Opinion- चुनाव के कुछ क्रूर नियम हैं, हारने वाले के साथ किसी की हमदर्दी नहीं होती
तो यह अंकगणित लेकर बहनजी निकली थीं, प्रधानमंत्री बनने। बड़े राष्ट्रीय सवालों पर कोई हस्तक्षेप नहीं।
New Delhi, May 24 : मुझे बिड़ला की पूरी प्रॉपर्टी मिल गई तो मैं बिड़ला से भी अमीर हो जाउंगा’ बिड़ला जितना तो ठीक है, लेकिन उससे ज्यादा अमीर कैसे हो जाओगे? दो ट्यूशन पढ़ता हूं उसके पैसे भी तो जोड़ो। चुटकुला पुराना है। लेकिन यूपी में सपा-बसपा ने अंकगणित का हिसाब कुछ इसी तरह लगाया था। टोटल वोट जोड़ लो और उसके उपर कुछ टॉप अप सांड़ों के उत्पात, नोटबंदी और मोदी-योगी से नाराजगी की वजह से हो जाएगा।
तो यह अंकगणित लेकर बहनजी निकली थीं, प्रधानमंत्री बनने। बड़े राष्ट्रीय सवालों पर कोई हस्तक्षेप नहीं। कोई ठोस योजना या कार्यक्रम नहीं। अहंकार इतना की कांग्रेस से बातचीत तक को तैयार नहीं। नतीजा सामने है।
कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने भी यही किया। ममता बनर्जी ने भी यही किया। हालांकि ये तमाम पार्टियां बिना किसी ठोस कार्यक्रम के एक साथ हो भी जातीं तो परिणाम कितना अलग होता यह अपने आप में एक सवाल है।
1977 हो या 1989 या फिर 2004, इस देश में जब भी ताकतवर राजनेता हारे हैं, तो उसकी वजह विपक्षी एकता और उनका काउंटर नैरेटिव रहे हैं। आप सड़क पर चलते लोगों से बात करके देख लीजिये। बहुत बड़ी तादाद में ऐसे लोग मिल जाएंगे जो ये कहेंगे कि पांच साल में कुछ नहीं हुआ लेकिन वोट दें तो किसे?
छवि को अगर आप पैसा और पीआर की ताकत से गढ़ी मानें तब भी सवाल उन लोगों पर है, जो इसका मुकाबला नहीं कर पाये। चुनावी लड़ाई के कुछ बहुत क्रूर नियम है। हारने वाले के साथ किसी की हमदर्दी नहीं होती।
इन नतीजों के कई गहरे मायने हैं, जिनपर एक-एक करके बात करूंगा। लेकिन फिलहाल दो बातें। मोदी की जादुई छवि और आक्रमक हिंदुत्व/ राष्ट्रवाद के बरक्स तो काउंटर नैरेटिव थे। पहला कांग्रेस का मध्यमार्ग और दूसरा एसपी-बीएसपी का बहुजनवाद। इन नतीजों ने दोनों को धराशायी कर दिया है।
(वरिष्ठ पत्रकार राकेश कायस्थ के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)