Opinion – ये जितनी सिंधू की जीत है उतनी ही गोपीचंद की भी, फिल्म कहानी से कम नहीं है संघर्ष की गाथा

गोपींचद ने अपने घर को गिरवी रखकर कोचिंग खोली। इसी कोचिंग सेंटर से गोपी को सबकुछ मिला जिसका ख्वाब देखा था।

New Delhi, Aug 26 : कहते हैं कि हर सफल पुरुष के पीछे एक औरत होती है। लेकिन आज सिंधू की जीत के पीछे इस ‘कंप्लीट मैन’ की बात न हो तो सिंधू की जीत से अधिक उसकी स्पिरिट अधूरी रहेगी। सिंधू की जीत गोपीचंद के सालों उस अधूरे-बिखरी हसरतों के पूरा होने का दिन है जिसका वादा उसने खुद से,खुद के परिवार और देश से किया था। गोपीचंद की जिंदगी की कहानी बिमल रॉय की फिल्म की स्क्रिप्ट सी लगती है।

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उधार के रैकेट से बैडमिंटन खरीद इस खेल को पुलेला गोपीचंद ने उस वक्त अपनी जिंदगी से जोड़ा जब दूर-दूर तक इसमें न पैसा था न ग्लैमर। पूरा परिवार गोपीचंद के लिए पैसे जुटाता था ताकि वह खेल सके। कहीं से कोई मदद नहीं थी। मिडिल क्लास फेमिली के लड़के को परिवार ने पहली बार अपने पैसे से विदेश भेजा खेलने के लिए। गोपीचंद के कारण पूरे परिवार ने तब तक त्याग किया जबतक उन्हें दीपिका पादुकोणे के पापा प्रकाश पादुकोणे ने अपनी शरण में नहीं लिया।

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हालांकि प्रकाश पादुकोणे की पहचान दीपिका से नहीं रही है लेकिन कड़वा सच है कि आज की पीढ़ी उन्हें इसी रूप में अधिक पहचानती है। प्रकाश के शागिर्द बनने के बाद शुरू हुआ कामयाबी का सिलसिला। दुनिया के हर प्लेयर को गोपीचंद ने हाराया। लेकिन सपना था ओलंपिक में मेडल जीतना। 2000 सिडनी ओलंपिक में बहुत नजदीक पहुंच कर नहीं जीत पाए। तभी गोपीचंद ने खुद से और देश से वादा किया- वह मेडल दिलवाएंगे। जो खुद न कर पाए, वह अगली पीढ़ी से करवा देंगे। एक सपना देखा व्लर्ड क्लास कोचिंग सेंटर खोलने का। लेकिन इतना पैसा नहीं था।

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पैसा क्यों नहीं था, इसके भी कारण थे। गोपीचंद जब सुपरस्टॉर थे तब कोकोकोला ने लाखों रुपये से खरीदना चाहा। लेकिन नहीं बिके। बोले, प्रोडक्ट को सिर्फ पैसे के लिए नहीं बेचेंगे। बाद में एक महान क्रिकेटर ने खट से कोकोकोला का ऑफर स्वीकार कर लिया। गोपीचंद बाजार के सामने भी नहीं बिके।
गोपींचद ने अपने घर को गिरवी रखकर कोचिंग खोली। इसी कोचिंग सेंटर से गोपी को सबकुछ मिला जिसका ख्वाब देखा था। उनकी सीनियर स्टूडेंट साइना नेहवाल को लंदन ओलंपिक में कांस्य मिला। लेकिन गोपीचंद के कोचिंग सेंटर में तब भी कोई स्टॉर नहीं था। ओलंपिक में मेडल जीतने वाली साइना भी नहीं।

उनके यहां जितनी अहमियत साइना की थी उतनी ही सिंधू या दूसरे खिलाड़ी की भी। यह सिस्टम शायद स्टॉर साइना को अच्छा नहीं लगा। साइना को लगा कि गोपीचंद उनपर कम फोकस कर रहे हैं। जबकि वह सबसे अधिक फोकस में है। वह उनके प्रभाव से निकल गयी। साथ छूट गया। सिंधू गोपीचंद की उम्मीद बन गये थे। लेकिन साइना और गोपीचंद की यहां भी तारीफ इसलिए की दोनों ने हमेशा अपने विवाद की बात बेहद गरिमामय और मर्यादा में रखकर की।
आज गोपीचंद की दूसरी स्टूडेंट सिंधू उन्हें वह पल दे रही है जिसके लिए उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी दे दी। यह जितनी सिंधू की जीत है उतनी ही गोपीचंद की भी।

(वरिष्ठ पत्रकार नरेन्द्र नाथ के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)