मन में सवाल उठता है, आखिर चाचा नेहरु ने अपने जन्मदिन को बाल-दिवस के रुप में मनाने का फैसला क्यों लिया?

खैर इस बात में कोई शक नहीं है की चाचा नेहरू माओ और स्टालिन से न केवल बुरी तरह से प्रभावित थे बल्कि इन दोनों महान नेताओं से प्रेरणा लेकर देश के फैसले भी लेते थे।

New Delhi, Nov 16 : मेरे मन में ये हमेशा सवाल उठता है कि आखिर प्रिय चाचा नेहरू ने अपने जन्मदिन को बाल-दिवस के रूप में मनाने का फैसला क्यों किया ? अब ये मत कहिएगा कि 14 नवंबर को बाल दिवस मनाने का फैसला चाचा नेहरू का नहीं था, ये फैसला तो उनकी मृत्यु के बाद लिया गया… हकीकत में ये फैसला चाचाजी का ही था और इसके सबूत 1957 और 1961 के वो डाक टिकट हैं, जिनपर साफ-साफ दर्ज है – 14 नवंबर यानि बाल-दिन… आप चाहें तो मेरी इस पोस्ट के नीचे कमेंट बॉक्स में इन डाक टिकटों को देख सकते हैं… वैसे जब जीते जी हमारे प्रिय चाचाजी अपने दाये हाथ से, अपने बाये हाथ को, खुद भारत रत्न दे सकते हैं, तो वो कुछ भी कर सकते हैं… खैर मेरी पोस्ट का आज विषय कुछ और है… और वो ये कि चाचा नेहरू ने अपने जन्मदिन को बाल दिवस क्यों घोषित किया ???

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ये दावा तो मैं नहीं कर सकता कि प्रिय चाचा नेहरू के बारे में मैंने सबकुछ पढ़ा है… लेकिन मैंने जितना भी उन्हे पढ़ा या जाना है उसमें कहीं भी बच्चों के प्रति उनके अगाध प्रेम का कोई बहुत ज्यादा जिक्र नहीं मिलता… हां अपने लाडले नाती राजीव और संजय को वो अपने साथ त्रिमूर्ती भवन में रखते थे और समय मिलने पर उनके साथ वहां पाले गए एक हिमालयीन पांडा के साथ खेलते थे… इस रोचक किस्से का जिक्र मैंने अपनी एक पुरानी पोस्ट में भी किया था… खैर, ऐसे में सवाल उठना लाज़िमी है कि चाचा नेहरू ने अपने जन्मदिन को बाल दिवस घोषित क्यों किया ??? हमारे प्रिय चाचा नेहरू की पहचान लोकतंत्र के रक्षक की थी, लिहाज़ा उनके जन्मदिन को हम “लोकतंत्र दिवस” के तौर पर भी मना सकते थे… चाचा नेहरू बहुत बड़े वाले सेक्युलर (कुछ लोग इस शब्द को ‘सिकलुर’ भी कहते हैं) थे, लिहाज़ा उनके जन्मदिन को “धर्मनिरपेक्ष दिवस” के तौर भी मनाया जा सकता था… हालांकि उनकी विदेश नीति चीन के मामले में गच्चा खा गई लेकिन वो खुद को “कबूतर उड़ाने” वाली विदेश नीति का महान विद्वान मानते थे लिहाज़ा उनके जन्मदिन को “अंतरराष्ट्रीय शान्ति दिवस” के तौर पर भी मनाने का फैसला हो सकता था… लेकिन चाचा नेहरू ने खुद अपने बर्थडे सेलिब्रेशन के लिए चुना “बाल दिवस”… आखिर क्यों ??? इस सवाल को समझने के लिए हमें नेहरू जी से इतर उस दौर के तानाशाहों के जीवन में झांकना होगा…

