तीन तलाक़ तो बंद हुआ, लेकिन तीन सवाल बने रहे !

देर सवेर तीन तलाक को खारिज होना ही था, सो हो गया। लेकिन मुझ जैसे लोगों को इस फैसले से तीन बड़ी उम्मीदें थीं।

New Delhi, Aug 26 : तीन तलाक़ पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर मेरा मन आशा-निराशा में झूलता रहा। तीन तलाक़ की प्रथा मानवीयता, संविधान और इस्लाम तीनो के विरुद्ध है। इसलिए सुबह से मना रहा था कि कोर्ट इस सवाल पर ऐसा फैसला दे जो तीन तलाक़ का दरवाज़ा तो बंद करे ही, साथ में व्यापक सामाजिक और राजनैतिक सुधार का दरवाज़ा खोल भी दे। पहले जब खबर आई कि कोर्ट ने इस गेंद को संसद के पाले में डाल दिया है तो बहुत मायूसी हुई। कुछ मिनट बाद खबर आयी कि वो तो जस्टिस खेहर और जस्टिस नज़ीर अल्पमत था और बाकी तीन जजों ने तीन तलाक़ को गैर-कानूनी बताया है। तब जाकर कुछ राहत मिली। लेकिन जब पूरा फैसला पढ़ा तो जवाब से ज्यादा सवाल खड़े हो गए, बस एक छोटी से आशा बनी।

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देर सवेर तीन तलाक को खारिज होना ही था, सो हो गया। लेकिन मुझ जैसे लोगों को इस फैसले से तीन बड़ी उम्मीदें थीं। एक, इससे तीन तलाक़ ही नहीं, देश में तमाम महिला विरोधी धार्मिक-सामाजिक कुरीतियों को अमान्य करने का रास्ता खुलेगा। दो, इस बहाने मुस्लिम समाज में सुधार तेज होगा और मुसलमान अपने कठमुल्ला नेतृत्व से मुक्त होगा। तीन, कानूनी धक्के से सेक्युलर राजनीति अपने पाखंड से मुक्त होगी। लेकिन इस फैसले से कोई एक उम्मीद भी पूरी नहीं होती।
तीन तलाक की प्रथा मुख्यत एक प्रतीकात्मक सवाल है। संख्या की दृष्टि से देखें तो एक ही साँस में तलाक-तलाक-तलाक कहकर संबंध विच्छेद करने की घटनाएं इनि-गिनी ही होती हैं। फिर भी शादी जैसे संबंध को तोड़ने का इतना अतार्किक और अमानवीय तरीका इस प्रथा को एक महत्वपूर्ण मुद्दा बनाता है। व्यवहार में यह हो या न हो, इसका डर एक औरत के सर पर तलवार की तरह लटका रहता है। वैसे मुस्लिम समाज में इस प्रथा को अच्छी निगाह से नही देखा जाता। कुरान शरीफ़ में तलाक के इस स्वरूप का कहीं जिक्र नही है। पैगम्बर के बाद बनी मुस्लिम आचार व्यवहार की आदर्श संहिता यानी शरिया ने इसे वैधता जरूर दी, लेकिन एक आदर्श के रूप में नही। यूं भी ऐसी नारी विरोधी प्रथा हमारे संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। इसलिए कभी न कभी इस प्रथा को कानूनी रूप से अवैध घोषित होना ही था। सवाल यही था कि कितनी जल्दी होगा, इसे कोर्ट कचहरी करेगा या कि संसद, और इसे किस आधार पर खारिज किया जाएगा।

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इस लिहाज से सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ का फैसला बहुत कमजोर फैसला है। उम्मीद यह थी कि सर्वोच्च न्यायालय एक राय से बुलंद आवाज में बोलेगा, लेकिन फैसला सिर्फ तीन-दो के बहुमत से आया। जिन तीन जजों ने इस प्रथा को गैर कानूनी बताया वो भी असमंजस का शिकार दिखे। सिर्फ दो जजों, जस्टिस नारीमन और जस्टिस ललित, ने कहा कि संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले पारिवारिक कानून और प्रथाएं गैर कानूनी मानी जाएंगी। बाकी तीन जजों ने कहा कि शादी और तलाक के अलग-अलग धर्म के कानूनों को संविधान के मौलिक अधिकार की कसौटी पर नही कसा जा सकता। संयोग से उनमे से एक जज (जस्टिस जोसिफ़) ने तीन तलाक को इस आधार पर अवैध माना कि वह कुरान शरीफ के अनुसार नही है। अगर जस्टिस जोसिफ़ भी जस्टिस खेहर और जस्टिस नज़ीर का यह तर्क मान लेते की तीन तलाक एक पुरानी और मान्य प्रथा है तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलट जाता। इसीलिए यह सामजिक सुधार के लिए कोई बड़ी या शानदार जीत नही है। बस यूं समझिए कि बाल-बाल बच गए। एक मायने में इस फैसले ने नारी विरोधी सामाजिक प्रथा के खिलाफ कानूनी लड़ाई को पहले से भी मुश्किल बना दिया है। तीन तलाक तो अवैध हो गया, लेकिन सभी धर्मों में ऐसी अनेक महिला विरोधी प्रथाएं हैं जिन्हें रोकने की जरूरत है। आशा की किरण दिखाने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट का फैसला इन सबके विरुद्ध संघर्ष करने वालों को सहारा नहीं देता।

