इस तरह तो पैरों के नीचे से खिसक जाएगी जमीन !

इसरो का एक शोध बताता है कि थार रेगिस्तान अब राजस्थान से बाहर निकलकर कई राज्यों में जड़ जमा रहा है। रेगिस्तान बनने का खतरा उन जगहों पर ज्यादा है, जहां पहले उपजाऊ जमीन थी।

New Delhi, Sep 17 : जलवायु परिवर्तन, बढ़ती आबादी और खेती के अलाभकारी कर्म से जहां आम लोगों व मवेशियों के लिए खाने का संकट बढ़ रहा है, वहीं ये बेरोजगारी, अनियोजित शहरीकरण और पलायन का भी कारण बन रहे हैं। देश के सामने दबे पांव आ रही इस भीषण चुनौती की असली वजह है कि हम बेशकीमती भूमि खोते जा रहे हैं। नदियों व समुद्र के प्रवाह में जमीन का क्षरण हो रहा है, तो अंधाधुंध रसायनों के इस्तेमाल व जंगल उजड़ने से साल-दर-साल बंजर जमीन व रेगिस्तान का विस्तार हो रहा है।

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विकास, आर्थिक संपन्नता, सभी को आवास, बिजली, बेहतर परिवहन आदि तभी तक सार्थक हैं, जब तक हमारे पास जमीनें हैं। उर्वर जमीन गई, तो यह किसी कारखाने में न तो बन सकती है, न ही इसका आयात हो सकता है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में 2,42,02,000 हेक्टेयर भूमि है, जिसमें से शुद्ध बुआई वाला (यानी जहां खेती होती है) रकवा 1,68,12,000 हेक्टेयर है। यह कुल जमीन का 69.़5 फीसदी है। जाहिर है, राज्य के लोगों की जीविका का सबसे बड़ा जरिया खेती ही है। राज्य में कोई ढाई फीसदी जमीन ऊसर या खेती के लायक नहीं है। यहां 53 प्रतिशत आबादी किसान है और 20 प्रतिशत खेतिहर मजदूर। यानी लगभग तीन-चौथाई आबादी इसी जमीन से अन्न जुटाती है। एक बात और गौर करने लायक है कि 1970-1990 के दो दशकों के दौरान राज्य में नेट बोया गया क्षेत्रफल 173 लाख हेक्टेयर स्थिर रहने के पश्चात अब लगातार कम हो रहा है।

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भारत सरकार के पर्यावरण व वन मंत्रलय के लिए इसरो द्वारा रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट से हाल ही में किए गए एक सर्वे की रिपोर्ट बताती है कि बीते आठ वर्षो में झारखंड जैसे छोटे, लेकिन हरे-भरे राज्य में करीब 80 हजार हेक्टेयर जमीन बंजर हो गई। इसका सबसे बड़ा कारण भूमि कटाव है। राज्य में 23 लाख हेक्टेयर जमीन यदि सघन वनाच्छादित नहीं की गई, तो जल्द ही वहां कटाव और बंजर का साम्राज्य होगा। मरुस्थलीकरण का संकट दुनिया के सामने बेहद चुपचाप, पर खतरनाक तरीके से बढ़ रहा है। इसकी चपेट में आए इलाकों में लगभग आधे अफ्रीका व एक-तिहाई एशिया के देश हैं। यहां बढ़ती आबादी के भोजन, आवास, विकास आदि के लिए बेतहाशा जंगल उजाड़े गए हैं। नवधनाढय़ वर्ग ने वातानुकूलन जैसी सुविधाओं का ऐसा इस्तेमाल किया कि ओजोन परत का छेद और बढ़ गया। याद करें कि सत्तर के दशक में अफ्रीका के साहेल इलाके में भयानक अकाल पड़ा था, तभी संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों ने चेताया था कि लगातार बंजर हो रही जमीन के प्रति बेपरवाही रेत के अंबार को न्योता दे रही है। उस समय कुछ ऐसी सिंचाई प्रणालियां शुरू हुईं, जिनसे एकबारगी तो हरियाली आती लगी, पर तीन दशक के बाद वे परियोजनाएं भी बंजर, दलदली जमीन बनाने लगीं। ऐसी ही जमीन, जिसकी ‘टॉप सॉइल’ मर जाती है, और देखते-देखते मरुस्थल बन जाती है।

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जाहिर है, रेगिस्तान बनने का खतरा उन जगहों पर ज्यादा है, जहां पहले उपजाऊ जमीन थी और अंधाधुंध खेती, भूजल दोहन या सिंचाई के कारण उसकी उर्वरा शक्ति खत्म हो गई। दीगर है कि धरती के महज सात फीसदी इलाके में मरुस्थल है, पर खेती में काम आने वाली लगभग 35 प्रतिशत जमीन ऐसी भी है, जो शुष्क कहलाती है और यही खतरे का केंद्र है। बेहद हौले से विस्तार पा रहे रेगिस्तान का सबसे ज्यादा असर एशिया में ही है। इसरो का एक शोध बताता है कि थार रेगिस्तान अब राजस्थान से बाहर निकलकर कई राज्यों में अपनी जड़ें जमा रहा है। हमारे 32 प्रतिशत भूभाग की उर्वर क्षमता कम हो रही है, जिसमें से महज 24 फीसदी ही थार के इर्द-गिर्द के इलाके हैं।आज जब पृथ्वी पर जनसंख्या विस्फोट की स्थिति है, लोगों के रहने, उनका पेट भरने के लिए खाद्य पदार्थ उगाने, विकास से उपजे पर्यावरणीय संकट से जूझने के लिए हरियाली की जरूरत लगातार बढ़ रही है, तो धरती का मातृत्व गुण दिनोंदिन चुकता जा रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि मानव सभ्यता के लिए यह संकट स्वयं मानव द्वारा कथित प्रगति की दौड़ में उपजाया जा रहा है। जिस देश की बड़ी आबादी का मूल आधार कृषि हो, वहां एक तिहाई भूमि का बंजर होना काफी गंभीर मामला है।

(वरिष्ठ पत्रकार पंकज चतुर्वेदी के ब्लॉग से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)