मोदी सरकार ने कुछ भी असंवैधानिक ढंग से नहीं किया बल्कि संविधान से ही नुक्ते खोजकर बदलाव लाया गया है

इसे हटना था, हटना चाहिए भी लेकिन सिर्फ इतिहास में नाम दर्ज कराने का लोभ अगर सरकार को इसे कच्चे मौके पर इस तरह हैंडल करने के लिए मजबूर कर रहा है तो ये गंभीर बात है।

New Delhi, Aug 05 : गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में साफ कर दिया है कि वो जो कुछ कर रहे हैं उसका रास्ता सरकार ने कैसे निकाला। उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 370 के अंदर ही इसका प्रावधान है। केंद्र जो फैसला करता था उसे जम्मू-कश्मीर की विधानसभा अगर माने तो ही वो लागू हुआ करता था। अब चूंकि जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगा है तो साफ है कि राष्ट्रपति के आदेश मुताबिक संसद फैसले ले सकती है। अलग से उसे पास कराने की ज़रूरत बची ही नहीं।

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इससे कुछ बातें साफ हैं। पहली तो ये कि जब महबूबा ने बीजेपी से रिश्ता तोड़कर नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ मिलकर सरकार बनाने की कोशिश की थी तो केंद्र ने राज्यपाल के सहारे इसे जानबूझकर फेल किया था। आपको याद होगा तब ये कहा गया था कि राजभवन की फैक्स मशीन खराब थी इसलिए महबूबा का फैक्स आया ही नहीं। लग रहा है कि बीजेपी ने राज्यपाल शासन को आगे बढ़ाया ही इसलिए था क्योंकि वो अनुच्छेद 370 को दंतहीन बनाने की तरफ बढ़ रही थी, जिसके लिए ज़रूरी था कि वहां सरकार ना बने सके।

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सच तो ये है कि मोदी सरकार ने कुछ भी असंवैधानिक ढंग से नहीं किया बल्कि संविधान से ही नुक्ते खोजकर बदलाव लाया गया है। अनुच्छेद 370 एक टेंपरेरी प्रावधान था और ये खुद नेहरू की सरकार भी मानती थी। इसे एक दिन खत्म होना था और आज भी ये खत्म नहीं हुई है बल्कि उस तरफ एक कदम बढ़ाया गया है। दिक्कत ये है कि जम्मू-कश्मीर ने भारतीय संघ से दोस्ती जिन शर्तों पर की थी उन्हें निरस्त करने का तरीका गलत है। जम्मू-कश्मीर के उन अलगाववादियों की बात करना बेकार है जो पाकिस्तान में मिलना चाहते हैं या अलग होना चाहते हैं। उनकी कल्पनाएं व्यर्थ हैं और कोई भी उनका समर्थन नहीं करेगा। सवाल उन नेताओं का है जो भारत के संविधान में विश्वास रखते हुए अब तक चुनाव लड़ रहे थे और उन्हीं के सहारे दुनिया में संदेश जा रहा था कि कश्मीरी आवाम खुद को भारतीय मानता है।

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कश्मीर के ऐसे नेताओं को भरोसे में ना लेना सरासर गलत है। पीडीपी वो दल है जिसका नेता देश का गृहमंत्री रहा है। नेशनल कॉन्फ्रेंस वो दल है जिसके लोग बिना हथियार के उन हमलावरों से लड़े थे जिन्हें 1947 में पाकिस्तान ने कश्मीर में भेजा था। फारुक अब्दुल्ला तो कश्मीर में राष्ट्रवादी नारे लगाने के लिए विख्यात रहे। अनुच्छेद 370 में ऐसी ना जाने कितनी बातें हैं जो सत्तर साल बाद खत्म होनी चाहिए और वाजपेयी-मनमोहन ने इसके लिए सबकी सहमति का रास्ता चुना था। वर्तमान सरकार बांह मरोड़कर फैसले ले रही है जिस पर सिर्फ वही खुश हो सकता है जो सहमति की ताकत ना समझता हो।

हिंदूवादी संगठन अगर खुश हैं तो क्या ये समझना मुश्किल है कि वो आखिर खुश किस बात पर हो रहे हैं? ना तो नेहरू, ना पटेल और ना कोई भारतीय अनुच्छेद 370 के लगे रहने का समर्थक हो सकता है। इसे हटना था, हटना चाहिए भी लेकिन सिर्फ इतिहास में नाम दर्ज कराने का लोभ अगर सरकार को इसे कच्चे मौके पर इस तरह हैंडल करने के लिए मजबूर कर रहा है तो ये गंभीर बात है। अब होना ये चाहिए कि महबूबा और उमर को बुलाकर बात की जानी चाहिए और उनके भरोसे ज़मीन पर कश्मीरियों को समझाना चाहिए कि ऐसी किसी धारा का लगे रहना उनके भले में भी नहीं है। उन्हें बाकी तमाम राज्यों की तरह भारतीय संघ का हिस्सा बन जाना चाहिए। अगर सरकार ऐसा करने में फेल रही तो सिर्फ कागज़ों से कोई धारा भले हट जाए मगर दिलों में वो दीवार की तरह खड़ी रहेगी।

(टीवी पत्रकार नितिन ठाकुर के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)