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दरअसल बच्चों का दिमाग उनके शरीर की तरह ही कोमल होता है, उसे जैसा ढाल दो वो वैसा ही बन जाता है… और इसी बात को दुनिया के ज्यादातर तानाशाहों ने अपना हथियार बनाया है… मैं दुनिया के तीन तानाशाहों को सबसे क्रूर मानता हूं – माओ, स्टालिन और हिटलर… इंसानियत के इन तीनों दुश्मनों का एक ही सपना था सालों साल तक राज करना और मरने के बाद भी अमर हो जाना… और इसके लिए इन्होने हथियार बनाया अपने देश के बच्चों को… इन्होने कैसे अपने जीते जी अपने नाम से अपने देश में ‘बाल-दिवस’ मनवाए, आइए ये जानते हैं…
शुरुआत करते हैं, चार करोड़ लाशों पर खड़े दुनिया के सबसे क्रूर तानाशाह जोसेफ स्टालिन और उनके ‘बाल-दिवस’ से… आपने अक्सर एक तस्वीर देखी होगी जिसमें स्टालिन के हाथ में एक प्यारा सा बच्चा है और उस बच्चे के हाथ में सोवियत संघ का झंडा है… ये इकलौती तस्वीर नहीं है… स्टालिन की हज़ारों-हज़ार तस्वीरें हैं जिनमें स्टालिन बच्चों से घिरे नज़र आते हैं… सोवियत संघ में स्टालिन को “Otlichnyy drug detey” यानि “Great friend of the children” कहा जाता था… स्टालिन के शासनकाल में बच्चों को स्कूल में एक किताब पढ़ाई जाती थी जिसका नाम होता था “Istorii detstva Stalina” यानि “Stories of the Childhood of Stalin”… उस दौर में सोवियत संघ के हर स्कूल की हर क्लास में स्टालिन की तस्वीर लगाना अनिवार्य था… लेकिन हकीकत में स्टालिन को बच्चों से कितना प्यार था इसकी मिसाल हैं खुद उसके बच्चे और पोते… उसके बड़े बेटे याकोव ने जब 18 साल की उम्र में गोली मारकर आत्महत्या की असफल कोशिश की तो स्टालिन ने उसे इस बात पर डांटा की तुम खुद पर निशाना भी ठीक से नहीं लगा सकते… बाद में याकोव को उसने जर्मनी की कैद में मरने के लिए छोड़ दिया… वहीं याकोव की मौत के बाद उसकी विधवा यूलिया और उसके छोटे छोटे मासूम बच्चों को स्टालिन ने साइबेरिया के कैंप में मरने के लिए भेज दिया… जहां वो ठंड से तड़प तड़प कर मौत की भीख मांगते रहे… सोचिए जिसे अपने सगे मासूम पोतों से इतनी मोहब्बत थी वो देश के बच्चों से कितना प्यार करता होगा ??? खैर आगे और भी है… स्टालिन का दूसरा बेटा वेसली उसके अत्याचारों से तंग आकर पागल हो गया और बेटी स्वेतलाना पूरी जिंदगी स्टालिन से अपनी जान बचाकर भागती रही… बाद में उसने एक भारतीय कम्युनिस्ट ब्रजेश सिंह से शादी कर ली।

