एमपी का ‘पातालकोट’, 12 गांव के लोग पूरी तरह से आत्मनिर्भर, सिर्फ नमक खरीदते हैं

यहां के लोग जंगलों को अपने होने का कारक मानते हैं, वो जंगल से उतना ही लेते हैं, जितना वापस कर सकें, घरों में सिर्फ उतनी जरुरत का ही सामान रखते हैं।

New Delhi, Jul 25 : एमपी में सतपुड़ा का जंगल, इस जगह का नाम है पातालकोट, यहां 12 गांव है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां आदिवासी समाज के लोग रहते हैं, जो हर मायने में आत्मनिर्भर हैं, ये समाज सिर्फ नमक खरीदने के लिये गांव से बाहर आता है। छिंदवाड़ा जिले से करीब 75 किमी दूरी पर बसे सतपुड़ी की पहाड़ियों के बीच जंगल है, यहीं से करीब 1700 फीट नीचे बसा है पातालकोट, यहां से 79 किमी स्क्वायर के दायरे में फैला है, इन 12 गांवों में भारिया आदिवासी समाज रहता है, यहां रहने वाले अपने आप में इतने आत्मनिर्भर हैं कि इन्हें सिर्फ नमक खरीदने के लिये बाहर आना पड़ता है।

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रास्ता नहीं है
कहा जाता है कि पहले पातालकोट पहुंचने के लिये रास्ता ही नहीं था, लोग पहाड़ पर लगे लताओं और पेड़ों को जड़ों को पकड़कर उपर जाते थे, पगडंडियां ही उनका रास्ता थी, लेकिन अब वहां सड़क पहुंच चुकी हैं, यहां के लोग अगर बीमार पड़ते हैं, तो अस्पताल जाने के बजाय जंगल से प्राप्त जड़ी-बूटियों से ही इलाज करते हैं, यहां की घाटी में दुधी नदी बहती है।

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इसके जंगल में ढाक, आचार, सागौन, आंवला, महुआ और चिरौंजी के पेड़ भरे पड़े हैं, कहा जाता है कि ऊपर से देखने पर पातालकोट घोड़े की नाल जैसा दिखता है, यहां के घर मिट्टी से लिपे होते हैं, छत खपरैल के बने होते हैं, यहां लोग जंगल में उपजने वाली चीजों को ही खाते हैं, वो सिर्फ बाहर से नमक खरीदकर लाते हैं।

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सूर्य की रोशनी
यहां कई गांव ऐसे हैं, जहां आज भी पहुंचना बहुत मुश्किल है, जमीन से काफी नीचे होने तथा विशाल पहाड़ियों से घिरे होने की वजह से कई हिस्सों में सूरज की रोशनी भी देर से तथा कम समय के लिये पहुंचती है, यहां पानी का एक मात्र स्त्रोत पहाड़ों से निकलने वाली जलधाराएं हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन की वजह से सालभर पानी नहीं रह पाता है।

जरुरत के मुताबिक जिंदगी
यहां के लोग जंगलों को अपने होने का कारक मानते हैं, वो जंगल से उतना ही लेते हैं, जितना वापस कर सकें, घरों में सिर्फ उतनी जरुरत का ही सामान रखते हैं, हर घर के पास एक खेत है, जहां वो जरुरत भर का अनाज और सब्जी उगा लेते हैं, वो हरे पेड़ पर कुल्हाड़ी कभी नहीं मारते हैं, बल्कि गिरे हुए पेड़ को काटकर उपयोग करते हैं, बताया जाता है कि यहां कि चट्टानें ज्यादान आर्कियन युग (करीब 2500 मिलियन साल पुरानी) की है, जिसमें ग्रेनाइट, ग्रीन स्किस्ट, गोंडवाना तलछट के साथ क्वार्ट्ज समेकित बलुआ पत्थर, शैलियां और कार्बोनेशियास शैलियां शामिल है।