तब्लीगियों और मजदूरों को लेकर राजनीति होती रही, पर सरकार का इकबाल कहीं दिखा ही नहीं, अब कोरोना झेलिए!

याद रखिए कि जिस दिन कोरोना ने हमारे गांवों को अपनी चपेट में ले लिया, उस दिन की तस्वीर सबसे भयावह होगी।

New Delhi, May 21 : आज कोरोना संक्रमण के एक्टिव केस की संख्या 58,802 है और अब तक कुल 3,163 लोगों की दुखद मृत्यु हो चुकी है। अब तक संक्रमण के कुल 1,01,139 मामले कन्फर्म हो चुके हैं।
एक्टिव केस के मामले में भारत अभी दुनिया में 7वें स्थान पर आ चुका है। अब भारत से आगे केवल अमेरिका, रूस, ब्राज़ील, फ्रांस, इटली और पेरू हैं। इन देशों में भी फ्रांस और इटली ने अपने यहाँ स्थिति पर काबू पा लिया है और वहाँ हालात बेहतर हुए हैं। अमेरिका में जो होना है, हो चुका है। रूस, ब्राज़ील और पेरू इन तीनों देशों को मिलाकर भी 38 करोड़ की ही आबादी है, यानी अकेले भारत की आबादी इन तीनों देशों को मिलाकर भी चार गुना ज़्यादा है।

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यानी दुनिया में कोरोना का अगला कहर भारत में ही बरपने वाला है। फिर भी ऐसा लगता है कि अब किसी भी सरकार के पास कोरोना से निपटने की कोई ठोस नीति नहीं है। अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के नाम पर सरकारें क्रूरता पर उतर आई हैं। लोगों को घरों से बाहर निकलने के लिए परोक्ष रूप से बाध्य किया जा रहा है।
अलग अलग मुखों से कोरोना के साथ जीने की जो नसीहतें दी जा रही हैं, कोई बताए तो कोरोना के साथ कैसे जिया जाता है? क्या ये सभी असंवेदनशील लोग ये कहना चाहते हैं कि एक तरफ हज़ारों लोग मरते रहें, दूसरी तरफ ज़िंदा लोग अर्थव्यवस्था के नाम पर संक्रमित होते रहें, संक्रमण फैलाते रहें और इनमें भी जो लोग कोरोना से लड़ नहीं पाएंगे, वे भी मर जाएं तो मर जाएं?

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भारत में पहले ही दिन से लॉकडाउन ठीक से लागू नहीं हो सका। साज़िशें रची गई कि लॉकडाउन फेल हो जाए। और केंद्र सरकार भी इन साज़िशों के जाल में फंस गई। तब्लीगियों और मजदूरों के मामलों को हैंडल करने में सरकार बुरी तरह फेल रही। फेल ही नहीं रही, सरकार का इकबाल कहीं दिखा ही नहीं।
इस वक़्त देश के सामने असली मुद्दा था- कोरोना से देश को बचाना, लेकिन यह मुद्दा खत्म होकर अब इससे भी बड़ा मुद्दा बन चुका है- मज़दूरों का पलायन। जैसे अब तक मज़दूर राजमहलों में रहते आए थे, हवाई जहाजों के बिजनेस क्लास में सफर करते थे, सोने की रोटियां खाते थे और रुपयों के बिस्तरों पर सोते थे, लेकिन आज अचानक उनकी स्थिति दयनीय हो गई है।

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पहले फर्जी धर्मनिरपेक्षता की राजनीति ने और फिर मज़दूरों के प्रति फर्जी संवेदना दिखाने की सियासत ने इस देश के साथ ऐसा खतरनाक खेल खेला है कि आने वाले दिन अत्यंत भयावह होने जा रहे हैं। अरे भाई, जब 70 साल मज़दूरों पर किसी ने ध्यान दिया नहीं और देश में हो रहे जनसंख्या विस्फोट को डेमोग्राफिक डिविडेंड जैसी खूबसूरत संज्ञाओं से नवाजा गया, तो किसी दिन तो ये दिन देखने ही थे!
आज 20 लाख करोड़ का पैकेज है। अलग अलग सरकारें लाखों नहीं करोड़ों लोगों को मुफ्त भोजन, राशन आदि देने के दावे कर रही हैं, तो सड़कों पर त्राहिमाम करते ये कौन लोग दिखाई दे रहे हैं? या तो इन लोगों को शुरू में ही घर जाने दिया जाना चाहिए था, या फिर शुरू में इन्हें घर नहीं जाने दिया गया, तो अब इन्हें जहाँ हैं, वहीं जीवनरक्षा के लिए सारी सुविधाएं मुहैया कराई जानी चाहिए थी।