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आइए अब बात करते हैं चीनी तानाशाह और करीब 8 करोड़ लाशों के सौदागर दुष्ट तानाशाह माओ की… माओ ने भी खुद को अमर बनाने और चीन पर लंबे समय तक शासन करने के लिए छोटे छोटे बच्चों को अपना निशाना बनाया… माओ को अपने नफरत के बीज बोने के लिए चीन के बच्चे सबसे उपजाऊ ज़मीन लगे… सांस्कृति क्रांति के नाम पर माओ ने स्कूली बच्चों के मन में अपने लिए अंधभक्ति भरने का काम जोर-शोर से किया… चीन के स्कूलों में एक गाना बच्चों से रोज़ गवाया जाता था जिसके बोल थे – ‘पिता हमारे करीब हैं, मां हमारे करीब है… लेकिन कोई हमारे उतना करीब नहीं, जितने करीब चैयरमेन माओ हैं…’ इतना ही नहीं स्कूली बच्चों को भड़काया जाता था कि अगर उनके माता-पिता माओवाद से सहमत नहीं हैं तो वो ‘प्रतिक्रांतिकारी’ यानि ‘COUNTER REVOLUTIONARY’ हैं… हर स्कूल में माओ की लिखी ‘रेड बुक’ पढ़ना अनिवार्य था… बाद में इसी रेड बुक को पढ़ कर बड़े हुए माओ के इन बिगड़ैल बच्चों ने 18 जून 1966 को बिजिंग यूनिवर्सिटी के 60 प्रोफेसरों को एक साथ सज़ा ए मौत दे दी… 1966 और 1967 में चीन के छात्रो ने हज़ारों लोगों को ‘प्रतिक्रांतिकारी’ बता कर इसी तरह से मौत के घाट उतारा।

अब बात परम प्रतापी तानाशाह हिटलर के ‘बाल-दिवस’ की… हिटलर ने अपने जीते जी 20 अप्रैल यानि अपने जन्मदिन को राष्ट्रीय अवकाश घोषित कर रखा था… इस दिन स्कूल के बच्चे रैली निकालते और अपने प्यारे फ्यूहरर के लिए नारे लगाते… स्कूल की दीवारों पर हिटलर की तस्वीर होती और किताबों में हिटलर के किस्से भरे होते… जाने माने लेखक, इतिहासकार और बीसवी सदी के प्रोपेगेंडा पर लंबा रिसर्च करने वाले डेविड वेल्च ने अपनी मशहूर किताब “The Third Reich: Politics and Propaganda” में लिखा है – “From their first days in school, German children were imbued with the cult of Adolf Hitler. His portrait was a standard fixture in classrooms. Textbooks frequently described the thrill of a child seeing the German leader for the first time.”

आइए अब एक बार फिर लौटते हैं हमारे प्रिय चाचा नेहरू की तरफ… और जानते हैं कि चाचा नेहरू हिटलर, स्टालिन और माओ के बारे में क्या सोच रखते थे… इसमें कोई शक नहीं कि चाचा नेहरू को हिटलर बिल्कुल पसंद नहीं था, अब इसकी वजह शायद सुभाष चंद्र बोस से हिटलर की पहचान थी या फिर नाजीवाद??? इस विषय पर फिर किसी दिन चर्चा करेंगे… आइये अब बात करते हैं माओ और स्टालिन की जिनसे चाचा नेहरू के खास रिश्ते थे… इन दोनों से दोस्ती गांठने के लिए उन्होने अपनी प्यारी बहन और देश की “बुआजी” विजयलक्ष्मी पंडित को पहले सोवियत संघ में राजदूत बनाया और बाद में भारतीय प्रतिनिधिमंडल का अध्यक्ष बना कर चीन भेजा।

क्रूर तानाशाह स्टालिन के प्रति चाचा नेहरू की आगाध श्रद्धा थी… स्टालिन के फाइव ईयर प्लान की तर्ज पर ही उन्होने भारत में पंचवर्षीय योजनाएं शुरु कीं… आप मुझे झूठा न कहें इसलिए अब मैं बात करुंगा उस किताब की जो खुद चाचा नेहरू ने लिखी थी और उसमें उन्होने स्टालिन और उसके सोवियत संघ के बारे में क्या लिखा था वो ज़रा पढ़ लीजिए… नेहरू को नवंबर 1927 में सोवियत संघ की यात्रा के लिए आमंत्रित किया गया था… इस यात्रा पर 1929 में नेहरू ने एक किताब लिखी जिसका नाम था “सोवियत रशिया”… इस किताब में हमारे प्रिय चाचा नेहरू लिखते हैं कि – “हिंदुस्तान के कारखानों में मजदूरी करने से बेहतर सोवियत संघ की जेल में कैद रहना है”… ध्यान दीजिएगा, ये वो दौर था जब सोवियत संघ पर क्रूर तानाशाह स्टालिन का शासन अपने चरम पर था… वो स्टालिन जिसकी जेलों को दुनिया जीवित नर्क कहती थी… वो स्टालिन जिसके हाथ अपने ही देश के चार करोड़ लोगों के खून से सने थे… सोचिए हमारे चाचा नेहरू स्टालिन से किस हद तक प्रभावित थे।

