को मुक्त कराया जाय| अर्थात् फिर लहू बहाना पड़े, तो बहे| सांसदों के इस निर्णय के पक्ष में सभी दलों और गुटों ने हाथ उठाये थे| इसमें सत्तासीन राष्ट्रीय कांग्रेस, भाजपा प्रतिपक्ष, जनता दल के सारे टुकड़े, दोनों कम्युनिस्ट पार्टियाँ, केरल मुस्लिम लीग (ई-अहमद) तथा मजलिसे इत्तिहादुल मुसमीन आदि शरीक थे| कांग्रेसी प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव के प्रस्ताव की भाजपायी अटल बिहारी बाजपेयी ने तसदीक की थी|

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इस सार्वभौम घोषित संकल्प से सदन के बाहर घोषित जवाहरलाल नेहरु का निजी निर्णय (12 नवम्बर 1952) स्वतः निरस्त हो गया| पाकिस्तानी हमलावरों के दबाव में, संयुक्त राष्ट्र संघ को जनमत संग्रह का नेहरू ने तब आश्वासन दे डाला था| उपप्रधानमन्त्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने खुलेआम असहमति व्यक्त की थी| ब्रिटिश संसद ने भारतीय स्वतंत्रता एक्ट, 1947, के तहत देशी रियासतों के राजाओं को भारत अथवा पाकिस्तान के साथ विलय का अधिकार दिया था| महाराजा कश्मीर हरी सिंह ने (26 अक्टूबर 1947) को स्वेच्छा और स्वविवेक से भारत में विलयपत्र पर हस्ताक्षर किये थे| शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की सहमति थी| तुर्रा देखिये| शेख का पोता ओमर अब्दुल्ला, जो भाजपा-नीत मंत्रिमंडल में विदेश राज्य मंत्री था, शब्दों की बाजीगरी कर रहा है| वर्तनी की खाल उखाड़ रहा है| इसकी राय में महाराजा ने भारत में “शामिल” होने की शर्त मानी थी, “विलय” के लिये नहीं| शास्त्रीय अल्फाजों में इसे कहें तो विवाह की रस्म सप्तपदी नहीं, वरन मधुचंद्र के पश्चात् पूरी होती है!

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कुछ दस्तावेजी तथ्य पाकिस्तानी फरेब के परिवेश में गौरतलब हैं| मसलन दो साल हुए, (22 मार्च 2017) को ब्रिटिश संसद ने गिलगिट और बाल्टिस्तान को पाकिस्तान द्वारा अपना पांचवां प्रदेश बनाने को अस्वीकार करते हुए निर्णय दिया था कि ये दोनों कश्मीरी क्षेत्र भारतीय कश्मीर के संवैधानिक भूभाग हैं| सत्तारूढ़ कंजर्वेटिव पार्टी सांसद बॉब व्लैकमन का अधिकारिक प्रस्ताव था| आज इसी गिलगिट-बाल्टिस्तान में संपर्क मार्ग बनाकर पाकिस्तान ने कम्युनिस्ट चीन की मदद की है| जिससे पश्चिम चीन के इस्लामी झिनजियांग के उइगर मुसलमानों का जनमुक्ति सेना संहार कर रहा है| दस लाख मुसलमान “पुनर्प्रशिक्षण” शिविर में मजहब की निरर्थकता का पाठ पढ़ रहे हैं| नमाज पर पाबंदी है| मस्जिद के पास घेंटे का मांस बिकता है| हज यात्रा निरस्त है| अरबी की जगह मंडारिन भाषा अनिवार्य है| यह सब इस्लामी पाकिस्तान की सहमति से किया गया है|
मगर कश्मीर के बारे में कांग्रेस शासन का नजरिया निकट-दृष्टि दोष से ग्रसित रहा| मसलन नेहरू के प्रतिरक्षा मंत्री डॉ. कैलाशनाथ काटजू ने अपनी पुंछ यात्रा (जुलाई 1956) पर सार्वजानिक सभा में कहा था कि कश्मीर समस्या का एकमात्र हल विभाजन है|

