‘भारतीय गणराज्य में राज्यपाल द्वारा केन्द्रीय अधिकारों का पहला दुरूपयोग नेहरू के समय में हुआ था’

राज्यपालों का एक खास काम होता है प्रशासनिक ढांचे को सुदृढ़ रखना। उत्तर प्रदेश में तीन मुख्यमंत्रियों की स्वार्थपरता के कारण राज्य के प्रशासनिक अधिकारी राजनीति के मोहरे बन गये थे।

पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ की जो दुर्गति मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने की है वह संवैधानिक मर्यादा से दुष्कर्म तो है ही, विघटन के खतरे से भी आगाह करता है|सरकारी शह पर छात्र अपने कुलाधिपति को जलील कर दे ! कौन सही बतायेगा? कुछ वर्ष पूर्व बंगाल के गांधीवंशी राज्यपाल ने गांधीगिरी को अपनाकर वामपंथी सरकार की जनपक्षधरता को शंकास्पद बना दिया था । बापू के प्रपौत्र गोपालकृष्ण गांधी ने विद्युतविहीन आम जन की सहानुभूति में कोलकत्ता राजभवन में बिजली की स्वैच्छिक कटौती कर दी। राज्यपाल ने नन्दीग्राम में माकपा की सरकार के आतंक का प्रतिरोध किया तो उसे भी सियासी बताया गया। हालांकि माकपा सरकार ने गोपालकृष्ण गांधी को बख्श दिया। बारह बरस पूर्व पड़ोसी बंगभाषी त्रिपुरा में माकपा सरकार ने राज्यपाल रोमेश भण्डारी की पानी-बिजली ही काट दी थी। पहाड़ से भागकर भण्डारी ने सागरतटीय पणजी के राजभवन में सांस ली थी। तमिलनाडु में तो जयललिता ने राज्यपाल मर्री चन्ना रेड्डी पर पत्थरबाजी करायी थी|

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आज अगर किन्हीं राज्यपालों पर यह आरोप लग रहा है कि वे राजभवन में सियासत कर रहे हैं तो इसका कारण बुनियादी है कि पुराने कांग्रेसियों और भाजपाइयों को राजभवन में बसाया जायेगा तो यही होगा। मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों के बीच सौहार्द का अभाव और संशय का बढ़ना इन्हीं राजनीतिक विषमताओं के कारण होता है। राज्यपाल तटस्थ रहे मगर जब राज्य की कानून और व्यवस्था की स्थिति बिगड़े तो उन्हें मुख्यमंत्री को सचेत करना चाहिए। यह बात सत्यनारायण रेड्डी (1992) ने नहीं की थी और अंजाम में अयोध्या विवाद उठा। राज्यपालों का एक खास काम होता है प्रशासनिक ढांचे को सुदृढ़ रखना। उत्तर प्रदेश में तीन मुख्यमंत्रियों की स्वार्थपरता के कारण राज्य के प्रशासनिक अधिकारी राजनीति के मोहरे बन गये थे। इसका प्रायश्चित मोतीलाल वोरा को करना पड़ा। समय पर वे हस्तक्षेप करते तो यह कैंसर नहीं बढ़ता।

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अतः मसला उठता है कि मनोनीत राज्यपाल और निर्वाचित मुख्यमंत्री के अधिकारों की सीमा और दायित्व की मर्यादा की दास्तां कहां शुरू और कहां खत्म होनी चाहिए। मगर संवैधानिक संकट उस समय गहराता है जब परोक्ष कारणों से कोई राज्यपाल अल्पमतवाले को मुख्यमंत्री नियुक्त करे, या बहुमतवाले मंत्रिमण्डल को बर्खास्त कर दें या विधानसभा ही भंग कर दें। इसीलिए नये सिरे से राज्य-केन्द्र सम्बन्धों के सन्दर्भ में राज्यपाल की भूमिका पर बहस और समीक्षा होनी चाहिए। सवाल सीधा और कड़ा है कि आखिर क्यों अब तक 65 बार राज्यों में सरकारें पदच्युत की गयी। अर्थात् संविधान की धारायें 154, 163 और 356 पर विचार करना होगा। यह अपरिहार्य इसलिए भी हो गया है कि संविधान सभा में तत्कालीन विधि मंत्री डा. भीमराव अम्बेडकर ने आशा व्यक्त की थी कि राज्यपाल की शक्तियों का प्रयोग करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। संविधान बड़ा लचीला बना है, इसलिए व्यावहारिक दिक्कतें कम ही पड़ेंगी। उनकी उक्ति थी कि ‘‘यदि कोई गड़बड़ी हो भी जाती है तो जिम्मेदार संविधान नहीं, वरन (क्रियान्वयन करने वाला) आदमी होगा। तो क्या आदमी (इस परिवेश में राज्यपाल) बुरा निकला? अनुभव क्या कहता है? लखनऊ में रोमेश भंडारी ने कल्याण सिंह को बर्खास्त कर संकट उपजाया था| उच्चतम न्यायलय ने संभाला|अटल जी को उपवास पर बैठना पड़ा था| विधानसभा ने एक ही साथ दो मुख्यमंत्री देखे थे|

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भारतीय गणराज्य में राज्यपाल द्वारा केन्द्रीय अधिकारों का पहला दुरूपयोग जवाहरलाल नेहरू के समय में हुआ था। केरल विधानसभा में कम्युनिस्ट पार्टी का स्पष्ट बहुमत था, बल्कि मानव इतिहास में पहली बार विश्व में अगर मुक्त मतदान द्वारा कम्युनिस्ट सरकार कहीं बनी थी तो वह ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद की थी। तथाकथित जनान्दोलन, जो वस्तुतः हिन्दू नायर जाति और ईसाई पादरियों की साझा साम्प्रदायिक मुहिम थी, का 1958 में बहाना बनाकर कांग्रेस नेता इन्दिरा गांधी के दबाव में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने नम्बूद्रिपाद की निर्वाचित, बहुमतवाली सरकार को बर्खास्त कर दिया, राष्ट्रपति शासन थोप दिया। तब केरल के राज्यपाल थे डॉ. बी. रामकृष्ण राव (बाद में यूपी के भी बने)| नेहरू ने हैदराबाद राज्य के इस कांग्रेसी मुख्यमंत्री को रेड्डी गुट के दबाव में हटाकर त्रिवेन्द्रम राज भवन भेज दिया था| पार्टी अध्यक्ष नेहरू ने कांग्रेस संगठन में अपने विरोधियों से मुक्ति के लिए राजभवनों को चरागाह बना दिया था| सरदार पटेल के निधन के तुरंत बाद से उनके समर्थकों को नेहरू ने दिल्ली से बाहर कर दिया| कन्हैया लाल मुंशी को यूपी, डॉ. पट्टाभि सीतारमैया को मध्यप्रदेश, आरआर दिवाकर को बिहार आदि| लोकसभा चुनाव में पराजित, वोटरों द्वारा तिरस्कृत वीवी गिरि को लखनऊ भेजकर नेहरू ने लोकतान्त्रिक नैतिकता ही ख़त्म कर दी थी|
बस इतना जरूर नियमपूर्वक माना जाय कि राज्यपाल की गरिमा के मुताबिक पात्र का चयन हो, वरना पार्टी के कूड़े की टोकरी राजभवन बन जायेगा, जैसा कि आज कई राज्यों में दिखायी दे रहा है।
(वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)