Opinion : कन्हैया और पोलिटिकल कन्जूमरिज्म का यह दौर

आजकल जहां जाता हूँ वहीं लोग पूछते हैं, कन्हैया कुमार का क्या हाल है? बेगुसराय सीट की क्या खबर है? यह मैं सोशल मीडिया की बात नहीं कह रहा, गांव और देहात के इलाके की बात बता रहा हूँ।

New Delhi, Apr 29 : राजनीतिक रूप से सजग हर इन्सान इस चुनाव को लेकर स्पेकुलेशन कर रहा है, दावे कर रहा है और नया अपडेट जानना चाह रहा है। फिर चाहे वह भाजपाई हो, अम्बेडकरवादी हो, कांग्रेसी हो, वामपंथी हो, या किसी भी दल का समर्थक क्यों न हो। और खास तौर पर बुद्धिजीवियों के उस कुनबे ने तो कन्हैया को जिताने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। पैसे से भी और व्यक्तिगत मौजूदगी से भी। रोज देश भर से साहित्यकार, कलाकार, फिल्मकार और दूसरे रचनाधर्मी लोग खुद अपना पैसा खर्च करके कन्हैया का प्रचार करने पहुंच रहे हैं और इस भीषण गर्मी में बेगुसराय के गांव देहात का चक्कर लगा रहे हैं।

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सच तो यह है कि बेगूसराय में हो रहे इस चुनाव में कन्हैया की तरफ से वाम दल नहीं बल्कि देश भर में मौजूद मोदी विरोधी बुद्धिजीवी चुनाव लड़ रहे हैं। मुमकिन है, वे कम से कम बेगूसराय में वोटरों को यह समझा पायें कि कन्हैया जैसे युवक देशद्रोही नहीं, देश के लिये उम्मीद की किरण हैं। सिर्फ भारत-पकिस्तान और हिन्दू-मुस्लिम करने से देश का विकास नहीं होगा। हमें नफरत की राजनीति से उबरना चाहिये। ये बुद्धिजीवी पिछ्ले पांच साल से पूरे देश को यह बात अपनी सीमित शक्ति से समझाने की कोशिश करते रहे, मगर उनका तरीका बहुत कारगर नहीं रहा। टीवी मीडिया और वाट्सएप ने मिलकर देश की बहुसंख्यक जनता के दिमाग में यह डाल दिया कि इस देश को सबसे अधिक खतरा मुसलमानों से है और मोदी ही उन्हें इस खतरे से बचा सकता है। और फिलहाल दूसरे तमाम मुद्दे होल्ड करके हमें मोदी पर भरोसा जताना होगा।

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वैसे तो भाजपा और एनडीए के खिलाफ इस बार कई राजनीतिक पार्टियां मैदान में हैं। कांग्रेस से लेकर, सपा, बसपा, राजद, तृणमूल, द्रमुक, तेदेपा, बीजद आदि पार्टियों चुनाव में मोदी का विरोध कर रही हैं और कमोबेस इन्हीं सवालों को उठा रही हैं। मगर इन पार्टियों के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि अब जनभावनाओं के साथ ये पार्टियां चल नहीं पातीं। लम्बे समय तक सत्ता का फल चख लेने की वजह से इन पार्टियों को आज कई मुद्दों पर मौन रह जाना पड़ता है। जैसे इस चुनाव में बिहार में सृजन घोटाला और मुजफ्फरपुर बालिका गृह काण्ड जैसी लोमहर्षक घटनाएं कोई मुद्दा नहीं हैं क्योंकि यहां की मुख्य विपक्षी पार्टी राजद खुद भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी रही है और उसने इस बार बलात्कार के आरोपी राजबल्लभ यादव जैसे नेता की पत्नी को टिकट दिया है। ऐसे में वह खुद इन मुद्दों पर मुखर नहीं हो पाती।