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अर्थात् युद्धबंदी रेखा ही अंतर्राष्ट्रीय सीमा मान ली जाय| इसी मसले पर ताजा तरीन कथन पूर्व प्रधानमन्त्री सरदार मनमोहन सिंह का है| संयुक्त राष्ट्र असेम्बली के गलियारे में (सितम्बर 2013) मनमोहन सिंह ने नवाज शरीफ से कहा था, “मियां साहब ! कोई भी भारतीय प्रधान मंत्री कश्मीर को छोड़ नहीं सकता है|” (कांग्रेस मंत्री सलमान खुर्शीद की किताब “दि अदर साइड ऑफ़ माउन्टेन”)| आज नरेंद्र मोदी को स्मरण कराने की दरकार है कि कश्मीरियत के प्रणेता हिमालयी वादी की ब्राह्मण लोग थे| कवि कल्हण के वंशज| हालांकि उसी कुलगोत्र के जवाहरलाल नेहरू भी थे|
आज भारत-पाकिस्तानी सैनिक टकराव के सन्दर्भ में भारतीय गणराज्य के अंगीकृत संविधान के मूलभूत सिद्धांत, चिंतन तथा विमर्श अपरिहार्य है| एक सवाल उठता है कि 1947 के ग्रीष्मकाल में मोहम्मद अली जिन्ना ने महाराजा हरी सिंह से अपने स्वास्थ्य लाभ हेतु श्रीनगर जाने की अभिलाषा जाहिर की थी| डोगरा नरेश ने मुस्लिम लीग के इस अद्ध्यक्ष को आमंत्रण नहीं दिया| मगर अपनी जिद ठान कर जिन्ना कश्मीर गए| प्रकाशित रपट के अनुसार शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस के सदस्यों ने जिन्ना को चरण पादुकाओं की माला गूंथकर उनके गले में पहना दी थी| मंच पर से उतार दिया था| इसीलिए आज त्रासदपूर्ण आश्चर्य होना स्वाभाविक है कि जिन्ना का नाम रटने वाले ये पाकिस्तानी शासक कश्मीर पर क्योंकर हक़ जताते हैं?
अतएव भारतीयों को मुस्लिम राष्ट्रों को समझाना होगा कि आजाद भारत का कोई मजहब या राजधर्म नहीं है| इस्लाम के आधार पर कश्मीर यदि पाकिस्तान का भूभाग बनता है तो हिन्दुस्तान में साढ़े अठारह करोड़ मुसलमानों का भारत में रहने के आधारभूत तर्क पर विवाद उठेगा|

पाकिस्तान में 1947 में बाईस प्रतिशत गैरमुसलमान थे| आज केवल डेढ़ प्रतिशत रह गए| ऐसा भारत में कदापि नहीं हो सकता है| दुनिया में भारतीय मुसलमानों को नंबर तीसरा है| हिंदेशिया तथा पाकिस्तान के बाद|
कश्मीर हथियाने में जुटे इस्लामी पाकिस्तान को मानना पड़ेगा कि पंथनिरपेक्ष सार्वभौम राष्ट्र भारत उस गोली को (कवि प्रदीप के शब्दों में) भूल नहीं सकता जो बापू को चीर गई थी| भारत गाँधीवादी सर्वधर्मवादी रहेगा और कश्मीर पर उसके अधिकार का यही तर्क है, यही दर्शन है| अतः कुरुक्षेत्र का मन्त्र कश्मीर में तैनात भारतीय रणबांकुरों के कान में गूंजता रहेगा कि वीर सैनिकों अराति पाकिस्तानियों के लिये “उत्तिष्ठ, युद्ध कुरु”| प्रशस्त पुण्य पंथ पर बढे चलो|
(के विक्रम राव के फेसबुक वॉल से साभार,  ये लेखक के निजी विचार हैं)