गोरखपुर की त्रासदी पर बोला बहुत गया है, शायद उतना सोचा नही गया !

गोरखपुर प्रकरण सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की इस दुर्दशा का एक छोटा सा नमूना है। इस हालात से मुक्ति तभी मिलेगी जब स्वास्थ्य के मुद्दे का राजनीतिकरण होगा।

New Delhi, Aug 17 : आओ बच्चों तुम्हे दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की…” । स्वतंत्रता दिवस पर रेडियो गाना बजा रहा था। मेरा मन बार-बार गोरखपुर के उन बच्चों की तरफ जा रहा था जो हिंदुस्तान की झांकी देखे बिना ही विदा हो गए। बिना इस मिट्टी से तिलक किये, बस ऑक्सीजन की कमी से दम तोड़ गए। ये धरती है बलिदान की ! मैं सोचने लगा। काश स्वास्थ्य के मुद्दे पर राजनीति होती ! काश सरकारी अस्पतालों और स्वास्थ्य विभाग के सामने धरने प्रर्दशन होते ! काश संसद और विधानसभाओं में स्वास्थ्य बजट और परियोजनाओं पर हंगामे होते ! अगर ये सब होता तो गोरखपुर की “दुर्घटना” न होती।

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गोरखपुर की त्रासदी पर बोला बहुत गया है, शायद उतना सोच नही गया। चूंकि यह दुर्घटना योगी आदित्यनाथ के गोरखपुर में हुई, इसलिए सब योगी , भाजपा और उत्तरप्रदेश सरकार पर पिल पड़े हैं। बेशक उनकी लापरवाही अक्षम्य है, लेकिन सच यह है कि ऐसी दुर्घटना देश के अधिकांश सरकारी अस्पतालों में कहीं भी हो सकती है। यूं भी यह दुर्घटना तो एक बड़ी बीमारी का छोटा सा लक्षण है। अगर गोरखपुर से सबक लेना है तो सिर्फ उत्तरप्रदेश की योगी सरकार तक चर्चा को सीमित करने की बजाय देश के सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की दुर्दशा पर विचार करना होगा। डॉक्टर की फीस और अस्पताल के बिल का खतरा आज देश के हर साधारण परिवार के सर पर तलवार की तरह मंडरा रहा है। घर परिवार में एक बड़ी बीमारी होने से बहुत से परिवारों की कमर टूट जाती है। शोधकर्ता बताते हैं कि गरीबी रेखा के ऊपर जीवन बसर करने वाले परिवारों का गरीबी रेखा से नीचे गिरने का सबसे बड़ा कारण है परिवार में कोई बड़ी बीमारी। सरकार न तो सस्ता और अच्छा इलाज करवा पा रही है, न ही प्राइवेट ईलाज में लोगो की मदद कर पा रही है। जिंदगी और मौत की लड़ाई में गरीब परिवार ही नही, खुशहाल परिवार भी अकेला है, बेबस है |

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आजादी के बाद से एक औसत भारतीय की सेहत में सुधार हुआ है। 1947 से अबतक औसत आयु 32 से बढ़कर लगभग 68 साल हो गयी है। शिशु मृत्यु दर 146 प्रति हज़ार से घटकर 40 प्रति हजार हो गयी है। प्रसव के दौरान माँ की मृत्यु दर पहले से बहुत घटी है |
इसमें भी कोई शक नही कि स्वास्थ्य सुविधाएं पहले से बहुत बढ़ी हैं। डॉक्टर और अस्पतालों की संख्या दस गुना से ज़्यादा बढ़ी है, हालांकि अब भी जरूरत से बहुत कम है। दवाओं के उत्पादन और मेडिकल जांच परीक्षण की सुविधाओं में भी विस्तार हुआ है। सरकार अक्सर इन आंकड़ों का गाजा बाजा कर अपनी पीठ थपथपा लेती है।
लेकिन यह अर्द्धसत्य है। पूरा सच यह है कि औसत आयु बढ़ने और चिकित्सा सुविधाओं के विस्तार से लोगों की दुख तकलीफ कम नही हुई है, बल्कि बढ़ गयी है। औसत आयु बढ़ने और जन्म से कमजोर बच्चों के बचने से चिकित्सा सुविधाओं की जरूरत पहले से ज्यादा बढ़ गयी है। रोटी कपड़ा और मकान की बुनियादी जरूरत पूरी होते ही शिक्षा और स्वास्थ्य जीवन की अनिवार्यता बन जाते हैं। स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धि से भी रोगों का इलाज करवाने की इच्छा और मजबूरी पैदा होती है। यानी कि सेहत और आर्थिक स्थिति बेहतर होने से अच्छी और सस्ती स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरत घटती नही, बढ़ जाती है ।

