ममता बनर्जी सरीखे नेता ही देश में कराते हैं सांप्रदायिक दंगे ?

कल अदालत में जो कुछ भी हुआ उससे पश्चिम बंगाल की मुख्‍यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की अध्‍यक्ष ममता बनर्जी का सांप्रदायिक चेहरा बेनकाब हो गया है।

New Delhi Sep 22 : भारत में सदियों से हिंदू और मुसलमान मिलकर एक-दूसरे के त्‍यौहार मनाते रहे हैं। दिवाली में मुसलमान पटाखे छुड़ाते हैं तो ईद पर हिंदू भी सेवईयां खाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। ना हिंदुओं को अल्‍लाह से परेहज है और ना ही मुसलमानों को दुर्गा से। लेकिन, देश में कुछ नेता हैं जो सांप्रदायिक सौहार्द के इस माहौल में तनाव पैदा करने की फिराक में रहते हैं। अभी कल की ही बात है कि कोलकाता हाईकोर्ट में पश्चिम बंगाल की मुख्‍यमंत्री और तृणमूूल कांग्रेस की अध्‍यक्ष ममता बनर्जी का सांप्रदायिक चेहरा बेनकाब हो गया। अदालत ने ही ममता बनर्जी से पूछ लिया कि क्‍या देश में दो कम्‍युनिटी के लोग एक साथ अपने-अपने त्‍यौहार नहीं मना सकते हैं? इस पर हिंदू भी राजी होते हैं और मुसलमान भी। लेकिन, आपत्ति होती है ममता बनर्जी सरीखे नेताओं को। लेकिन अदालत की फटकार के बाद अब ममता को जवाब देते नहीं बन रहा है।

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ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि क्‍या पश्चिम बंगाल में अब तक जितने भी सांप्रदायिक दंगे हुए उनके पीछे क्‍या यही  राजनैतिक सोच थी? दरअसल, इस बार मोहर्रम और दुर्गा विसर्जन एक ही दिन पड़ रहा है। ममता बनर्जी ने मुस्लिम समुदाय के लोगों को खुश करने के लिए मुहर्रम के दिन दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन पर रोक लगा दी थी। ममता के इस फैसले को हाईकोर्ट रद्द कर चुका है। अगर ममता बनर्जी की सोच कम्‍युनल ना होती तो यकीनन वो इसके लिए दूसरे रास्‍ते अख्तियार कर सकती थीं। अच्‍छी और निष्‍पक्ष प्रशासक के तौर पर उनके पास इसके के लिए तमाम विकल्‍प थे। जिसका वो इस्‍तेमाल कर सकती थीं। लेकिन, मुसलमानों के वोट बैंक की खातिर ममता बनर्जी को दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन पर रोक का फैसला ही सही लगा।

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इससे पहले भी कई बार हिंदू और मुसलमानों के त्‍यौहार एक साथ पड़ चुके हैं। लेकिन, अगर प्रशासन ने चाह लिया तो कभी कहीं कोई विवाद नहीं हुआ। हर कार्यक्रम का एक रूट तय होता है। मुहर्रम के जुलूस हर जगह निकाले जाते हैं। उनका एक रूट बनता है। मुस्लिम समुदाय के लोग ताजिए लेकर जुलूस निकालते हैं मातम मनाते हैं। ऐसे में ममता बनर्जी के पास पहला ऑप्‍शन ये था कि वो मोहर्रम के जुलूस का रूट और टाइमिंग तय कर देती। मोहर्रम के जुलूस के दौरान दुर्गा विसर्जन के लिए निकलने वाली प्रतिमाओं को दूसरे रूट पर शिफ्ट किया जा सकता था। दोनों के रास्‍ते अलग-अलग होते तो टकराव की कोई बात नहीं बनती। जिसे ममता बनर्जी एक बड़े टकराव के तौर पर पेश करना चाहती थीं।

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आखिर ममता बनर्जी को सीधी सी एक बात क्‍यों समझ में नहीं आती है कि जिस तरह से मोहर्रम के दिन को नहीं बदला जा सकता और उसके जुलूस को रद्द नहीं किया जा सकता है उसी तरह दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन का दिन भी नहीं बदला जा सकता है। दोनों ही धर्म में इसकी अपनी-अपनी मान्‍यताएं और परंपराएं हैं। फिर उन्‍होंने लोगों की धार्मिक भावनाओं से खिलवाड की कोशिश क्‍यों की ? मोहर्रम और दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन को लेकर अदालत ने पुलिस को जिस रूट अरेजमेंट का आदेश दिया है वो आदेश ममता बनर्जी भी दे सकती थीं। लेकिन, उससे उनकी सांप्रदायिक राजनीति सिद्ध नहीं होती। अदालत ने ममता बनर्जी को समझा दिया है कि आप अपने एक्‍ट्रीम पावर का इस्‍तेमाल कर रही हैं। जो ठीक नहीं है। उन्‍हें नियम और पाबंदी में फर्क भी समझाया गया है।