Opinion – अम्बेडकर जयंती को रिश्वत का सबब बनने क्यों देते हैं दलित लोग

मैं वोट और बेहिसाब बौद्धिक पाखंड तथा अराजक राजनीतिक अवसरवाद को नहीं मानता । इस लिए आंबेडकर को भी नहीं मानता ।

New Delhi, Apr 14 : जैसे किसी ओहदेदार व्यक्ति के बच्चे के जन्म-दिन पर तमाम लोग बच्चे के बहाने उस व्यक्ति के लिए उपहार ले कर जाते हैं । उपहार की आड़ में रिश्वत । ठीक वैसे ही आज तमाम राजनीतिक दल दलित वोटों की सौगात पाने के लिए अम्बेडकर जयंती की रिश्वत लिए खड़े दिख रहे हैं । हर साल दीखते हैं । छोटे बच्चे तो नहीं जानते कि अंकल-आंटी लोग इतने सारे गिफ्ट उस के लिए नहीं , उस के पापा को ख़ुश करने के लिए लाए हैं लेकिन क्या यह दलित वोटर भी नहीं जानते कि यह राजनीतिक दलों के लोग अम्बेडकर जयंती मनाने की होड़ क्यों लगाए पड़े हैं ।

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अम्बेडकर जयंती को रिश्वत का सबब बनने क्यों देते हैं दलित लोग । बता दूं कि मायावती जैसे लोग भी अम्बेडकर को , अम्बेडकर जयंती और उन के नाम पर योजनाओं को वैसे ही ट्रीट करते हैं जैसे कोई नरेंद्र मोदी , कोई राहुल गांधी , कोई मुलायम , कोई अखिलेश , कोई आदि , कोई इत्यादि । सब के लिए अम्बेडकर बस एक टूल हैं दलित वोट बटोरने का , कोई मसीहा आदि नहीं । बात बस इस बात को समझ लेने की है । लेकिन कोई समझना कहां चाहता है भला । या इस बात को समझने के लिए भी आरक्षण की ही दरकार है ?

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नरेंद्र मोदी के विकास के दावों की विफलता , उन की हिप्पोक्रेसी , उन की इस एक धूर्तता में ही देखी जा सकती है कि वह अम्बेडकर के चरणों में लहालोट हो कर लेट गए हैं । वह अम्बेडकर जो शिव , कृष्ण और राम को जलील करते हुए नहीं अघाते थे । इन के अस्तित्व को ही नहीं मानते थे । लेकिन नरेंद्र मोदी अम्बेडकर को सर्वस्व मानते हैं । सिर्फ़ दलित वोटों के लिए । विकास की बात में जो दम होता तो इस हिप्पोक्रेसी की ज़रुरत पड़ती क्या भला ।

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मैं वोट और बेहिसाब बौद्धिक पाखंड तथा अराजक राजनीतिक अवसरवाद को नहीं मानता । इस लिए आंबेडकर को भी नहीं मानता । मैं गांधी को मानता हूं। गांधी के विचारों को मानता हूं । आंबेडकर के तमाम विचारों से असहमत हूं। यह ठीक है कि गांधी ने ही आंबेडकर को राजनीतिक और सामाजिक स्पेस दिया था और वह एक समय बाद गांधी से ही टकरा गए। लेकिन अगर गांधी न होते तो आंबेडकर कहां होते ? यह विमर्श लोग भूल जाते हैं। जो भी हो मैं किसी भेड़ चाल में शामिल नहीं हूं। इस लिए कि मैं न तो पाखंडी हूं , न कायर । आप को गांधी से या मुझ से कोई दिक्क़त है तो अपने पास रखिए न । अपने गिरोह में उसे शेयर कीजिए । क्यों कि मैं किसी गिरोह में भी नहीं हूं। होना भी नहीं चाहता । ठीक ? इस लिए भी कि आबादी , वोट और उस की गुंडई में ताक़त बहुत दिखती है। बड़े-बड़े विवेकवान बुद्धि से विदा हो गए हैं इस शोर में।

(वरिष्ठ पत्रकार दयानंद पांडेय के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)