…ये हाथ मुझे दे दे चिदंबरम

चिदंबरम को पकड़े जाने की कार्रवाई रातो-रात हुई। इधर हाईकोर्ट ने अर्जी खारिज की और उधर सीबीआई पहुंच गई।

New Delhi, Aug 22 : अगर आप हिंदी फिल्में देखते हैं तो कर्मा के डॉक्टर डैंग का किरदार याद होगा। वही डॉक्टर डैंग जिसे जेलर बने दिलीप कुमार ने झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद किया था। डॉक्टर डैंग ने कहा था— इस थप्पड़ की गूंज सुनी तुमने। जब तुम जिंदा रहोगे इस गूंज की गूंज तुम्हे सुनाई देगी।

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शोले में ठाकुर बलदेव सिंह ने गब्बर को पकड़ा। बदले में गब्बर ने ठाकुर के पूरे खानदान को मिटा दिया और ठाकुर साहब के फांसी के फंदे वाले हाथों को भी उनके जिस्म से आजाद कर दिया। लेकिन ठाकुर साहब भी नहीं माने। भाड़े के फौजी लाये, कील वाले जूते बनवाये, रामलाल की मदद से पहने भी होंगे जो फिल्म में दिखा नहीं और क्लाइमेक्स पर— ये हाथ मुझे दे दे गब्बर। नही.. ही… ही…
तालियां फिल्म सुपरहिट। आज वाली फिल्म भी उतनी सुपरहिट है क्योंकि बदला थीम इंडियन ऑडियंस को सबसे ज्यादा पसंद है। डॉक्टर डैंग कौन, जेलर कौन? ठाकुर कौन और गब्बर कौन, यह तय करना मेरा काम नहीं है। आपको जो ठीक लगे अपनी पसंद से तय कर लीजिये। राजनीति ऐसी है कि यहां रोल रिवर्सल होते रहते हैं, कब चोर चाणक्य बन जाये और तड़ीपार तारणहार किसी को पता नहीं।

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किसी को कसूरवार ठहराना या कैरेक्टर सार्टिफिकेट देना मेरा काम नहीं है। फिर सबसे पहले थोड़ी सी बात उनकी जिन्हे आतंकवादियों की तरह धर-दबोचा गया है। बचपन की धुंधली यादें बताती है कि ये वही हैं, जो मीडिया को अपाहिज बनाने के लिए आज से कोई तीस-बत्तीस साल पहले मानहानि विधेयक लेकर आये थे। उस समय की सरकारें जनमत के दबाव से डरती थीं, इसलिए सरकार को विधेयक वापस लेना पड़ा था।
देश के गृह-मंत्री के तौर पर उन्होंने क्या किया और क्या नहीं किया इसपर कहने को बहुत कुछ है। लेकिन फिलहाल उनपर इल्जाम करप्शन का है। आर्थिक घोटाले के हर मामले में थोड़ा सा ग्रे एरिया होता है। इसी ग्रे एरिया की वजह से उद्योगपतियों की डायरी के लेन-देन वाले कॉलम में नाम होने और रक्षा सौदों में खुलेआम कायदों की मम्मी-डैडी करने के बावजूद देश के सबसे बड़े नेता दोबारा चुनाव जीते हैं। चिदंबरम के मामले में भी ग्रे एरिया है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन यह एक कड़वा सच है कि चोरों के पास कभी इस बात की दुहाई देने का विकल्प नहीं होता कि उन्हें किसी डाकू ने लूट लिया।

