‘राजवंशीय’ लोकतंत्र के बढ़ते कदम-एक और चुनाव

लोकतंत्र के राजवंशीय शासक अपने वोट बैंक के अलावा कितनों को राहत पहुंचाते रहे हैं ?

New Delhi, Mar 11 : मशहूर पत्रकार नीरजा चौधरी ने 2003 में लिखा था कि ‘भारतीय राजनीति मात्र 300 परिवारों तक सीमित है।’ नीरजा ने यह भी लिखा था कि ‘हर व्यवसाय में डिग्री की जरूरत होती है। लेकिन राजनीति ऐसा पेशा है जहां बेटा बड़ी आसानी से बाप की राह को अपना सकता है।’

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@पंजाब केसरी-30 नवंबर 2003@
पिछले 16 साल में ऐसे परिवारों की संख्या कितनी बढ़ी है ? यह संख्या बढ़कर अभी 565 हुई या नहीं ? कब तक हो जाएगी ? 2019 के चुनाव में कितने नए परिवार जुड़ेंगे ? याद रहे कि अंगे्रजों के शासनकाल में हमारे यहां 565 राज घराने थे। राज घरानों को जन कल्याण से कम ही मतलब रहता था। उस जमाने में कलक्टर रहे एक आई.सी.एस.अफसर ने लिखा है कि जिले में कहीं दैविक विपदा या अगलगी वगैरह होने पर राहत के लिए पैसे बिलकुल नहीं होते थे। हमलोग स्थानीय व्यवसायियों से विनती करके कुछ पैसे एकत्र करते थे। उन्हीं पैसों से विपदापीडि़त बेसहारा लोगों को थोड़ी राहत पहुंचाते थे। लोकतंत्र के राजवंशीय शासक अपने वोट बैंक के अलावा कितनों को राहत पहुंचाते रहे हैं ?

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ताजा खबर जय पुर से है। इंडिया टूडे लिखता है कि ‘सभी निगाहें अब वैभव गहलोत पर लगी है कि अब वे चुनावी पारी शुरू करने का संकेत देते हैं या नहीं।’ आज के अधिकतर राजनीतिक परिवारों के चाल, चरित्र और चिंतन उन रजवाड़ों से ही मिलते -जुलते लगते हैं। जिस तरह पहले से ही यह तय रहता था कि जय पुर राज घराने के जय सिंह के बाद राम सिंह उनके उत्तराधिकारी होंगे।राम सिंह के बाद माधो सिंह और उनके बाद सवाई मान सिंह उत्तराधिकारी होंगे,उसी तरह आज के डायनेस्टिक डेमोक्रेसी के दौर में कई राजनीतिक दलों में यह उत्तराधिकार सूची पहले से तय है। उस दल को सत्ता मिलने पर यह भी तय है कि कौन मुख्य मंत्री या प्रधान मंत्री होगा।दल के मसले पर अंतिम निर्णय किसका होगा।

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कम्युनिस्ट व संघ परिवार से जुड़े दल को छोड़कर आज अधिकतर दलों का यही हाल है।
कम्युनिस्ट तो विलुप्त हो रहे हंै।उसका सबसे बड़ा कारण यह है कि उसे न तो सामाजिक न्याय की कोई समझ है और न ही राष्ट्रवाद की। वैसे आर्थिक मामले में ईमानदारी औरों से अधिक है। कल्पना कीजिए कि भाजपा भी किसी कारणवश कभी विलुप्त होने लगे तो इस देश की राजनीति में क्या बचेगा ? बच जाएंगे नए ‘राजनीतिक घराने’ ! लोकतंत्र के राजवंशीय घराने। उनके मुख्य लक्षण होंगे -जातिवाद, संप्रदायवाद, अपराध और धनलोलुपता !
इनमें से कुछ लक्षण तो भाजपा व कम्युनिस्ट दलों में भी हैं। पर पराकाष्ठा तो दूसरी ओर ही है।
नीरजा चैधरी के 300 घरानों की संख्या में अब तक कितनी बढ़ोत्तरी हुई है ?

इस चुनाव के बाद और कितने घराने बढ़ेंगे ? यह संख्या बढ़कर 565 तक कब पहुंच जाएगी ?
अंत में–परिवारवाद तो लगभग हर दल में है। पर,परिवारवाद और परिवारवाद में भी भारी अंतर है। एक राजनीतिक परिवार अपनी पूरी पार्टी निजी कारखाने की तरह अपनी अगली पीढ़ी को सौंप जाता है। कुछ दूसरे दलों में ऐसा नहीं है।पर उनमें भी कुछ नेताओं यानी एम.पी.एम.-एल.ए.के परिजन टिकट पा जाते हैं या मंत्री बन जाते हैं।हालांकि वह भी सही नहीं है।उससे राजनीतिक कार्यकत्र्ता घटते हैं। वैसे इन दिनों एम.पी.-एम.एल.ए.फंड के ठेकेदार वह कमी पूरी कर रहे हैं।इसीलिए ये फंड बंद भी नहीं हो रहे हैं।

(वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र  किशोर के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)