Opinion – राजीव गाँधी को देश के पहले और अब तक के आखिरी पैराशूट प्रधानमंत्री होने का सौभाग्य प्राप्त है

राजीव गाँधी को याद किया जाना चाहिए इस बात के लिए भी कि भारत जैसे विशाल देश के वे पहले ऐसे प्रधानमंत्री थे जिन्होंने कभी भी किसी भी राजनीतिक आंदोलन में भाग नहीं लिया था।

New Delhi, Aug 21 : राजीव गाँधी की जयंती पर उन्हे याद करने के लिए बहुत कुछ है. मसलन उनके नेतृत्व में भारत में कम्यूटरीकरण की शरुआत हुयी, संचार क्षेत्र में अनेक नए कदम उठाये गए और सबसे बड़ी बात ये कि विकास के क्रम में पंचायतों को महत्वपूर्ण भूमिका देने का काम भी उन्ही की पहल पर संपन्न हुआ. उन्हे इसलिए भी याद किया जाना चाहिए कि उन्होंने कॉर्पोरेट सेक्टर से सैम पित्रोदा, अरुण नेहरू, अरुण सिंह जैसे लोगों की प्रतिभा का इस्तेमाल किया.

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ये सब तो ठीक है लेकिन राजीव गाँधी को याद किया जाना चाहिए इस बात के लिए भी कि भारत जैसे विशाल देश के वे पहले ऐसे प्रधानमंत्री थे जिन्होंने कभी भी किसी भी राजनीतिक आंदोलन में भाग नहीं लिया था. उन्होंने किसी अनुषांगिक संगठन या पार्टी में ग्रास रुट पर कभी काम नहीं किया था और ज़मीनी स्तर पर कामकाज का कोई अनुभव न होने के बावजूद अपनी माँ इंदिरा गांधी के कहने पर उस समय की देश की सबसे बड़ी पार्टी के महासचिव बना दिए गए थे. इंदिरा जी तो फिर भी शास्त्री जी के मंत्रिमंडल में थीं और नेहरू जी के ज़माने में चुने गए सांसदों के बीच से चुनाव जीत कर प्रधानमंत्री बनी थीं लेकिन राजीव गाँधी को देश के पहले और अब तक के आखिरी पैराशूट प्रधानमंत्री होने का सौभाग्य प्राप्त है( आप मनमोहन सिंह को भी इसी श्रेणी में रखना चाहें तो आपकी मर्ज़ी).

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इस राजनीतिक अनुभवहीनता का सीधा नतीजा ये हुआ कि उन गंभीर फैसलाकुन मौकों पर, जब पार्टी के सिद्धाँतों पर अडिग रहते हुए कड़े निर्णय लेने का समय आया, तो राजीव गांधी ने अपने अनुभवहीन चाटुकार सलाहकारों की बात मानते हुए चालाकी का सरल रास्ता अपनाना ठीक समझा और पार्टी को एक ऐसी ढलान पर लाकर खडा कर दिया जहाँ से वो अभी तक नहीं उबर पाई है. ज़रा सोचिये, मुसलमानों को खुश करने के लिए शाहबानो फैसले को संसद में पलटना और फिर हिन्दुओं को खुश करने के लिए राम मंदिर के वर्षों से बंद पड़े कपाट खोल देना- इन दोनों हरकतों को राजनीतिक परिपक्वता के किस पैमाने पर सही करार दिया जा सकता है. ये आम आदमी को बेवकूफ समझने वाली सेल्समैन टाइप टुच्ची चक्डैती है कि नहीं. इन दोनों घातक फैसलों का दंश कांग्रेस पार्टी के साथ साथ देश भी आज तक झेल रहा है, और न जाने कब तक झेलेगा.

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ऐसा नहीं है कि जड़-विहीन अमर-बेल टाइप चापलूसों की जमात कांग्रेस में राजीव के समय ही पैदा हुयी थी. इंदिरा गांधी के ज़माने में भी उनके पी एम् ओ में ऐसी एक मंडली मौजूद थी (यशपाल कपूर, आर के धवन वगैरह) लेकिन उनके तमाम षड्यंत्रों के बावजूद विभिन्न राज्यों में पार्टी में अनेक ऐसे क्षेत्रीय नेता थे, जिन्हे नज़रअंदाज़ करना मुश्किल था. हालाँकि ये क्षत्रप( एन डी तिवारी, श्यामाचरण शुक्ल, नंदिनी सत्पथी, एस एस रे, के कामराज, ए के एंटनी, करुणाकरण आदि) भी इंदिरा जी के चापलूस कहे जा सकते थे फिर भी यही वो लोग थे जो पार्टी को ज़िंदा रखे हुए थे. ज़मीनी नेताओं को नज़रअंदाज़ कर अमर-बेल मंडली को तरजीह देने का जो सिलसिला इंदिरा जी के कार्यकाल में शुरू हुआ था वो राजीव गाँधी के ज़माने में पार्टी की सांगठनिक कार्यप्रणाली का अभिन्न अंग बन गया. क्षत्रपों को अमर- बेल मंडली के समक्ष समर्पण करना पड़ा और जो नहीं झुके उन्हे हाशिये पर ड़ाल दिया गया. जिन्हे प्रशासन में मदद के लिए लाया गया था वो राजनीतिक सलाहकार बन गए. इसलिए राजीव गाँधी की जयंती पर उन्हें प्रशासन में अनेक नई पहलकदमियों का सूत्रधार होने के साथ साथ कांग्रेस के सांगठनिक तिरोहण की प्रक्रिया के जनक के रूप में भी याद किया जाना चाहिए.

(चर्चित वरिष्ठ पत्रकार प्रभात डबराल के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)