वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी !

पानी आया भी तो कुछ ही देर या कुछ ही दिनों में उतर जाता था। प्रकृति-चक्र तेजी से बदला है। वैसी बारिश अब नहीं होती।

New Delhi, Aug 30 : अभी मुंबई में दो दिनों की बरसात के बाद शहर में पानी से आई आफत की ख़बरें देख रहा हूं। आए दिन किसी न किसी शहर में जमा पानी और उससे जनजीवन को होने वाली परेशानियों की खबरें देखने-सुनने को मिल ही जाती है। अपने बचपन के दिन याद करिए जब सावन-भादो की बारिश शुरू होती थी तो दिनों-दिनों तक रुकने का नाम नहीं लेती थी। सड़क और खेत पानी-पानी। खपड़ैल का घर टपकता था और रात अपनी खाट घर के इस कोने से उस कोने तक खिसकाने में बीत जाती थी।

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बारिश या बाढ़ का पानी घरों में घुस गया तब भी बदहवासी नहीं। घुटने भर पानी में छप्पा-छप्पा खेल लिया या कागज़ की कश्ती चला ली। प्रकृति का सहज स्वीकार हुआ करता था तब। Mumbai Rainबारिश और बाढ़ का पानी ख़ुद में समेट लेने के लिए हर गांव-शहर में बड़े-बड़े तालाब और जलाशय होते थे और गहरे-गहरे कुएं भी।

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पानी आया भी तो कुछ ही देर या कुछ ही दिनों में उतर जाता था। प्रकृति-चक्र तेजी से बदला है। वैसी बारिश अब नहीं होती। शहरों और गांवों में आधे घंटे की बारिश हुई नहीं कि लोगों में हाहाकार और मीडिया में आतंक मच जाता है। जैसे बारिश और बाढ़ अपनी सृष्टि के पुनर्निर्माण की ज़रूरी प्रक्रिया और आनंद का सबब नहीं, क़हर है, आफ़त है, प्रलय है। प्रकृति से लड़ते-लड़ते प्रकृति से कितने दूर होते चले गए हैं हम ? सृष्टि है तो बारिश भी होगी। नदियां हैं तो बाढ़ भी आएंगी। बारिश और बाढ़ अपने साथ पृथ्वी को नए सिरे से गढ़ने का संकल्प लेकर आती हैं।

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अपने योजनाविहीन शहरों और गांवों के निर्माण, जल-निकासी की कुव्यवस्था, कंक्रीट के जंगल उगाने के लिए असंख्य तालाबों और जलाशयों की हत्या, और नदियों पर असंख्य डैम और बांध बनाकर हमने प्रकृति से युद्ध छेड़ा हुआ है। mumbai-rains-1प्रकृति से सामंजस्य की जगह उसे अपने इशारों पर नचाने की हमारी मूर्खतापूर्ण कोशिशें हमें जहां तक ले आई हैं, क्या वहां से वापसी के तरीके सोचने का वक़्त नहीं आ गया है ?

(Dhurv Gupt के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)