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यह लोकतंत्र की विडम्बना है कि जनता हर बार एक दल या दलों के समूह से ऊब कर दूसरे को चुन लेती है । बदलाव के डेस्पेरेशन में यह भी नहीं सोच पाती कि सामने जो दल है वह कैसा है। जिन मुद्दों पर लोग सत्ताधारी दल को बदलने का मन बनाते हैं वही कमियां विपक्षी दल में भी होती है। मगर लोग करे तो क्या करे। इसी डेस्पेरेशन में लोगों ने 2014 में कांग्रेस को हटा कर बीजेपी को चुन लिया अब इस बीजेपी ने भ्रष्टाचार, काला धन, बेरोजगारी, महंगाई जैसे मसलों पर काम करने के बदले खुद को एक साम्प्रदायिक दैत्य में बदल लिया और बहुसंख्यक हिन्दू आबादी की इंसिक्योरिटी को उभार कर, उसे अल्पसंख्यक विरोधी बनाकर अपने पीछे खड़ा कर लिया। जरूरी मुद्दे वहीं रह गये।

सच पूछिये तो यह बदलाव कुछ कुछ वैसा ही लगता है, जैसे हम पेप्सोडेंट के बदले कोलगेट इस्तेमाल करने लगते हैं या मैगी में लेड की खबर उड़ती है तो टॉप रोमन खाने लगते हैं। कुछ दिन बाद पता चलता है कि दोनों एक जैसे ही प्रोडक्ट हैं। कुछ खामियां इनमें है तो कुछ उनमें।
इस डेमोक्रेसी ने पिछ्ले 60-70 साल में हमें पोलिटिकल कन्जुमर बना दिया है। पोलिटिकल पार्टियां कम्पनी बन गयी हैं। वे अलग अलग सेग्मेंट में ग्राहक चुनती हैं। उनके मूड का सर्वे कराती हैं और उन्हें उसी तरह का कस्टमाइज प्रोडक्ट पेश करती हैं।

अब ये प्रोडक्ट बिल्कुल वैसे ही होंगे जैसा चुनाव के दौरान पार्टियां दावा करती हैं इसकी कोई गारंटी नहीं है। बल्कि इस बात की पूरी गारंटी है कि ये इनका 70 फीसदी दावा झूठा निकलेगा। मगर आप इन्हें वोट देकर उसी तरह फंस जाते हैं, जैसे सुपर कूलिंग और कम बिजली खर्च होने का झांसा देने वाले किसी एयरकन्डीशन को खरीद कर लोग फंस जाते हैं। अब इतना पैसा लग गया है तो झेलना ही है । हां, अच्छा सेल्समैन वह होता है, जो बाद में आकर आपको समझा दे कि हां ठीक है आपका घर ठंडा नहीं हो रहा, मगर इस एसी की सबसे बड़ी खूबी है कि इससे आपके घर की सारी गर्मी पड़ोसी के घर चली जाती है। अब तक वह आपको बहुत परेशान करता आया था, अब आपके एसी की गर्मी से तबाह रहेगा।
तो इस पोलिटिकल कंजूमरिज्म के दौर में जहां पूरे देश में वोटर अलग अलग कम्पनीयों को कम्पेयर कर रहा है, बेगूसराय में वोटर खुद एक विकल्प बन कर मैदान में है। वह एक अलग विकल्प पेश कर रहा है और यह साबित कर रहा है कि लोकतंत्र में जनता के लिये, जनता द्वारा चलनी वाली व्यवस्था है। इसे पोलिटिकल कंजूमरिज्म में बदलने से रोकना है।
(यह कतई जमीनी आकलन नहीं है, यह मेरा व्यक्तिगत विचार है। इस पोस्ट के साथ लगा वीडियो कन्हैया के प्रचार का एक नमूना है, जिसे हमने 21 अप्रैल को मन्झौल बाज़ार में देखा था।)
(वरिष्ठ पत्रकार पुष्य मित्र के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)

