Opinion – तानाशाही के दौर में पत्रकारिता की ज़मीन

एक सचाई ये भी है कि मीडिया के पत्रकार पहले भी गच्चा खाते और देते रहे हैं। हमें अतीत से ज़रा ज़्यादा प्रेम है और हम ये वहम पाले रहते है कि पहले सब कुछ अच्छा था और जो कुछ गिरावट आई है वह बस चंद वर्षों में।

New Delhi, Jul 08 : लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद एक बार फिर से ये सवाल उठाया गया कि आख़िर तमाम पत्रकार क्यों ग़लत साबित हुए। वे ये अनुमान क्यों नहीं लगा पाए कि बीजेपी के नेतृत्व वाला गठबंधन अच्छे बहुमत से जीतने वाला है। वे यही राग क्यों अलापते रहे कि बीजेपी को अपने दम पर बहुमत नहीं मिलेगा और नरेंद्र मोदी शायद दोबारा प्रधानमंत्री नहीं बन पाएंगे और अगर बने भी तो अल्पमत की वजह से कमज़ोर हो जाएंगे। वे जनमत सर्वेक्षणों और एक्जिट पोल के अनुमानों को भी नकारे जा रहे थे। उन्हें लग रहा था कि मीडिया दबाव में है, प्रभाव-प्रलोभनों की जकड़ में है और उसके अपने पूर्वाग्रहों की वजह से बीजेपी तथा उसके सहयोगी दलों को आगे दिखा रहा है। ज़ाहिर है कि नतीजों ने उन्हें न केवल ग़लत साबित किया, बल्कि आलोचकों-निंदकों भक्तों को गरियाने का बड़ा मौक़ा भी मिल गया। वे ये कहते हुए उन पर पिल पड़े कि पत्रकार ज़मीनी हक़ीक़त से दूर हो गए हैं, अब वे जनता की नब्ज़ नहीं पढ़ पाते वगैरा वगैरा।

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ऐसा नहीं है कि उपरोक्त आरोपों में दम नहीं था, वे सचाई ही बयान कर रहे थे। दरअसल, पिछले दो-ढाई दशकों में मीडिया में पत्रकारिता लगभग ख़त्म हो गई है। पत्रकारिता की मुख्य धुरी होती है रिपोर्टिंग, जो कि अब न के बराबर होती है। रिपोर्टिंग के नाम पर तमाशे और अटकलबाज़ी होती है, वह भी अधिकांश समय एकपक्षीय प्रोपेगंडा की नीयत से की जाने वाली। अखबार हों या फिर न्यूज़ चैनल, पूरी तरह से डेस्क पर निर्भर हो गए हैं। डेस्क टीम ही ख़बरों को लपेटती, फैलाती और मसाला लगाकर पेश करती रहती है। इसीलिए रिपोर्टिंग पर आधारित कार्यक्रम या रिपोर्ताज भी अब देखने को नहीं मिलते। एक-दो अख़बार और एकाध चैनल ही कुछ कर रहे हैं और उनका भी पता नहीं कि वे कब तौबा कर लें। इसीलिए यहाँ तक कहा जा रहा है कि रिपोर्टर और रिपोर्टिंग की मौत हो गई है।

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मीडिया में रिपोर्टिंग के इस अंत की तह में जाएंगे तो ढेर सारे कारण मिलेंगे। मसलन, मीडिया हाउस अब रिपोर्टिंग पर ज्यादा खर्च नहीं करना चाहते। उन्हें लगता है कि कम खर्चे वाला हल्का-फुल्का कंटेंट परोसकर मुनाफा कमाना ज़्यादा फ़ायदेमंद है। मध्यवर्ग को बाज़ार ऐसा ही कंटेंट देना चाहता है ताकि वह खरीदारी वाले मूड में रहे, गभीर विषयों पर न सोचने लग जाए। मीडिया का मुख्य उपभोक्ता तथा बाज़ार का टॉरगेट मध्वर्ग ही है और वह कब का उपभोगवादी संस्कृति के नागपाश में जकड़ चुका है। मीडिया संस्थान सत्ता से बैर तो बिल्कुल भी नहीं लेना चाहते, जबकि अच्छी रिपोर्टिंग हमेशा सत्ता को चुनौती देती है। पत्रकारों की नई पीढ़ी में अच्छी रिपोर्टिंग के लिए आग्रह भी नहीं बचा है, वे ग्लैमर की ओर ज़्यादा भाग रहे हैं। शायद अच्छी रिपोर्टिंग के लिए उनके सामने पर्याप्त अवसर भी नहीं हैं, इसलिए झख मारकर वही करने लगते हैं जो दिखता और बिकता है। ज़ाहिर है कि इन सभी कारणों से वे हवा-हवाई हो गए हैं और गंभीर रिपोर्टिंग से कोई वास्ता नहीं रह गया है।

