ऑर्टिकल 15 अच्छी है पर इसे महान् फिल्मों की सूची में डालना अति-उत्साही आकलन होगा!

ऑर्टिकल 15 – वर्ण-वर्चस्व के साथ ‘लोकतंत्र’ कैसा हो सकता है, इस त्रासदी को फिल्म यूपी के एक खास इलाके के घटनाक्रमों के जरिए पेश करती है! 

New Delhi, Jul 09 : अंततः ‘आर्टिकल15’ देख आया। एक जमाना था, जब हम देस-परदेस की फिल्में खूब देखते थे! प्रगति मैदान स्थित शांकुतलम और वसंतविहार स्थित प्रिया सिनेमाघर हम लोगों के बड़े फिल्मी अड्डे थे! ये बात 1978-84 के दौर की है!
बीच-बीच में अब भी लैपटॉप पर फिल्में देख लेता हूं। बच्चे पसंद की कुछ फिल्मे देखने का प्रबंध कर देते हैं। पर इसमें वो मजा नहीं, जो सिनेमाघर में आता है! बीते रविवार, सिनेमाघर लंबे अंतराल पर गया! इसके पहले कब सिनेमा घर गया था? संभवतः ‘द पोस्ट’ देखने! उससे कुछ पहले सिनेमाघर जाकर ‘उड़ता पंजाब’ और ‘हैदर’ देखी थी! तीनों बार की तरह इस बार भी बेटा ही प्रेरक बना! बेटी मुंबई में पहले ही देख चुकी थी। उसने कहा: ‘सिनेमा घर जाकर जरुर देखो!’
हमें यह फिल्म अच्छी लगी। अपने यहां ऐसे विषयों पर फिल्में बनती ही कितनी हैं? अपनी कुछ कमजोरियों के बावजूद ‘आर्टिकल15’ समकालीन हिन्दी सिनेमा में एक जरुरी हस्तक्षेप है।

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शोषण और उत्पीड़न के सबसे बर्बर रूप के लिए जिम्मेदार भारत की वर्ण-व्यवस्था और राज(स्टेट) से उसके रिश्ते की जटिलता को फिल्म बड़े सहज और विश्वसनीय ढंग से पर्दे पर पेश करती है! औपनिवेशिक चंगुल से मुक्त होने के बावजूद जिस तरह हमारा तंत्र वर्ण-वर्चस्व और निहित स्वार्थ की राजनीति के हवाले हुआ, उसके कुछ बहुत जीवंत चित्र फिल्म में हैं! वर्ण-व्यवस्था, चुनावी राजनीति, अपराध, पुलिस-सीबीआई आदि के संश्रय के कुछ चित्र तो‌ शायद पहली बार!
वर्ण-वर्चस्व के साथ ‘लोकतंत्र’ कैसा हो सकता है, इस त्रासदी को फिल्म यूपी के एक खास इलाके के घटनाक्रमों के जरिए पेश करती है! पर इसे किसी खास घटना की हू-ब-हू रिपोर्टिंग नहीं समझा जाना चाहिए! इसे समाज की विकराल सच्चाई के रूप में देखा जाना चाहिए!
भारत जैसे मुल्क में वर्ण सिर्फ श्रम का विभाजन नहीं है, वह श्रमिकों के विभाजन का भी आधार बनता है! एक सुसंगत और अपेक्षाकृत सुंदर संविधान मंजूर करने के बावजूद यह मुल्क वर्णव्यवस्था की ‘आनुवंशिक-शक्ति’ के बल पर समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व को कैसे लगातार खारिज़ करता आ रहा है, ‘आर्टिकल-15’ में इसकी बहुत जिंदा तस्वीरें हैं! इसके लिए फिल्म के कथा-लेखक और निदेशक साधुवाद के पात्र हैं!

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हमारे कथा-साहित्य में भी इस त्रासदी को उद्घाटित करती अनेक रचनाएं लिखी गई हैं! इनमें कुछेक पर अतीत में फिल्में भी बनीं। चित्रांकन की दृष्टि से ‘आर्टिकल-15’ अतीत की ऐसी कुछ फिल्मों के मुकाबले प्रभावशाली नजर आती है। फिल्म का वह बेहद ताकतवर दृश्य है, जहां क्षेत्रीय पुलिस अधिकारी(सीओ) ब्रह्मदत्त सिंह अपने गुनाहों को छुपाने और गिरफ्तारी से बचने के लिए अपने ‘प्रिय-गिरोहबाज’ और उसके गिरोह के एक अन्य अपराधी को गोली मारता है! गांव की तीसरी दलित-कन्या की तलाश में निकले ईमानदार अपर पुलिस अधीक्षक अयान रंजन (आयुष्मान खुराना), पुलिस में उनकी टीम के अधिकारी और कुछ दलित कार्यकर्ता जब जंगल की तरफ जाते हैं तो वहां बच्ची जिस अवस्था में मिलती है, वह तस्वीर वर्णाश्रमी सामंती क्रूरता का भयावह चेहरा उभारती है! इसके अलावा महंत जी और कुर्सी-परस्त दलित नेता के गठबंधन की कहानी भी बहुत प्रामाणिक नजर आती है! यूपी और महाराष्ट्र सहित कई राज्यों की दलित चुनावी-राजनीति का आज यह बड़ा सच है!

