ऑर्टिकल 15 – फ़िल्म जाति के दंश को ही नहीं दिखाती बल्कि पुलिस सिस्टम को एक्सपोज़ करती है

फ़िल्म को एक बार देखना चाहिए और सीवर से निकलते आदमी को देख कर अगर आपके आँसू नहीं निकलते हैं तो अपनी भावुकता का मीटर चेक करिए।

New Delhi, Jun 30 : #Article15 का प्रीमियर देखा था. साथ में कुछ पुलिस वाले भी बैठे थे. फ़िल्म के इंटरवल में ही मैंने साथ बैठे एक पुलिस वाले से पूछा कि आपको कैसी लग रही है फ़िल्म. उन्होंने कहा कि ऐसी फ़िल्में बननी चाहिए जो पुलिस और समाज की सच्चाई सामने लाती हैं. मैंने पूछा कि क्या आपने भी इस तरह का केस कभी देखा है. उन्होंने कहा कि गाँव वग़ैरह में ही होता है लेकिन कभी कभी जाति का नाम बिना वजह भी ले लिया जाता है.

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चूँकि वो हरियाणा से थे और जाट थे तो मैंने उनसे पूछा कि जब जाति के नाम पर लोग तारीफ़ सुनना पसंद करते हैं तो फिर जाति वाले के किसी ग़लत काम को सुनने का साहस क्यों नहीं है. उन्होंने बस इतना कहा कि सही बात है.

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ख़ैर, ये फ़िल्म जाति के दंश को ही नहीं दिखाती बल्कि पुलिस सिस्टम को एक्सपोज़ करती है. कितनी ही रिपोर्ट के दौरान मैंने देखा है कि पुलिस कैसे रेप केस में भी समझौता करवाने की भूमिका में आ जाती है. किसी दलित ड्राइवर से झूठा जुर्म क़बूल करवा लेती है. कैसे रेप केस में नाबालिग़ लड़की की उम्र ही बदल देती है. किसी रेप केस में मैं चार दिन तक पुलिस वाले से मेडिकल रिपोर्ट माँगती रही थी लेकिन वो कहते रहे कि रास्ते में ही है. कितनी सारी महिला अफ़सर भी लड़कियों के लिए असंवेदनशील टिप्पणियाँ करती रही हैं. घरेलू हिंसा की शिकार गर्भवती औरत को रात को 10 बजे तक महिला थाने में बैठना पड़ा है. ये महिला थाने और महिला पत्रकारों के होने से क्या बदल रहा है, समझ नहीं आया.

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ख़ैर, फ़िल्म को एक बार देखना चाहिए और सीवर से निकलते आदमी को देख कर अगर आपके आँसू नहीं निकलते हैं तो अपनी भावुकता का मीटर चेक करिए. बाक़ी समाज के लोगों को एक-दूसरे पर थूकना सिखाने वाले बहुत लोग हैं. वैसे भी फ़ेसबुक पर संवेदनशील लोग जिस तरह से थूकने वालों को और बौद्धिकता की गिरावट के लिए ज़िम्मेदार लोगों को इतना सम्मान देते हैं, ये देखने के बाद भी उम्मीद थोड़ी कम ही है.

(चर्चित पत्रकार सर्वप्रिया सांगवान के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)