जब मुंबई में कर्ण जैसे महादानी को भी मात करते आमिर खान जैसे लोग थे तो पलायन क्यों हो रहा भला?

वह लोग जो रोहिंगिया या बांग्लादेशियों के लिए देश भर में खून ख़राबा करते हुए क्रांति का बिगुल बजा रहे थे , शहर-शहर देश की संपत्तियों में आग लगा रहे थे , वह लोग भी इन मज़दूरों के लिए सामने क्यों नहीं आए।

New Delhi, May 18 : बीते महीने वाट्स अप और फेसबुक पर एक किस्सा सिर चढ़ कर वायरल हुआ था। कि मुंबई में गरीबों की बस्ती में एक-एक किलो आटा का पैकेट बांटने कुछ लोग गए। ऐलान किया कि एक-एक किलो आटा ले जाइए। एक किलो आटा लेने बहुत से लोग नहीं आए। लेकिन जिन के पास कुछ भी नहीं था , वह लोग आए। और पैकेट ले कर अपने घर गए तो पाया कि पैकेट में आटा नहीं पंद्रह हज़ार रुपए थे। और कि गरीबों को यह मदद पहुंचाई थी , अभिनेता आमिर खान ने। गज़ब था आमिर खान का यह पी आर भी। आज तक यह एक किलो आटा के नाम पर पंद्रह हज़ार पाने वाला एक भी आदमी सामने नहीं आ सका है। फिर यही किस्सा बाद में अलग-अलग शहरों में दूसरे , दूसरे नाम से भी चला। समझ आ गया कि यह विशुद्ध किस्म का फ्राड है। अपना-अपना नाम चमकाने का।

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यह तथ्य है कि जिस शहर से सब से ज़्यादा मज़दूर अपने घरों के लिए रवाना हुए , वह मुंबई शहर है। फिर जब मुंबई में कर्ण जैसे महादानी को भी मात करते आमिर खान जैसे लोग थे तो ऐसा क्यों हुआ भला ? कभी भारत में असुरक्षा महसूस करने वाले आमिर खान जैसे परम दानी लोग इन मज़दूरों को रोकने के लिए एक बार भी आगे बढ़ कर क्यों नहीं आए कि भैया रुको , हम तुम्हें किसी किसिम की तकलीफ नहीं होने देंगे। वैसे भी मुंबई भारत की आर्थिक राजधानी कही जाती है। एक से बढ़ कर एक धनपशु यहां रहते हैं। इन मज़दूरों के दम पर धनपशु बने लोगों में से कोई एक भी धनपशु क्यों नहीं आगे आया इन मज़दूरों को सहारा देने। सांत्वना देने। कि प्राण-प्रण से हम तुम्हारे साथ हैं। फिर मुंबई ही क्यों , कमोवेश हर शहर में धनपशुओं की पर्याप्त और प्रचुर मात्रा है। किसी भी एक शहर में कोई धनपशु ने क्यों नहीं जाते हुए मज़दूरों को रोकने की कोशिश की।

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वह लोग जो रोहिंगिया या बांग्लादेशियों के लिए देश भर में खून ख़राबा करते हुए क्रांति का बिगुल बजा रहे थे , शहर-शहर देश की संपत्तियों में आग लगा रहे थे , वह लोग भी इन मज़दूरों के लिए सामने क्यों नहीं आए। और वह लोग जो मंदिरों में करोड़ो-करोड़ का नित्य प्रति दान चढ़ाते रहते हैं , वह धनपशु लोग भी किन कंदराओं में छुप गए।
मोदी सरकार तो गरीबों की , मज़दूरों की घोर दुश्मन साबित हुई ही है। लतीफ़ा गांधी और उन की कांग्रेस भी शुरू से बैरन रही है मज़दूरों और गरीबों की। पर गरीबों-मज़दूरों के दम पर सर्वहारा की दुकान चलाने वाले वामपंथी दुकानदार भी आंखों पर पट्टी बांध कर क्यों छुप गए। आतंकियों , बलात्कारियों के लिए रात-रात भर जागने वाली , दंगाइयों के लिए स्वत: संज्ञान लेनी वाली सुप्रीम अदालतों ने भी आंख क्यों बंद कर लिए। क्या यह गरीब मज़दूर , मनुष्य नहीं हैं कि देश के सम्मानित नागरिक नहीं हैं। धूमिल याद आते हैं :

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मैं रोज़ देखता हूँ कि व्यवस्था की मशीन का
एक पुर्ज़ा गरम होकर
अलग छिटक गया है और
ठण्डा होते ही
फिर कुर्सी से चिपक गया है
उसमें न हया है
न दया है
नहीं౼अपना कोई हमदर्द
यहाँ नहीं है। मैंने एक-एक को
परख लिया है।

मैंने हरेक को आवाज़ दी है
हरेक का दरवाज़ा खटखटाया है
मगर बेकार…..मैंने जिसकी पूँछ
उठायी है उसको मादा
पाया है।

वे सब के सब तिजोरियों के
दुभाषिए हैं।
वे वकील हैं। वैज्ञानिक हैं।
अध्यापक हैं। नेता हैं। दार्शनिक
हैं । लेखक हैं। कवि हैं। कलाकार हैं।
यानी कि౼
क़ानून की भाषा बोलता हुआ
अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।
भूख और भूख की आड़ में
चबाई गई चीजों का अक्स
उनके दाँतों पर ढूँढना
बेकार है। समाजवाद
उनकी ज़ुबान पर अपनी सुरक्षा का
एक आधुनिक मुहावरा है।

मगर मैं जानता हूँ कि मेरे देश का समाजवाद
मालगोदाम में लटकती हुई
उन बाल्टियों की तरह है जिस पर ‘आग’ लिखा है
और उनमें बालू और पानी भरा है।
यहाँ जनता एक गाड़ी है
एक ही संविधान के नीचे
भूख से रिरियाती हुई फैली हथेली का नाम
‘दया’ है

(दयानंद पांडेय के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)