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इस जरूरत को पूरा करने के लिए सरकार को बड़े पैमाने पर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा का विस्तार करना चाहिए था। लेकिन ऐसा हुआ नहीं, पिछले कई दशकों से यह मांग चली आ रही है कि सरकार सकल घरेलू उत्पाद ( GDP ) का कम से कम 3% स्वास्थ्य पर खर्च करे। लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों का स्वास्थ्य परकुल खर्च GDP के 1% के करीब अटका हुआ है। नवीनतम आंकड़ो के हिसाब से हमारे यहां सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था पर GDP का सिर्फ 1.2% खर्च होता है, जबकि चीन में 2.9%, ब्राजील में 4.1%, ब्रिटेन में 7.8%, और अमरीका जैसे पूंजीवादी देश मे 8.5% है। कड़वा यथार्थ यह है कि आज भी हमारी सरकार स्वाथ्य सेवा पर जितना कम से कम खर्च करना चाहिए उसका भी एक तिहाई खर्च कर रही है।
स्वास्थ्य सेवाओं के बढ़ती जरूरत लेकिन सरकार की कंजूसी का एक ही नतीजा है – स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण हो रहा है। महानगर से लेकर कस्बे तक चारो ओर नए नए अस्पताल और क्लिनिक कुकरमुत्ते की तरह उग आए हैं। सरकार के अपने आंकड़े बताते है कि गाँव के 72% मरीज और शहर के 79% मरीज़ इलाज के लिए अब प्राइवेट डॉक्टर के पास जाते हैं। गंभीर बीमारी में भी गाँव के 58% मरीज और शहर के 68% अब प्राइवेट अस्पताल में भर्ती होते हैं। पिछले कुछ सालों से अर्थव्यवस्था भले ही मंद पड़ी हो, लेकिन प्राइवेट अस्पतालों के धंधा खूब फल-फूल रहा है। प्राइवेट अस्पताल मनमानी फीस ले रहे हैं। एक औसत भारतीय परिवार के कुल खर्च का 7% हिस्सा बीमारी के इलाज में लग जाता है। नित नए टेस्ट, सर्जरी और “सुविधाएं” आ रही हैं, प्राइवेट अस्पतालों के बिल बढ़ते जा रहे हैं। सरकार द्वारा या अपने पैसे से मेडिकल बीमा की सुविधा सिर्फ 18% जनता तक पहुंच पाई है, बाकी सब भगवान भरोसे है।

गोरखपुर प्रकरण सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की इस दुर्दशा का एक छोटा सा नमूना है। इस हालात से मुक्ति तभी मिलेगी जब स्वास्थ्य के मुद्दे का राजनीतिकरण होगा। यह सुझाव सुनकर बहुत लोगो को हैरानी होगी। हमने राजनीति और राजनीतिकरण को इतना बुरा शब्द बना दिया है कि हम उसमे हर समस्या के जड़ को देखते है, समस्या का समाधान नही। अगर ध्यान से देखे तो पाएंगे कि जब किसी मुद्दे का राजनीतिकरण होता है , जब नेता को उस मुद्दे पर चुनाव हारने का डर लगता है तो सरकारें उस पर ध्यान देने को मजबूर होती है। समस्या पूरी न सुलझे, तो भी कुछ काम होता है।  भुखमरी और मंहगाई राजनीतिक मुद्दा बना तो देश भर मेंराशन की दुकानें खुली। कुछ साल पहले बिजली और सड़क चुनाव के मुद्दे बने तो इन दोनों की स्थिति देश भर में सुधरी। पंजाब, महाराष्ट्र और कर्नाटक के किसानों ने अपनी आवाज राजनीति में उठाई तो इन राज्यों में सरकारी नीतियां अपेक्षा कृत बेहतर हुई। इसलिए राजनीतिकरण से बचने की बजाय हर बड़े सवाल को राजनीति में उठाने की जरूरत है। जबतक महिलाओं के खिलाफ हिंसा, सरकारी स्कूल में शिक्षा और सरकारी अस्पताल में इलाज का सवाल राजनैतिक मुद्दा नही बनेगा तबतक सरकारें उदासीन बनी रहेंगी, हालात जस के तस बने रहेंगे, गोरखपुर त्रासदी बार बार होती रहेगी।
अचानक मैने गौर किया, रेडियो पर नया गीत बज रहा था – “इंसाफ की डगर पे बच्चों दिखाओ चल के, ये देश है तुम्हारा नेता तुम्ही हो कल के”

(स्वराज इंडिया के संयोजक योगेन्द्र यादव के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)