जाओ इरफ़ान! तुम हमारी यादों में सदैव जीवित रहोगे

निश्चय ही इनके बाद मुझे इरफ़ान खान पसंद आए। उनकी ‘हिंदी मीडियम’ तो मैंने कई बार देखी थी। ‘मक़बूल’ भी और ‘आन’ को भी कई बार देखा।

New Delhi, Apr 29 : दसवीं तक साल में एक फ़िल्म देखने को मिलती थी। वह भी नतीजा आने के दिन, यानी बीस मई को। पिताजी सबको गोविंद नगर, कानपुर की नटराज टाकीज़ में ले जाते और दस आने की टिकट वाली क्लास में फ़िल्म दिखाते। पहली फ़िल्म थी, सोहराब मोदी की ‘झाँसी की रानी’। लेकिन दसवीं पास करने के बाद पिताजी ने मेरे लिए hmt की घड़ी लाकर दी तथा दस रुपए दिए और अकेले फ़िल्म जाने की छूट भी। तब मैंने राज कुमार की ‘वासना’ देखी थी।

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जिसमें हीरो की शराब और ज़्यादा सिगरेट पीने से मौत हो जाती है। मेरे किशोर मन पर ऐसा असर पड़ा, कि आज 65 साल की उम्र तक सिगरेट को टच भी नहीं किया। उस वक्त उम्र 14 की थी। फिर 11वीं में आने के बाद कालेज गोल कर फ़िल्म देखीं। तब डर लगा रहता था, कि कहीं कोई देख न ले। आख़िरी फ़िल्म दिल्ली आ जाने के बाद ‘नादिया के पार’ देखी थी। तब राजीव शुक्ला साथ में थे। उस समय हम लोग एक ही मकान में रहते थे।

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इसके बाद VCP और VCR आ गए और फ़िल्में घर पर देखीं। आज भी अकेले फ़िल्म जाने में भय महसूस होता है। पिछले साल कंगना राणावत की फ़िल्म ‘मणिकर्णिका’ देखने अकेले गया था, क्योंकि परिवार के बाक़ी सदस्य पहले देख आए थे। क्या विचित्र बात है, कि परसों दोपहर को घर वालों ने ‘अंग्रेज़ी मीडियम’ लगाई थी। लेकिन मैं ‘ऑन लाइन’ काम में जुटा रहा, अलबत्ता कल रात ‘न्यूटन’ देखी, जिसमें राज कुमार राव हीरो है। बेहतरीन फ़िल्म थी।

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मुझे ऐसे कलाकार बहुत पसंद रहे हैं, जो हम जैसे लगते हैं। जैसे एक जमाने में में अमोल पालेकर का दीवाना रहा। इसके बाद रघुबीर यादव और अन्नू कपूर भी खूब पसंद आए। लेकिन उनकी फ़िल्मों में उपेक्षा भी हुई। निश्चय ही इनके बाद मुझे इरफ़ान खान पसंद आए। उनकी ‘हिंदी मीडियम’ तो मैंने कई बार देखी थी। ‘मक़बूल’ भी और ‘आन’ को भी कई बार देखा। उनकी एक फ़िल्म का नाम नहीं याद आ रहा, जिसमें वे घर-दुआर छोड़ कर एक संन्यासी बनते हैं। ‘पीकू’ भी उनकी बेहतरीन फ़िल्म है। ‘पान सिंह तोमर’ मैंने इसलिए नहीं देखी, क्योंकि चम्बल के बाग़ियों के साथ इतना समय बिताया है, कि उन पर बनी हर फ़िल्म मुझे बेवक़ूफ़ी भरी लगती है। आज इरफ़ान की मृत्यु ने दुखी कर दिया। जाओ इरफ़ान! तुम हमारी यादों में सदैव जीवित रहोगे।

(वरिष्ठ पत्रकार शंभुनाथ शुक्ल के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)