नेताओं से ज्यादा अफसरों पर दांव !

क्रूशियल मौके पर राजनेता अधिक बेहतर तरीके से पब्लिक को समझा लेता है जबकि अफसर सिवाय फ़ाइल गोड़ने के कुछ नहीं कर पता।

New Delhi, Sep 06 : प्रधानमंत्री को अफसरों और नौकरशाहों पर भरोसा है. लेकिन मेरा निजी अनुभव है कि क्रूशियल मौके पर राजनेता अधिक बेहतर तरीके से पब्लिक को समझा लेता है जबकि अफसर सिवाय फ़ाइल गोड़ने के कुछ नहीं कर पता. दो उदहारण मैं पेश कर रहा हूँ.
“यह बात 2011 की है. उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार थी. ज़िला गौतमबुद्ध नगर के भट्टा पारसौल नाम के गाँव में किसानों का आन्दोलन चल रहा था. ज़मीन अधिग्रहण का उचित मुआवजा न मिलने के कारण किसान आन्दोलन कर रहे थे और उन्होंने प्रदेश सरकार को अपनी ज़मीन देने से मना कर दिया था।

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पुलिस ने दमन किया, फायरिंग की और लाठियां भांजीं इससे कुछ किसान मारे भी गए और कुछ लापता हो गए. तब मैं अमर उजाला के दिल्ली संस्करण का सम्पादक था. एक दिन रिपोर्ट लेने मैं खुद वहां गया. जब मैं वहां पहुंचा तो देखा कि पीएसी के तीन जवानों को किसान घेरे हैं और उन्हें फूंक देने की बातें कर रहे हैं. गाँव के बाहर की तरफ पुलिस के आला अधिकारी और जवान डेरा डाले हैं पर उनकी हिम्मत गाँव में घुसने की नहीं पड़ रही थी. यह सोचा जा रहा कि दूसरे जिलों से और पुलिस बल मंगाया जाए लेकिन तब तक उन जवानों को आग में झोंक देने की आशंका थी. हम पत्रकार भी डर रहे थे कि कहीं किसानों ने ऐसा कुछ कर दिया तो बाद में पुलिस भीषण नंगनाच तो करेगी ही, हम पत्रकारों को भी लपेटे में लेगी.

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संयोग से उसी दिन गाँव में आन्दोलन कर रहे किसानों का मनोबल बढ़ाने जदयू नेता शरद यादव भी वहीं थे और गाँव के बाहर किसानों की सभा को एड्रेस कर रहे थे. मैं लपक कर उनके पास गया और उनसे अनुरोध किया कि शरद जी आप कुछ करिए वर्ना बड़ा अनर्थ हो जाएगा और हिंसा बढ़ेगी. शरद जी खुद गाँव के अंदर जाने लगे तो पुलिस ने उन्हें रोक दिया लेकिन उन्होंने उन्हें झिड़क दिया और गाँव के अंदर उस जगह गए जहाँ गाँव वाले उन तीनों सिपाहियों को घेरे हुए थे. उन्होंने जाते ही कहा कि अच्छा पुलिस वाले अब फँस गए! सिपाहियों ने कातर दृष्टि से उनकी तरफ देखा तो वे बोले- कौन हो भाई तुम लोग. उन तीनों में एक अलीगढ़ का, एक बुलन्दशहर जिले का तीसरा गौतमबुद्ध नगर जिले का ही रहने वाला था. शरद जी ने कहा कि गाँव वालों का गुस्सा तो स्वाभाविक है, अब क्या किया जाए! सिपाहियों को लगा कि मानों जीवन की आखिरी डोर भी टूट गई. उनके आँखों से आंसू बह रहे थे और वे गाँव वालों से गिड़गिड़ा रहे थे. तभी शरद जी ने पूछा तुम्हारे परिवार वाले क्या करते हैं? सब ने कहा किसानी. अब शरद जी ने गाँव वालों से कहा कि ये किसान के ही बेटे हैं, पुलिस में नहीं जाते तो किसानी करते. पर पुलिस में जाकर तो वही करेंगे जो ऊपर के अफसर, नेता-मंत्री कहेंगे. अब गाँववाले नरम पड़े तो शरद जी ने फिर कहा कि यह हमारे किसानों की समस्या है कि उनके बेटे या तो फौज में जाते हैं अथवा पुलिस में. और सब जगह जाकर जवान ही बनते हैं. क्योंकि पढ़ाई उनकी हो नहीं पाती और किसानी के अलावा और कोई काम उन्हें आता नहीं इसलिए वे बस अफसरों और मंत्रियों का हुक्म बजाने चले जाते हैं. अब तुम लोग अगर इनको मार दोगे तो समझ लो अपने ही भाईयों को मार दिया. शरद जी की इस बात का असर पड़ा और सारा दृश्य ही बदल गया जो गाँव वाले कुछ देर पहले उनकी जान के दुश्मन बने थे वही अब उनकी आवभगत में लगे थे. तब मुझे लगा था कि जनता को सिर्फ नेता ही समझ सकता है उसको समझना अफसर के बूते का नहीं.

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अब एक नज़र अफसरों की कार्यकुशलता पर भी डाल ली जाए. कहते हैं कि एक बार किसी आला अफसर के सहायक ने आकर बताया कि सर अमुक ठेकेदार ने अपनी फ़ाइल चलवाने के लिए तगड़ी रक़म देने की पेशकश की है. अफसर ने फ़ाइल मगाई और उस पर अप्रूव्ड लिख कर ओके कर दिया. कुछ दिनों बाद उसी सहायक ने आकर बताया कि सर वह ठेकेदार अब अपने वायदे से मुकर गया है क्योंकि वह जान गया है कि फ़ाइल अब ओके हो चुकी है. अफसर ने फिर फ़ाइल मंगाई और उस पर एप्रूव्ड के पहले नॉट लिख दिया. यानी नॉट एप्रूव्ड. ठेकेदार को पता चला तो वह भागा-भागा आया और अफसर के सहायक को पूरी रकम दे गया. सहायक ने यह सूचना अफसर को दी. अफसर ने फिर फ़ाइल मंगाई और उस नॉट के बाद ई अक्षर और जोड़ दिया. इस तरह वह अब नॉट एप्रूव्ड की बजाय नोट अप्रूव्ड हो गई और उस ठेकेदार का काम हो गया.”

(वरिष्ठ पत्रकार शंभुनाथ शुक्ला के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)