कोई मुझे बताए कि जब यह देश पहले भी हर महीने 81 करोड़ लोगों को सस्ता राशन देने के दावे करता रहा है, तो फिर यहां करोड़ों लोगों के सामने भुखमरी की नौबत कैसे पैदा हो जाती है? ऐसा लगता है कि पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम में हो रहे घोटाले कभी बंद ही नहीं हुए और आज इस महामारी काल में भी लोगों को राशन, भोजन की सहायता के नाम पर भीषण घोटाला चल रहा है।
अलग अलग सरकारें अपने प्रोपगंडा तंत्र के सहारे जिस तरह से बिना किसी ठोस सफलता के अपनी पीठ थपथपा रही थीं, उसकी ओर बीते दो महीनों में मैंने कई बार इशारा किया था। केस डबलिंग रेट में कुछ दिनों का धीमापन आने को जिस तरह झंडे की तरह गर्व से फहराया गया था, उसपर भी मैंने कहा था कि केस डबलिंग में दो-चार दिनों के धीमेपन से कुछ नहीं होने वाला। जिस दिन नए मामलों की संख्या ठीक होने वाले मरीजों की संख्या से कम हो जाएगी और ऐसा कई दिनों तक होता रहेगा, तभी मैं हालात को नियंत्रित मानूंगा।

आज फिर खतरे की घंटी बजा रहा हूँ। जिस तरह से पिछले केवल 23 दिनों में ही संक्रमण के कुल मामले 25 हज़ार से बढ़ते हुए 1 लाख को पार कर चुके हैं, यानी महज 23 दिन में चार गुणा, तो अगर यही रफ्तार रही और बढ़ती ज़रूरतों के हिसाब से जांच की संख्या बढ़ाई जा सकी, तो जून के अंत तक संक्रमण के कुल मामलों की संख्या 10 से 15 लाख के बीच हो सकती है और भारत अमेरिका से होड़ ले रहा होगा। इसके बाद जुलाई में क्या होगा, इसकी तो कल्पना से भी मन सिहर उठता है। एम्स के निदेशक डॉक्टर रणदीप गुलेरिया की यह बात भी मत भूलिए कि भारत में जून-जुलाई में कोरोना का पीक देखने को मिलेगा।
दुनिया के अब तक के अनुभव यही बताते हैं कि एक खास स्टेज पर पहुंच जाने के बाद कोरोना के बढ़ने की रफ्तार किसी भी सरकार के व्यवस्था करने की रफ्तार और क्षमता से काफी अधिक तेज़ हो जाती है। ईश्वर करे कि भारत में वह दिन कभी न आए और मेरी सारी आशंकाएं गलत हो जाएं, लेकिन अगर वह दिन आ गया, तो याद रखिए कि जो मरीज ठीक हो सकते हैं, वे भी केवल इस कारण मारे जाएंगे कि उन्हें उचित चिकित्सा सहायता नहीं मिल पाई।

मुझे नहीं लगता कि जितने मजदूर आज सड़कों और रेल पटरियों पर मारे गए हैं, उतने अगर वे जहां थे, वहीं रहते तो मारे जाते। अब जब बीमारी फैलती जा रही है तो संक्रमित होकर ये मजदूर भी मारे जाएंगे, उनके परिवार के लोग भी मारे जाएंगे, और उनके संपर्क में आने वाले उनके गांव शहर के अन्य अनेक लोग भी मारे जाएंगे।
याद रखिए कि जिस दिन कोरोना ने हमारे गांवों को अपनी चपेट में ले लिया, उस दिन की तस्वीर सबसे भयावह होगी। न केवल वे लचर चिकित्सा व्यवस्था के कारण बड़ी संख्या में मौत के मुंह में जा सकते हैं, बल्कि शहरों और महानगरों में खाने पीने के ज़रूरी सामानों की सप्लाई भी बुरी तरह से प्रभावित हो सकती है।
इसलिए गांवों को हर हाल में कोरोना से बचाया जाना चाहिए था, लेकिन मुझे लगता है कि सभी सरकारों ने अब कोरोना के आगे घुटने टेक दिए हैं, जो कि अत्यंत चिंताजनक है। अब देश का हर आदमी अपने नसीब पर निर्भर होता जा रहा है। दुखद है, लेकिन कड़वा सच यही है। सबको शुभकामनाएं। ईश्वर सबकी रक्षा करें।

(वरिष्ठ पत्रकार अभिरंजन कुमार के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)