अक्षय कुमार ने मोदी का इंटरव्यू क्यों लिया?

अक्षय कुमार को टीवी पर देखते हैं गुस्से में कहते हैं – लो आ गया “राष्ट्रवादी हीरो”… आजकल “राष्ट्रवादी” शब्द का इस्तेमाल वो अक्सर ताना मारने के लिए करते हैं।

New Delhi, Apr 24 : मेरे एक मित्र हैं, बेहद ईमानदार हैं, लेकिन पिछले कुछ दिनों से वो एक अजीब सी समस्या से जूझ रहे हैं। उन्हे लगता है कि इस देश में जो भी गलत हो रहा है वो सिर्फ 2014 के बाद ही हो रहा है। वो जब भी अक्षय कुमार को टीवी पर देखते हैं गुस्से में कहते हैं – लो आ गया “राष्ट्रवादी हीरो”… आजकल “राष्ट्रवादी” शब्द का इस्तेमाल वो अक्सर ताना मारने के लिए करते हैं। आज भी वो इस बात से नाराज़ थे कि अक्षय कुमार ने मोदी का इंटरव्यू क्यों लिया? सनी देओल बीजेपी में शामिल क्यों हो गए?

Advertisement

मैंने उन्हे समझाया कि भाई – ये कौन सी नई बात है, हर दौर में बॉलीवुड का सियासत से कनेक्शन रहा है… और लोकतंत्र में इस “गलत” प्रथा की शुरुआत करने वाले कोई और नहीं खुद लोकतंत्र के सबसे बड़े “रक्षक” पंडित जवाहर लाल नेहरू थे… और इसकी शुरुआत उन्होने की थी 1962 में… मुंबई उत्तर के तब के चुनाव में नेहरू जी के सबसे करीबी दोस्त तत्कालीन रक्षा मंत्री वी के कृष्ण मेनन कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे थे, ये वही मेनन थे जिन्हे चीन के युद्ध का ‘खलनायक’ कहा जाता है। खैर मेनन के सामने थे गांधी के अनुयायी और महान स्वतंत्रता सेनानी आचार्य कृपलानी। 62 के इस चुनाव में मेनन आचार्य कृपलानी के सामने बुरी तरह फंस गए थे, उनकी हार तय दिख रही थी। मेनन को जीताने के लिए पहले तो नेहरू ने गोवा की आजादी के लिए सैन्य अभियान चलाया और सेना के पराक्रम का क्रेडिट मेनन को देकर उन्हे गोवा की आज़ादी का हीरो बना दिया (इस एतिहासिक घटना पर मैंने कुछ दिन पहले ही एक पोस्ट लिखा था, जिसमें इस गोवा कांड का विस्तार से वर्णन है, आप उसे पढ़ सकते हैं)…

Advertisement

लेकिन इस चुनावी शतरंज में नेहरू की ये इकलौती चाल नहीं थी, वो एक और हरकत करने वाले थे… जो आगे चलकर भारतीय सियासत की रवायत बन गई। स्वतंत्रता सेनानी कृपलानी को हराने और अपने वामी दोस्त मेनन को जीताने के लिए उन्होने मोहरा बनाया उस समय के सुपर स्टार दिलीप कुमार को। दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा “वजूद और परछाई” (the substance and the shadow) में उस चुनाव को याद करते हुए लिखा है कि “””” पंडित जवाहरलाल नेहरू ने मुझे खुद फोन कर के कहा था कि ‘क्या मैं समय निकाल कर बंबई में कांग्रेस ऑफिस में जाकर वी के कृष्ण मेनन से मिल सकता हूं?’ मैंने पंडित जी की बात का सम्मान किया और जैसा उन्होने आदेश दिया था मैं मेनन से मिलने जुहू में कांग्रेस ऑफिस पहुंच गया… मेनन ने मुझसे कहा कि मुकाबला कड़ा है, वो चाहते थे कि मैं उनके लिए रैली करूं… जब मैं पहली रैली करने पहुंचा तो भीड़ की खुशी और जोश भरी चीख-पुकार और साफ सुनाई देने लगी… मैंने गहरी सांस ली और 10 मिनट तक बोला… जब मेरा भाषण खत्म हुआ तो तालियों की आवाज कानों को बहरा कर देने वाली थी…. इस तरह मैंने मेनन के लिए चुनाव प्रचार करते हुए कई भाषण दिए… बाद में कांग्रेस के लिए चुनाव प्रचार करना एक मेरा एक नियमित काम बन गया क्योंकि कृष्ण मेनन जीत गए थे।”””” यानि दोस्तों… नेहरू ने ‘नायक’ दिलीप कुमार को मोहरा बना कर ‘खलनायक’ मेनन के लिए सियासत के एक ‘संत’ आचार्य कृपलानी की बलि ले ली…

Advertisement

1962 में इसी तीसरे आमचुनाव में नेहरू ने एक और ‘नायक’ बलराज साहनी का इस्तेमाल करके सियासत के असली “हीरो” अटल बिहारी वाजपेयी की भी बलि ली थी… बलरामपुर लोकसभा सीट पर नेहरू ने वाजपेयी के खिलाफ सुभद्रा जोशी को खड़ा किया था जो कि एक कमज़ोर कैंडीडेट साबित हो रही थीं… सुभद्रा जोशी की हार तय थी तभी अंतिम समय में नेहरू ने वही मुंबई वाली चाल चली और बलराज साहनी को बलरामपुर भेज दिया वो भी पूरे दो दिन के लिए। असर ये हुआ कि जीतते-जीतते अटल जी चुनाव हार गए… जानते हैं कितने वोटों से ??? सिर्फ 2052 वोटों से… सुभद्रा जोशी को उस चुनाव में कुल 1 लाख 2 हजार 260 वोट मिले थे जबकि अटल जी को 1 लाख 208 वोट मिले… अटल जी की हार का अंतर सिर्फ 3% से भी कम था… लेकिन छोटा सा ये अंतर आगे जाकर भारतीय सियासत का रिवाज़ बन गया…
मैं एक बार फिर कह रहा हूँ कि जब भी देश के इतिहास में हुई किसी घटना या गलती का हवाला दो तो बुद्धिजीवियों को बुरा लग जाता है… वो कहने लगते हैं और इस बार भी कहेंगे कि- इतिहास की बात क्यों की जाती है ??? हर बात में नेहरू को क्यों घसीटा जाता है ??? बिल्कुल घसीटा जाएगा… और घसीटना भी चाहिए… इतिहास का हवाला देना जरूरी है, क्योंकि लोगों को पता चलना चाहिए कि आज जिस बात पर उंगली उठाई जा रही है, उस गलत प्रथा और रिवाज़ की शुरुआत आखिर किसने की थी ??? दुनिया को ये पता होना चाहिए की “लोकतंत्र के रक्षक” महान नेहरू ने कैसे भारतीय चुनावों में गंदगी का घिनौना बीज बोया और गलत रिवाज़ की शुरुआत की… देश को मालूम होना चाहिए कि 2014 के पहले भी बहुत कुछ हुआ है, जो हमेशा बुद्धिजीवियों ने सात तालों में छुपा कर रखा था।

(वरिष्ठ पत्रकार प्रखर श्रीवास्तव के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)