अब बात करते हैं नेहरू के माओ के प्रति प्रेम की… 1952 में जब चाचाजी की प्यारी बहन और देश की “बुआजी” विजयलक्ष्मी पंडित चीन गईं तो उन्होने वहां से नेहरू को पत्र में लिखा – “चेयरमैन माओ का हास्यबोध (सेंस ऑफ ह्यूमर) कमाल का है और उनकी लोकप्रियता देखकर तो मुझे महात्मा गांधी की याद आ गई!”… वहीं चीन में भारत के राजदूत के एम पणिक्कर ने माओ के बारे में नेहरू को पत्र में लिखा था कि – “चेयरमैन माओ का चेहरा बहुत कृपालु है और उनकी आंखों से तो जैसे उदारता टपकती है… उनका नज़रिया दार्शनिकों वाला है और उनकी छोटी-छोटी आंखें स्वप्निल सी जान पड़ती हैं… चीन का ये लीडर जाने कितने संघर्षों में तपकर यहां तक पहुंचा है, फिर भी उनके भीतर किसी तरह का रूखापन नहीं है… श्रीमान नेहरू, मुझे तो उनको देखकर आपकी याद आ गई… चेयरमैन माओ भी आप ही की तरह गहरे अर्थों में “मानवतावादी” हैं !”… तो पढ़ा आपने नेहरू के चेले पणिक्कर माओ की तुलना नेहरू से कर रहे हैं वो भी उनके मुंह पर… वैसे भी चाचा नेहरू “खुद के फेवरेट” थे…

खैर इस बात में कोई शक नहीं है की चाचा नेहरू माओ और स्टालिन से न केवल बुरी तरह से प्रभावित थे बल्कि इन दोनों महान नेताओं से प्रेरणा लेकर देश के फैसले भी लेते थे… ऐसे में ये भी सम्भव है कि नेहरू को बच्चों का प्यारा “चाचा” बनने और अपना जन्मदिन “बाल-दिवस” के रूप में मनाने की प्रेरणा भी माओ और स्टालिन से मिली हो ???
इतना लंबा सा पोस्ट लिखने के बाद मैं सिर्फ यही कह सकता हूं कि अगली बार जब आप बाल-दिवस के बारे में सोचें तो चाचा नेहरू के “बालप्रेम” और उनके “वातसल्य” के अलावा माओ, स्टालिन और हिटलर की चालों के बारे में भी याद रखें… कोई नेता और कोई तानाशाह ये सोचता है कि पीढ़ी दर पीढ़ी वो बच्चों के कोमल मन पर कब्जा कर लेने के बाद इतिहास में वो महान नेता के तौर पर अमर हो जाएगा तो ये उसकी भूल है… हर गुजरते दिन के साथ इतिहास अपने अपराधियों के प्रति क्रूर से क्रूरतम होता चला जाता है… आज रूस स्टालिन के नाम से शर्मिंदा होता है… आज चीन माओ की नीतियों पर पर बात करने से पानी-पानी हो जाता है… और जर्मनी में तो आज हिटलर का नाम लेना भी कानूनन अपराध है… और आज भारत में …??? खैर जाने दीजिए… फिलहाल मेरी तरफ से बाल-दिवस पर चाचा नेहरू को विनम्र श्रद्धांजलि…

(चर्चित टीवी पत्रकार प्रखर श्रीवास्तव के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)