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लेकिन एक सचाई ये भी है कि मीडिया के पत्रकार पहले भी गच्चा खाते और देते रहे हैं। हमें अतीत से ज़रा ज़्यादा प्रेम है और हम ये वहम पाले रहते है कि पहले सब कुछ अच्छा था और जो कुछ गिरावट आई है वह बस चंद वर्षों में। हक़ीक़त ये है कि मीडिया में ये तमाम खामियाँ उस कथित स्वर्णयुग में भी थी, मगर चूँकि उसका विस्तार इस पैमाने पर नहीं हुआ था, जैसा कि हम आज देख रहे हैं इसलिए वह कम नज़र आता था। उस समय पूँजी भी उसका इस्तेमाल वैसे नहीं कर रही थी जैसा कि आज कर रही है इसलिए दुर्गुणों की थोड़ी कमी भी रही होगी। पहले वाली मिशनरी भावना उदारवाद के आने और छाने के बाद सुनियोजित ढंग से ख़त्म कर दिया गया। इसलिए दोष पत्रकारों का नहीं उन परिवर्तनों का है जिन्होंने मीडिया के चरित्र को ही बदल डाला है। अब न तो मीडिया विविधतापूर्ण है और न ही बहुलता वाला। मीडिया संस्थानों पर बड़ी कंपनियों का कब्ज़ा होता जा रहा है और कसोलिडेशन की ये प्रक्रिया बहुत सारे छोटे संस्थानों को निगल रही है। आज से तीस साल पहले मीडिया घरानों की संख्या दो हज़ार के आसपास थी जो घटकर एक दर्ज़न के आसपास रह गई है। पूरी दुनिया में यही हो रहा है और भारत भी इससे ट्रेंड से अछूता नहीं है।

इसलिए ये बात सही नहीं है कि पहले के सभी पत्रकार ज़मीन से जुड़े हुए थे और जनता की नब्ज़ पकड़ने में माहिर थे। जनता का मूड भाँपने की उनके पास कोई वैज्ञानिक विधि तो थी नहीं और न ही उनके पास पर्याप्त सैंपल साइज़ होता था कि वे सटीक भविष्यवाणियाँ कर सकें। चाय या टैक्सी वालों से बात करके वे भविष्यवाणी कर देते थे कि कौन जीत रहा है। वे हवा या लहर को अपने सीमित अनुभवों के आधार पर भाँपने की कोशिश करते थे, जो कि विशुद्ध रूप से अवैज्ञानिक था लिहाज़ा अधिकांश मौक़ों पर वे ग़लत भी साबित होते थे। पहले भी दरबारी पत्रकार कम नहीं थे। उनमें लॉबिंग करने वाले, किसी राजनीतिक दल के लिए ख़बरें प्लांट करने वाले और जोड़-तोड़ के ज़रिए राज्यसभा में दाखिल होने वाले भी थे। अवसरवादी, भ्रष्ट और जुगाड़ वाले पत्रकारों की संख्या बेशक़ कम रही होगी मगर वे थे ज़रूर। इसलिए तब और आज की तुलना अगर करनी हो तो भ्रांत धारणाओं के नहीं, ठोस तथ्यों के आधार पर होनी चाहिए। हालाँकि ये बात कुछ हद तक सही हो सकती है कि तीन दशक पहले आज के मुक़ाबले ज़मीनी रिपोर्टिग ज़्यादा होती थी और इस आधार पर ही ये दावा किया जाता है। मगर इतने बड़े और विविधता वाले देश में कोई बहुत ही काबिल पत्रकार भी रिपोर्टिंग के ज़रिए कितने लोगों से जुड़ा रह सकता है भला? हमारा मत है कि बहुत कम लोगों से और उनसे मिली जानकारियो के आधार पर चुनावी नतीजों का सही अनुमान लगाना लगभग असंभव ही था।