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यह फैसला मुस्लिम समाज और उसके नेतृत्व में जरूरी बदलाव की शुरुआत भी नहीं करता। आज भारत के मुसलमान की सबसे बड़ी समस्या उनके धार्मिक अधिकार नहीं है। आज एक औसत मुसलमान अच्छी शिक्षा के अवसरों से वंचित है, नौकरी में भेदभाव का शिकार है और शहरों में भी मुस्लिम इलाकों में रहने को अभिशप्त है। आज से ग्यारह साल पहले सच्चर समिति ने इस सच्चाई की ओर हमारी आंखें खोली थी। पिछले ग्यारह साल में इन सब क्षेत्रो में मुसलमानों की हालत पहले से और बिगड़ी है। लेकिन मुस्लिम समाज का कठमुल्ला नेतृत्व इन सवालों को उठाने की बजाए सिर्फ ऐसे धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान के सवालों को उठाता है जिससे औसत मुसलमान की भावनाओं को भड़काया जा सके। तीन तलाक जैसी कुप्रथा का समर्थन करना मुस्लिम नेतृत्व के दिवालियेपन का सबूत है।

आज के माहौल में मुस्लिम समुदाय से इस नेतृत्वको को चुनौती देने की उम्मीद करना मुश्किल है। आज एक औसत मुसलमान दहशत में जी रहा है। कभी गौहत्या, कभी गौमांस, कभी वंदेमातरम तो कभी आतंकवाद — किसी न किसी बहाने आज मुसलमान निशाने पर है। जान-माल की हिफाजत फिर मुसलमान के लिए सबसे बड़ा सवाल बन गया है। ऐसे खौफज़दा समाज से अपनी गिरेबां में झांकने और नेतृत्व को चुनौती देने की उम्मीद नही की जा सकती। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से इस मामले में कोई मदद नही मिलती। जब सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के पक्ष में नरेंद्र मोदी बोलते हैं और अमित शाह प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हैं तो एक साधारण मुसलमान के मन मे शक और डर पैदा हो जाता है।बस इतना जरूर हुआ है कि स्वर्गीय हमीद दलवई के नेतृत्व में शुरू हुए संघर्ष और भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन जैसे हिम्मती संगठनों को कुछ ताकत मिल गया है। इसीसे कुछ उम्मीद बनती है।

तो क्या सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला देश की सेक्युलर राजनीति का चरित्र बदलेगा? अगर सुप्रीम कोर्ट बुलंद आवाज में कहता कि संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ कोई सामाजिक धार्मिक प्रथा मान्य नही होगी, तो सेक्युलर राजनीति की हिम्मत भी बढ़ती। हो सकता था कि वे समान नागरिक संहिता के पक्ष में बोलने की हिम्मत जुटा पातीं। लेकिन अगर कोर्ट की चारदीवारी में सुरक्षित जज भी असमंजस में हैं, तो सड़क पर वोट ढूंढते राजनेता से क्या उम्मीद की जाए? फिर भी एक उम्मीद बनती है क्योंकि लकीर के फकीर बने रहने की बजाय ज्यादातर “सेक्युलर” पार्टियों ने इस फैसले का समर्थन किया है। यहां गौरतलब है कि इस फैसले से पहले इन अधिकांश पार्टियों ने खुलकर तीन तलाक के खिलाफ बोलने की हिम्मत नही दिखाई थी। सच यह है कि अपने आप को सेक्युलर कहने वाली ये पार्टियां मुस्लिम वोट के लालच में कठमुल्ला मुस्लिम नेतृत्व की गिरफ्त में रही हैं। तीस साल पहले शाहबानो वाले मामले में घुटने टेक देने वाली यह राजनीति का रुख शायरबानो के इस नवीनतम मामले मे कुछ सुधरा तो है। यही एक छोटी सी आशा है।

(स्वराज इंडिया के संयोजक योगेन्द्र यादव के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)