Opinion-  मीडिया तो अब काले धन की गोद में

आज तो हालत यह है कि एक से एक लुच्चे, गिरहकट, माफ़िया, बिल्डर आदि भी अखबार निकाल रहे हैं, चैनल चला रहे हैं और एक से एक मेधावी पत्रकार वहां कहांरों की तरह पानी भर रहे हैं या उन के लायजनिंग की डोली उठा रहे हैं।

New Delhi, May 31 : हमारे देश में एक-दो बहुत बड़े भ्रम हैं। जैसे कि हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है। जब कि नहीं है। कम से कम संवैधानिक हिसाब से तो बिलकुल नहीं। हमारे पास खेल से लगायत, पशु-पक्षी तक राष्ट्रीय हैं पर कोई एक राष्ट्रीय भाषा नहीं है। जाने कैसे कभी मैथिली शरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर या सोहनलाल द्विवेदी तक को राष्ट्रकवि का दर्जा दिया गया था। खैर इसी तरह का एक और बहुत बड़ा भ्रम है कि प्रेस हमारा चौथा स्तंभ है।

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जब कि सच यही है कि हमारे संविधान में किसी चौथा स्तंभ की कल्पना तक नहीं है। सिर्फ़ तीन ही स्तंभ हैं। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। बस। चौथा खंभा तो बस एक कल्पना भर है। और सचाई यह है कि प्रेस हमारे यहां चौथा खंभा के नाम पर पहले भी पूंजीपतियों का खंभा था और आज भी पूंजीपतियों का ही खंभा है। हां, पहले कम से कम यह ज़रुर था कि जैसे आज प्रेस के नाम पर अखबार या चैनल दुकान बन गए हैं, कारपोरेट हाऊस या उस के प्रवक्ता बन गए हैं, यह पहले के दिनों में नहीं था। पहले भी अखबार पूंजीपति ही निकालते थे पर कुछ सरोकार, कुछ नैतिकता आदि के पाठ हाथी के दांत के तौर पर ही सही थे। पहले भी पूंजीपति अखबार को अपने व्यावसायिक हित साधने के लिए ही निकालते थे, धर्मखाते में नहीं। पर आज?

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आज तो हालत यह है कि एक से एक लुच्चे, गिरहकट, माफ़िया, बिल्डर आदि भी अखबार निकाल रहे हैं, चैनल चला रहे हैं और एक से एक मेधावी पत्रकार वहां कहांरों की तरह पानी भर रहे हैं या उन के लायजनिंग की डोली उठा रहे हैं। और सेबी से लगायत, चुनाव आयोग और प्रेस कौंसिल तक पेड न्यूज़ की बरसात पर नख-दंत-विहीन चिंता की झड़ी लगा चुके हैं। पर हालात मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की सरीखी हो गई है। नौबत यह आ गई है कि अखबार या चैनल अब काला धन को सफ़ेद करने के सब से बड़े औज़ार के रुप में हमारे समाज में उपस्थित हुए हैं। और इन काले धन के सौदागरों के सामने पत्रकार कहे जाने पालतू बन गए हैं।

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पालतू बन कर कुत्तों की वफ़ादारी को भी मात दिए हुए हैं यह पत्रकार कहे जाने वाले लोग। संपादक नाम की संस्था समाप्त हो चुकी है। सब से बुरी स्थिति तो पत्रकारिता पढ़ रहे विद्यार्थियों की है। पाठ्यक्रम में उन्हें गांधी, गणेश शंकर विद्यार्थी, पराड़कर, रघुवीर सहाय, कमलेश्वर, मनोहर श्याम जोशी, प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर आदि सरीखों की बात पढ़ाई जाती है और जब वह पत्रकारिता करने आते हैं तो गांधी, गणेश शंकर विद्यार्थी या पराड़कर, जोशी या माथुर जैसों की जगह राजीव शुक्ला, रजत शर्मा, बरखा दत्त, प्रभु चावला आदि जैसों से मुलाकात होती है और उन के जैसे बनने की तमन्ना दिल में जागने लगती है। अंतत: ज़्यादातर फ़्रस्ट्रेशन के शिकार होते है। बिलकुल फ़िल्मों की तरह। कि बनने जाते हैं हीरो और एक्स्ट्रा बन कर रह जाते हैं। सो इन में भी ज़्यादातर पत्रकारिता छोड़ कर किसी और रोजगार में जाने को विवश हो जाते हैं।

(वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार दयानंद पांडेय के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)