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राजनीति को अपराधमुक्त करने की कोशिश क्यों नहीं होती?

बीते चार आम चुनाव में राजनीति का आपराधिकरण तेजी से बढ़ा है। अभी लोकसभा के 542 सांसदों में से 233 यानि 43 फीसदी के खिलाफ आपराधिक मुकदमे लंबित हैं।

New Delhi, Feb 14 : सुप्रीम कोर्ट ने आज संसदीय राजनीति को अपराध मुक्त करने की दिशा में एतिहासिक आदेश पारित किया है। कोर्ट ने राजनीतिक दलों को आदेश दिया है कि आपराधिक रेकॉर्ड वाले उम्मीदवारों की जानकारी सार्वजनिक की जाये। साथ ही यह भी बतायें की दागी नेता को टिकट क्यों दिया गया ? कोर्ट ने कहा है कि अगर इस पर अमल नहीं हुआ तो अवमानना की कार्रवाई होगी। बीजेपी के नेता और वकील अश्विनी उपाध्याय ने इस संबंध में पीआईएल दायर की थी।

बीते चार आम चुनाव में राजनीति का आपराधिकरण तेजी से बढ़ा है। अभी लोकसभा के 542 सांसदों में से 233 यानि 43 फीसदी के खिलाफ आपराधिक मुकदमे लंबित हैं। चुनाव में दिए गए हलफनामों के मुताबिक 159 यानि 29 प्रतिशत सांसदों के खिलाफ हत्या, बलात्कार और अपहरण जैसे गंभीर मामले लंबित है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने ताजा फैसले में इसका जिक्र किया है। 2004 में 24% सांसदों की पृष्ठभूमि आपराधिक थी। 2009 में ऐसे सांसदों की संख्या बढ़कर 30 प्रतिशत और 2014 में 34 प्रतिशत हो गई। ऐसे में सवाल यह है कि राजनीति को अपराधमुक्त करने की कोशिश क्यों नहीं होती? देखा गया है कि प्रायः सभी राजनीतिक दल दागियों को संरक्षण देते हैं और उनके बचाव में एकजुट हो जाते हैं।

1993 में मुंबई बम कांड के बाद पीवी नरसिंह राव की सरकार ने वरिष्ठ नौकरशाह एन.एन. बोहरा की अध्यक्षता में एक कमिटी गठित की थी। बोहरा कमेटी ने अपनी रिपोर्ट 5 अक्टूबर, 1993 को सौंपी थी।

रिपोर्ट में क्राइम सिंडिकेट और माफिया संगठनों के राजनेताओं के साथ साठगांठ का पुख्ता सबूतों के साथ खुलासा था। लेकिन सरकार उस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने का साहस नहीं जुटा पायी। रिपोर्ट सौंपने के दो साल बाद तक इसे संसद में नहीं रखा गया। बाद बदनामी से बचने के लिए सिर्फ 12 पन्ने सार्वजनिक किये गए । जबकि पूरी रिपोर्ट 100 पन्नों से ज्यादा की है। बाद में 1997 में केंद्र सरकार पर रिपोर्ट सार्वजनिक करने का दबाव फिर बढ़ा। राज्यसभा सदस्य दिनेश त्रिवेदी ने सुप्रीम कोर्ट में रिपोर्ट सार्वजनिक कराने के लिए अर्जी दी। तब सरकार ने विरोध किया। कोर्ट ने सरकार की दलील मान ली। कोर्ट ने कहा कि सरकार को रिपोर्ट सार्वजनिक करने पर बाध्य नहीं किया जा सकता।

(वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण बागी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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