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चिदंबरम को पकड़े जाने की कार्रवाई रातो-रात हुई। इधर हाईकोर्ट ने अर्जी खारिज की और उधर सीबीआई पहुंच गई। तत्परता बहुत अच्छी बात है लेकिन यह भी देखना चाहिए कि ऐसी तत्परता कितने आर्थिक घोटालों में होती है। विजय माल्या साहब एक ताकतवर केंद्रीय मंत्री के साथ गपशप करके चाय-नाश्ता करके और बकायदा बाय-बाय बोलकर जहाज में बैठे थे, यह बात पूरा देश जानता है। `हमारे मेहुल भाई’ बैंकों को लगातार चूना लगा रहे थे और सार्वजनिक कार्यक्रमों में सदी के महानतम नेता बाकी उद्यमियों को उनसे प्रेरणा लेने की सीख दे रहे थे।
गुजराती व्यापारी नितिन संदेसारा ने भी इन्ही की तरह छोटा-मोटा घोटाला किया है, पांच-दस हज़ार करोड़ रुपये वाला। मीडिया में खबरें आई कि भागने के बाद भी उन्होने बैंक से लोन दिया और बैंक ने दिया। फरारी काट रहे ललित मोदी को भारतीय पासपोर्ट पर यूरोप में यहां से वहां भिजवाने में मेरी प्रिय नेता दिवगंत सुषमा स्वराज ने `मानवीय आधार’ पर मदद की। अर्णब गोस्वामी ने एक हफ्ते तक इस बात गला फाड़ा कि तगड़ा करप्शन हुआ है क्योंकि सुषमा जी की बेटी बांसुरी स्वराज बकायदा ललित मोदी की वकील रही हैं। `ह्रदय परिवर्तन’ से पहले तक अर्णब गोस्वामी चीख-चीखकर सरकार से जवाब मांगते रहे।

यह ह्रदय परिवर्तन बहुत कमाल की चीज़ है। आधुनिक भारत की परम चर्चित सोशलाइट हैं इंद्राणी मुखर्जी। उनकी बेटी असल में उनकी बहन भी थी क्योंकि उनके बाप से पैदा हुई थी। वह बेटी उनके पति के बेटे से प्यार करती थी। इंद्राणी ने अपने सौतेले बेटे से बहन रूपी बेटी को अलग करवाने के लिए अपनी बेटी/बहन को मरवा डाला। कुल मिलाकर मामला पेंचीदा है। लेकिन जो बात बहुत सरल है, वो यह कि इंद्राणी का ह्रदय परिवर्तन हो चुका है। एक दूसरे मुकदमे में जान बख्शे जाने की शर्त पर वे सरकारी गवाह हैं और इसी मुकदमे की वजह से चिदंबरम की जान आफत में है।
इंद्राणी का किरदार बीच में ना होता आधुनिक भारत के चाणक्य और तारणहार जी के लिए मिशन बदला इतना आसान नहीं होता। इन्ही चिदंबरम ने गृह मंत्री रहते हुए उन्हे फर्जी एनकाउंटर के मामले में जेल भिजवाया था। बाद में दूध का दूध और पानी का पानी हो गया। सुनवाई कर रहा जज इच्छा-मृत्यु को प्राप्त हुआ और उसके बेटे ने प्रेस काँफ्रेंस करके देशवासियों को बताया कि वह अपने बाप के स्वभाविक मौत से पूरी तरह संतुष्ट है। जांच-वांच की कोई जरूरत नहीं है।

चिदंबरम की अग्रिम जमानत अर्जी सुप्रीम कोर्ट में लगी हुई थी। कोर्ट ने कहा ऐसी भी क्या जल्दी है, आराम से कभी सुनेगे। दो-चार दिन में सुनवाई हो भी जाती। अब मामला इतना संगीन था तो बेल भी कहां मिलती। फिर कर्तव्य परायण एजेंसियों ने थोड़ा इंतज़ार क्यों नहीं किया। जवाब सिर्फ एक ही— थप्पड़ की गूंज की गूंज सुनानी है। गूंज की गूंज अब लगातार गूंजेगी। आप भी सुनिये। बदले की यह नई परंपरा भारतीय राजनीति को एक खतरनाक गैंगवार में ना बदल दे, इस पर कुछ लोग चिंतित है। अगर आप लेखक हैं तो इस दौर का सबसे अच्छा उपयोग यही है कि चुपचाप देखिये और रिसर्च कीजिये। एक सुपरहिट वेब सीरीज का आइडिया आपके चारो तरफ पक रहा है।

(वरिष्ठ पत्रकार राकेश कायस्थ के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)