ये बात भी नहीं भूलनी चाहिए कि आज सूचनाएं और ज्ञान प्राप्त करने के स्रोत एवं संसाधन हमारे पास कहीं ज़्यादा हैं। यानी अगर पत्रकारों के पास उपकरणों की कमी नहीं है और वे चाहें तो बेहतर ढंग से जनता के मूड को समझ सकते हैं। लेकिन असल बात तो ये है कि जनता के मूड की परवाह किसको है और ज़ोर इस बात पर नहीं है कि जनता क्या सोच रही है, बल्कि इस पर है कि उसे किस ओर सोचने के लिए प्रेरित करना चाहिए। मीडिया को प्रोपेगंडा मशीनरी की तरह इस्तेमाल करना सत्ता और मीडिया घरानों का सबसे बड़ा एजेंडा है, इसलिए मीडिया एजेंडा सैटिंग में लगा हुआ है। वह सरकार बनाने और बिगाड़ने के खेल में पहले से कही ज़्यादा लगा हुआ है। इसलिए न तो वो जनमानस को समझने की कोशिश करता है और न ही जनमत को सामने रखने की। वह जो कुछ बता रहा है वह मनगढ़ंत है और एक निश्चित लक्ष्य से प्रेरित है। इसके अलावा जो है वह खेल है, धंधा है, मनोरंजन है।

ध्यान देने की बात ये है कि जो आरोप भारतीय मीडिया पर लगाया जा रहा है, वह दुनिया भर के मीडिया पर पहले ही लगाया जा चुका है। बल्कि इस तरह के आरोप हाल में उन देशों में लगाए गए हैं जहाँ का मीडिया बेहद मज़बूत माना जाता है। जब तमाम मीडिया के अनुमानों के बावजूद हिलेरी क्लिंटन को हराकर डोनाल्ड ट्र्म्प चुनाव जीत गए थे, तब भी मीडिया को यही कहकर कठघरे में खड़ा किया गया था। फिर ब्रिटेन में ब्रेक्जिट के वक़्त भी वहाँ का मीडिया गच्चा खा गया। जनता कुछ सोच रही थी और उसने बताया कुछ और। ताज़ा मामला ऑस्ट्रेलिया का है। वहाँ के चुनाव नतीजे तो ठीक उसी समय आए जब भारत के चुनाव परिणाम आने वाले थे। मीडिया के अनुमानों के विपरीत वहाँ लिबरल के बजाय कंजरवेटिव पार्टी दोबारा जीतकर सत्ता में लौट आई। ऐसे में क्या इसे विश्वव्यापी परिघटना के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए? अब सवाल उठता है कि दुनिया भर का मीडिया क्यों असफल साबित हो रहा है? क्या दुनिया भर में पत्रकार ज़मीन से कट गए हैं और अपनी विशेषज्ञता गँवा बैठे हैं? इस सवाल का जवाब भी वही है जो ऊपर दिया गया है। विश्व मीडिया का चरित्र एक जैसा है और उसके लक्ष्य भी समान हैं।
ये एक तरह से मीडिया की मौत है। मीडिया मर रहा है और इसको उन आशंकाओं से जोड़कर देखा जा सकता है जिनमें लोकतंत्र के मरने की बातें की जा रही हैं। जब लोकतंत्र मर रहा हो या उसकी हत्या की जा रही हो तो मीडिया की मौत भी तय है क्योंकि दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। दोनों के कमज़ोर होने या मरने के कारण भी वही हैं। कार्पोरेट पूँजी और उसके बल पर टिकी राजनीति ने तानाशाही का रुख़ कर लिया है। हर जगह तानाशाह पैदा हो रहे हैं। ट्रम्प और मोदी तो इसकी बानगी भर हैं। ये तानाशाही कहीं धर्म, कहीं नस्लवाद तो कहीं बहुसंख्यकवाद को अपना हथियार बना रही है। अभी ये और हिंसक और दमनकारी रुख़ अख्तियार करती जाएगी यानी लोकतंत्र का दायरा सिकुड़ेगा और उसी के साथ-साथ मीडिया का भी। हालाँकि ये दौर भी बहुत लंबा नहीं चलेगा, क्योंकि दमन के साथ-साथ प्रतिरोध की भावना भी बढ़ेगी और तानाशाही को चुनौतियाँ भी मिलेंगी। संभव है कि उन्हीं संघर्षो में पत्रकारिता को भी अपनी ज़मीन मिल जाए, वह फिर से उठ खड़ी हो। इसलिए अगर निराशा में भरकर हम कह रहे हैं कि पत्रकारिता मर रही है तो उम्मीद के साथ हमें कहना चाहिए- पत्रकारिता ज़िंदाबाद।

(वरिष्ठ पत्रकार मुकेश कुमार के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)