कन्हैया और पोलिटिकल कन्जूमरिज्म का यह दौर————————–आजकल जहां जाता हूँ वहीं लोग पूछते हैं, कन्हैया कुमार का क्या हाल है? बेगुसराय सीट की क्या खबर है? यह मैं सोशल मीडिया की बात नहीं कह रहा, गांव और देहात के इलाके की बात बता रहा हूँ। राजनीतिक रूप से सजग हर इन्सान इस चुनाव को लेकर स्पेकुलेशन कर रहा है, दावे कर रहा है और नया अपडेट जानना चाह रहा है। फिर चाहे वह भाजपाई हो, अम्बेडकरवादी हो, कांग्रेसी हो, वामपंथी हो, या किसी भी दल का समर्थक क्यों न हो। और खास तौर पर बुद्धिजीवियों के उस कुनबे ने तो कन्हैया को जिताने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। पैसे से भी और व्यक्तिगत मौजूदगी से भी। रोज देश भर से साहित्यकार, कलाकार, फिल्मकार और दूसरे रचनाधर्मी लोग खुद अपना पैसा खर्च करके कन्हैया का प्रचार करने पहुंच रहे हैं और इस भीषण गर्मी में बेगुसराय के गांव देहात का चक्कर लगा रहे हैं।सच तो यह है कि बेगूसराय में हो रहे इस चुनाव में कन्हैया की तरफ से वाम दल नहीं बल्कि देश भर में मौजूद मोदी विरोधी बुद्धिजीवी चुनाव लड़ रहे हैं। मुमकिन है, वे कम से कम बेगूसराय में वोटरों को यह समझा पायें कि कन्हैया जैसे युवक देशद्रोही नहीं, देश के लिये उम्मीद की किरण हैं। सिर्फ भारत-पकिस्तान और हिन्दू-मुस्लिम करने से देश का विकास नहीं होगा। हमें नफरत की राजनीति से उबरना चाहिये। ये बुद्धिजीवी पिछ्ले पांच साल से पूरे देश को यह बात अपनी सीमित शक्ति से समझाने की कोशिश करते रहे, मगर उनका तरीका बहुत कारगर नहीं रहा। टीवी मीडिया और वाट्सएप ने मिलकर देश की बहुसंख्यक जनता के दिमाग में यह डाल दिया कि इस देश को सबसे अधिक खतरा मुसलमानों से है और मोदी ही उन्हें इस खतरे से बचा सकता है। और फिलहाल दूसरे तमाम मुद्दे होल्ड करके हमें मोदी पर भरोसा जताना होगा।वैसे तो भाजपा और एनडीए के खिलाफ इस बार कई राजनीतिक पार्टियां मैदान में हैं। कांग्रेस से लेकर, सपा, बसपा, राजद, तृणमूल, द्रमुक, तेदेपा, बीजद आदि पार्टियों चुनाव में मोदी का विरोध कर रही हैं और कमोबेस इन्हीं सवालों को उठा रही हैं। मगर इन पार्टियों के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि अब जनभावनाओं के साथ ये पार्टियां चल नहीं पातीं। लम्बे समय तक सत्ता का फल चख लेने की वजह से इन पार्टियों को आज कई मुद्दों पर मौन रह जाना पड़ता है। जैसे इस चुनाव में बिहार में सृजन घोटाला और मुजफ्फरपुर बालिका गृह काण्ड जैसी लोमहर्षक घटनाएं कोई मुद्दा नहीं हैं क्योंकि यहां की मुख्य विपक्षी पार्टी राजद खुद भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी रही है और उसने इस बार बलात्कार के आरोपी राजबल्लभ यादव जैसे नेता की पत्नी को टिकट दिया है। ऐसे में वह खुद इन मुद्दों पर मुखर नहीं हो पाती।