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पर ऐसे ताकतवर चित्रण के बावजूद फिल्म की कुछ कमजोरियां भी झलकती हैं! कई जगह अपने दृश्यों और घटनाओं के चित्रांकन में वह सरलीकरण या यूं कहें, खास तरह के ‘मीडियाकरण’ का शिकार होती नजर आती है! भीम आर्मी के नेता निषाद से जुड़े कई दृश्यों में खासतौर पर ऐसा हुआ है! ऐसी जगहों पर फिल्म की प्रभावोत्पादक क्षमता फुस्स दिखती है। ये बात सही है कि समकालीन समाज में दलित-प्रतिरोध की कुछ नई आवाजें जरुर उभरी हैं! ऐसा लगता है कि फिल्मकार-टीम इनमें कुछेक चर्चित आवाजों को दिखाने का मोह संवरण नहीं कर पाई! पर इस चित्रांकन में उतनी गहराई नहीं नजर आती ! ये दृश्य बस टुकड़ों में बंटे रिपोर्ताज की तरह आये हैं, फिल्म की असल कहानी में गुंथी जिंदगी की तरह नहीं!
नया दलित नेतृत्व आज कितनी सुसंगत, साफ और अंबेडकरी-समझ से लैस है या नहीं है, यह बिल्कुल एक अलग विषय था! अगर प्रतिरोध की इस धारा को दिखाना था तो और सहज, सुचिंतित एवं विश्वसनीय ढंग से, हड़बड़ी में नहीं! इसके मुकाबले महंत और दूसरे समझौतावादी-दलित नेता की साझा-मोर्चेबंदी वाले दृश्य ज्यादा स्वाभाविक होकर उभरे हैं!
फिल्म का सन् 2019 में रिलीज होना भी महत्वपूर्ण घटना है! किसी भी समाज में उत्पीड़न और दमन की कथा कहते या दिखाते साहित्य या फिल्म भर से बदलाव का रास्ता निकालना मुमकिन नहीं होता। किसी रचना से इतनी बड़ी उम्मीद लगाना भी ठीक नहीं! यह रचना और रचनाकार/फिल्मकार के साथ ज्यादती होगी !

लेकिन हमारे आज के समाज में अजीबोगरीब स्थितियां उभर रही हैं। लोग प्रतिरोध का साहित्य पढ़कर या लिखकर दमन और उत्पीड़न के निष्क्रिय निंदक या ठंडे दर्शक में तब्दील होते जा रहे हैं! वे इसी बात से संतुष्ट हो रहे हैं कि वे इतनी मुश्किलों में भी ‘असहमत खेमे’ में खड़े हैं! दमन-उत्पीड़न की मशीनरी और निरंकुशता की संगठित शक्तियों को ऐसी ‘असहमति’ से ज्यादा परेशानी नहीं! भारत में ऐसे ‘असहमत लोगों’ की आज एक पूरी जमात हमारे सामने है, जिसने प्रतिरोध की राजनीति का ‘एनजीओकरण’ सा कर दिया है! कई मौकों पर क्रूरता और दमन की ऐसी कहानियों से सिर्फ कमराबंद करुणा या असहाय आक्रोश का सृजन होता नजर आता है! इससे उत्पीड़ित मनुष्यता के लिए न्याय का कोई सुसंगत रास्ता नहीं तैयार होता! अच्छी बात होगी अगर, बालीवुड के प्लेटफार्म से ‘आर्टिकल-15’ जैसी फिल्में ज्यादा से ज्यादा बनें, इससे भी ज्यादा पावरफुल चित्रण के साथ! पर भारत को आज 22 मिनट से 60 मिनट की ढेर सारी डाक्यूमेंट्री या अन्य किस्म की ताकतवर फिल्मों की जरुरत है! ऐसी छोटी फिल्में गांव-गांव और कस्बे-कस्बे दिखाई जानी चाहिए। भारत के हिन्दी भाषी क्षेत्रों में हिन्दी-अंग्रेजी के न्यूज और मनोरंजन चैनल आज जिस तरह के ‘मानस का निर्माण’ कर रहे हैं, शायद इस तरह की छोटी फ़िल्मों से कारपोरेट मीडिया की उस खतरनाक मुहिम को काउंटर करने में आसानी हो!
उत्पीड़ित समाजों को अपने बीच से ऐसे प्रयासों को आगे बढ़ाना होगा! तब सिनेमा स्वयं आंदोलन बने या न बने, वह बदलाव की चेतना और जन आंदोलन की जमीन जरुर तैयार करेगा!
अंत में फिर कहता हूं, ‘आर्टिकल-15’ हमें पसंद आई। अच्छी है पर इसे महान् फिल्मों की सूची में डालना अति-उत्साही आकलन होगा!

(वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)