नवरात्र का कर्मकांड !

नवरात्र  : स्त्री-शक्ति के सांकेतिक रूप आज हमारे आराध्य बन बैठे और जिस स्त्री के सम्मान के लिए ये तमाम प्रतीक गढ़े गए, वह पुरूष अहंकार के पैरों तले आज भी रौंदी जा रही हैं।

New Delhi, Sep 20 : स्त्री-शक्ति के प्रति सम्मान के नौ दिवसीय पर्व शारदीय नवरात्र का आरम्भ हो रहा है। यह अवसर है नमन करने का उस सृजनात्मक शक्ति को जिसे ईश्वर ने स्त्रियों को सौंपा है। उस अथाह प्यार, ममता और करुणा को जो कभी मां के रूप में व्यक्त होता है, कभी बहन, कभी बेटी, कभी मित्र, कभी प्रिया और कभी पत्नी के रूप में। दुर्गा पूजा, गौरी पूजा और काली पूजा वस्तुतः स्त्री-शक्ति के तीन विभिन्न आयामों के सम्मान के प्रतीकात्मक आयोजन हैं।

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काली स्त्री का आदिम, अनगढ़ और अनियंत्रित स्वरुप है जिसे काबू करना पुरुष अहंकार के बस की बात नहीं। गौरी या पार्वती स्त्री का सामाजिक तौर पर नियंत्रित, गृहस्थ, ममतालु रूप है जो सृष्टि का जनन भी करती है और पालन भी। दुर्गा स्त्री के आदिम और गृहस्थ रूपों के बीच की वह स्थिति है जो परिस्थितियों के अनुरुप करूणामयी भी है और संहारक भी। नवरात्र के हर दिन पूजी जाने वाली नौ देवियां सृष्टि-प्रक्रिया के नौ महीनों में स्त्री की जटिल शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्थितियों के नौ सांकेतिक रूप हैं। संदेश यह है कि सृष्टि प्रक्रिया के इन नौ चरणों में स्त्री की हर मनोदशा सम्मान के योग्य है।

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यह विडंबना है कि स्त्री-शक्ति के सांकेतिक रूप आज हमारे आराध्य बन बैठे और जिस स्त्री के सम्मान के लिए ये तमाम प्रतीक गढ़े गए, वह पुरूष अहंकार के पैरों तले आज भी रौंदी जा रही हैं। जिस देश में सूअर, मगरमच्छ, उल्लूओ, बैलों और चूहों तक को देवताओं के अवतार और वाहन का दर्जा प्राप्त है, उस देश में स्त्रियों को सिर्फ इसलिए गर्भ में मार दिया जाता है कि वह कुल का दीपक नहीं, ज़िम्मेदारी है। उसे इसलिए जिन्दा जला दिया जाता है कि वह दहेज़ की पर्याप्त रकम साथ लेकर नहीं आईं। उसे इसलिए अपमानित किया जाता है कि उसने अपनी पसंद के कपडे पहन रखे हैं। उसे महज इसलिए रौंद डाला जाता है कि उसने घर की दहलीज़ से बाहर क़दम रखने की कोशिश की।

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स्त्रियों के प्रति हमारे विचारों और कर्म में यह विरोधाभास हमेशा से हमारी संस्कृति का बड़ा संकट रहा है। स्त्री एक साथ स्वर्ग की सीढ़ी भी रही है और नर्क का द्वार भी। घर की लक्ष्मी भी और ‘ताड़न’ की अधिकारी भी। मनुष्यता की जननी भी और वेश्यालयों में बिकने वाली देह भी। पूजा की पात्र भी और मौज-मज़े की चीज़ भी।यह संकट कमोबेश आज भी मौज़ूद है। जब तक देवी की काल्पनिक मूर्तियों के साथ जीवित देवियों का सम्मान करना हम नहीं सीख लेते, नवरात्र के कर्मकांड का कोई अर्थ नहीं !यह आयोजन तब सार्थक होगा जब पुरूष स्त्रियों के विरुद्ध हजारों सालों से जारी भ्रूण-हत्या, लैंगिक भेदभाव, बलात्कार, उत्पीडन और उन्हें वस्तु या उपभोग का सामान समझने की मानसिकता बदलें और स्त्रियां खुद भी अपने भीतर मौजूद काली, पार्वती और दुर्गा को पहचानने का प्रयास करें !
सभी मित्रों को शारदीय नवरात्र की शुभकामना !

(Dhurv Gupt के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)