यह लोकतंत्र की विडम्बना है कि जनता हर बार एक दल या दलों के समूह से ऊब कर दूसरे को चुन लेती है । बदलाव के डेस्पेरेशन में यह भी नहीं सोच पाती कि सामने जो दल है वह कैसा है। जिन मुद्दों पर लोग सत्ताधारी दल को बदलने का मन बनाते हैं वही कमियां विपक्षी दल में भी होती है। मगर लोग करे तो क्या करे। इसी डेस्पेरेशन में लोगों ने 2014 में कांग्रेस को हटा कर बीजेपी को चुन लिया अब इस बीजेपी ने भ्रष्टाचार, काला धन, बेरोजगारी, महंगाई जैसे मसलों पर काम करने के बदले खुद को एक साम्प्रदायिक दैत्य में बदल लिया और बहुसंख्यक हिन्दू आबादी की इंसिक्योरिटी को उभार कर, उसे अल्पसंख्यक विरोधी बनाकर अपने पीछे खड़ा कर लिया। जरूरी मुद्दे वहीं रह गये।सच पूछिये तो यह बदलाव कुछ कुछ वैसा ही लगता है, जैसे हम पेप्सोडेंट के बदले कोलगेट इस्तेमाल करने लगते हैं या मैगी में लेड की खबर उड़ती है तो टॉप रोमन खाने लगते हैं। कुछ दिन बाद पता चलता है कि दोनों एक जैसे ही प्रोडक्ट हैं। कुछ खामियां इनमें है तो कुछ उनमें।इस डेमोक्रेसी ने पिछ्ले 60-70 साल में हमें पोलिटिकल कन्जुमर बना दिया है। पोलिटिकल पार्टियां कम्पनी बन गयी हैं। वे अलग अलग सेग्मेंट में ग्राहक चुनती हैं। उनके मूड का सर्वे कराती हैं और उन्हें उसी तरह का कस्टमाइज प्रोडक्ट पेश करती हैं।अब ये प्रोडक्ट बिल्कुल वैसे ही होंगे जैसा चुनाव के दौरान पार्टियां दावा करती हैं इसकी कोई गारंटी नहीं है। बल्कि इस बात की पूरी गारंटी है कि ये इनका 70 फीसदी दावा झूठा निकलेगा। मगर आप इन्हें वोट देकर उसी तरह फंस जाते हैं, जैसे सुपर कूलिंग और कम बिजली खर्च होने का झांसा देने वाले किसी एयरकन्डीशन को खरीद कर लोग फंस जाते हैं। अब इतना पैसा लग गया है तो झेलना ही है । हां, अच्छा सेल्समैन वह होता है, जो बाद में आकर आपको समझा दे कि हां ठीक है आपका घर ठंडा नहीं हो रहा, मगर इस एसी की सबसे बड़ी खूबी है कि इससे आपके घर की सारी गर्मी पड़ोसी के घर चली जाती है। अब तक वह आपको बहुत परेशान करता आया था, अब आपके एसी की गर्मी से तबाह रहेगा।तो इस पोलिटिकल कंजूमरिज्म के दौर में जहां पूरे देश में वोटर अलग अलग कम्पनीयों को कम्पेयर कर रहा है, बेगूसराय में वोटर खुद एक विकल्प बन कर मैदान में है। वह एक अलग विकल्प पेश कर रहा है और यह साबित कर रहा है कि लोकतंत्र में जनता के लिये, जनता द्वारा चलनी वाली व्यवस्था है। इसे पोलिटिकल कंजूमरिज्म में बदलने से रोकना है।(यह कतई जमीनी आकलन नहीं है, यह मेरा व्यक्तिगत विचार है। इस पोस्ट के साथ लगा वीडियो कन्हैया के प्रचार का एक नमूना है, जिसे हमने 21 अप्रैल को मन्झौल बाज़ार में देखा था।)

Posted by Pushya Mitra on Sunday, April 28, 2019