कहानी उस क्रांतिकारी की, जिसने भगत सिंह के साथ जेल में किया था भूख हड़ताल

27 अक्टूबर 1904 को जतिन दास का जन्म कोलकाता के भवानीपुर में हुआ था, जतिन देश के पहले ऐसे क्रांतिकारी थे, जिन्होने राजनीतिक कैदियों की लड़ाई लड़ते हुए शहादत ली।

New Delhi, Jul 13 : अंग्रेज हुकुमत ने लाहौर षडयंत्र केस (1928-29) में भगत सिंह, राजगुरु, बटुकेश्वर दत्त तथा अन्य के साथ जतिन दास के खिलाफ भी मुकदमा चलाया था, जतिन दास का पूरा नाम जतिंद्रनाथ दास था, लेकिन उनके क्रांतिकारी साथी उन्हें जतिन दा कहते थे।

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13 जुलाई को शुरु हुआ था शहादत का सफर
27 अक्टूबर 1904 को जतिन दास का जन्म कोलकाता के भवानीपुर में हुआ था, जतिन देश के पहले ऐसे क्रांतिकारी थे, जिन्होने राजनीतिक कैदियों की लड़ाई लड़ते हुए शहादत ली, 13 सितंबर 1929 को उनकी मौत के समय उनकी उम्र सिर्फ 25 साल थी, इतनी छोटी उम्र में उन्होने कई दफा भूख हड़ताल की।
बहरों को सुनाने के लिये धमाके की जरुरत
हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन अंग्रेजों के ट्रेड डिस्प्यूट बिल तथा पब्लिक सेफ्टी बिल का विरोध कर रहा था, अंग्रेज क्रांतिकारियों के विरोध को नजरअंदाज करने की कोशिश कर रहे थे, अपनी आवाज सुनाने के लिये दिल्ली के सेंट्रल एसेंबली (अब संसद भवन) में बम फेंकने का प्लान बना, जतिन दास की अगुवाई में बम बनाया गया। 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने सेंट्रल एसेंबली में सदन की कार्यवाही के दौरान खाली जगह देखकर दो बम फेंक दिया, खाली जगह पर इसलिये बम फेंका क्योंकि उनका मकसद किसी को चोट पहुंचाना नहीं था, बल्कि अपनी बात रखनी थी, तेज धमाके की नीयत से बनाये गये बमों ने अपना काम बखूबी किया, धमाके के बाद भगत सिंह ने अपनी पिस्तौल से हवा में दो फायर किया, नारे लगाये इंकलाब जिंदाबाद, साथ ही हवा में पर्चे फेके गये, जिनका रंग गुलाबी थी, उस पर लिखा था बहरों को सुनाने के लिये धमाके की जरुरत होती है।

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कैसे शुरु हुई थी भूख हड़ताल
पहले से तय प्लान के अनुसार भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने सेंट्रल असेंबली में ही अपनी गिरफ्तारी दी, इस केस में दम नहीं था, लेकिन ब्रिटिश शासन किसी कीमत पर क्रांतिकारियों को छोड़ना नहीं चाहती थी, पुलिस पहले ही लाहौर षडयंत्र मामले यानी सांडर्स हत्या केस में भगत सिंह और उनके साथियों को तलाश रही थी, बम कांड के बाद वो खुद ही जेल पहुंच गये, कुछ दिनों बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को दिल्ली जेल से लाहौर ले जाया गया, इसी केस में गिरफ्तार जतिन दास को भी कलकत्ता से लाहौर लाया गया, हालांकि पुलिस 18 दिन की रिमांड के बाद भी जतिन के खिलाफ सबूत पेश नहीं कर पाई, कोर्ट ने उन्हें अंतरिम जमानत भी दे दी, फिर रातों-रात विशेष न्यायधीश ने इस फैसले को पलटते हुए जमानत देने से मना कर दिया। लाहौर जेल में राजनीतिक कैदियों की हालत खराब थी, भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने राजनीतिक कैदियों के लिये अच्छा खाना, पढने के लिये अखबार, शौच की व्यवस्था, अच्छे कपड़े की मांग को लेकर भूख हड़ताल शुरु की, अपने साथियों के समर्थन में जतिन दास समेत कुछ और लोग भूख हड़ताल पर बैठ गये। पहले तो अंग्रेजों ने इस हड़ताल को गंभीरता से नहीं लिया, लेकिन 11वें दिन जब कुछ क्रांतिकारियों की तबीयत बिगड़ी, तो डॉक्टरों और सिपाहियों के एक दल ने उन्हें जबरदस्ती खाना खिलाना शुरु किया, क्रांतिकारियों के हाथ-पैर बांधकर उन्हें तरह-तरह से यातना देकर खाना खिलाने की कोशिश की जाती रही, इसी क्रम में जेल अधिकारियों ने जतिन दास की नाक में रबर की नली डालकर दूध पिलाने की कोशिश की, जतिन दास ने इसका विरोध किया, जबरदस्ती और हाथापाई के बीच नली पेट की जगह फेफड़े में चली गई, लापरवाही पूर्वक करीब 1 लीटर दूध जतिन के फेफड़े में भर दिया गया।

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मांग पर अड़े रहे
इसके बाद जतिन दास की तबीयत बिगड़ती चली गई, हालांकि उन्होने इलाज कराने और गवा लेने से मना कर दिया था, वो अपनी मांग पर अड़े रहे, उधर अंग्रेज भी किसी भी मांग को ना मानने को लेकर अडिग थे, अंग्रेजों ने जतिन का ध्यान रखने के लिये उनके भाई किरणचंद्र दास को जेल में बुलाया था, हालांकि इसका कोई फायदा नहीं हुआ, 63 दिन की लंबी भूख हड़ताल के बाद जतिन दास की मौत हो गई, भगत सिंह से पहले ही जतिन अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ लड़ते हुए कुर्बान हो गये, इस ऐतिहासिक भूख हड़ताल ने अंग्रेजों के राज में भारतीय कैदियों पर हो रहे जुल्म और अत्याचार का पर्दाफाश किया, जतिन दास की शहादत की वजह से भविष्य में अंग्रेजों को राजनीतिक कैदियों के प्रति अपने रवैये को बदलना पड़ा।