कूड़े-कचरे के ढेर और समस्याओं के पहाड़ !

कूड़े के मामले में हमारे विकल्प काफी सीमित हैं। नेशनल एनवायरनमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट, नागपुर के मुताबिक देश में हर साल 44 लाख टन खतरनाक कचरा निकल रहा है।

New Delhi, Sep 28 : तीन सप्ताह पहले दिल्ली के गाजीपुर में कूड़े के पहाड़ के गिरने का हादसा हुआ, तो कहा गया कि पानी अब सिर से गुजर रहा है, हमें जल्द ही कूड़े के निस्तारण के बारे में कुछ सोचना होगा। फौरी तौर पर उस जगह कूड़े का और ढेर लगाने पर रोक लगा दी गई। लेकिन अब खबर आई है कि महानगर का कूड़ा फिर से गाजीपुर पहुंचने लगा है। यह तो होना ही था, क्योंकि कूड़े के मामले में हमारे विकल्प काफी सीमित हैं। नेशनल एनवायरनमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट, नागपुर के मुताबिक देश में हर साल 44 लाख टन खतरनाक कचरा निकल रहा है।

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हमारे देश में औसतन प्रति व्यक्ति 20 ग्राम से 60 ग्राम कचरा हर दिन निकलता है। इसमें से आधे से अधिक कागज, लकड़ी या पुट्ठा होता है, जबकि 22 फीसदी घरेलू गंदगी होती है। इतने सारे कचरे को एकत्र करना, फिर उसे दूर तक ढोकर ले जाना महंगा व जटिल काम है। यह सरकार भी मानती है कि देश के कुल कूड़े का महज पांच प्रतिशत का ईमानदारी से निबटान हो पाता है। राजधानी दिल्ली का तो 57 फीसदी कूड़ा परोक्ष या अपरोक्ष रूप से यमुना में बहा दिया जाता है। कागज, प्लास्टिक, धातु जैसा कई कूड़े तो कचरा बीनने वाले जमा करके रीसाइकलिंग वालों को बेच देते हैं। सब्जी के छिलके, खाने-पीने की चीजें, मरे हुए जानवर आदि कुछ समय में सड़-गल जाते हैं। मगर ऐसा बहुत कुछ बच जाता है, जो विकराल संकट का रूप लेता जा रहा है।

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असल में, कचरे को बढ़ाने का काम समाज ने ही किया है। अभी कुछ साल पहले तक दूध भी कांच की बोतलों में आता था या फिर लोग अपने बर्तन लेकर डेयरी जाते थे। अनुमान है कि पूरे देश में हर रोज चार करोड़ दूध की थैलियां और दो करोड़ पानी की बोतलें कूड़े में फेंकी जाती हैं। मेकअप का सामान, घर में होने वाली पार्टी में डिस्पोजेबल बरतनों का प्रचलन, बाजार से सामान लाते समय पॉलिथीन की थैलियां लेना, हर छोटी-बड़ी चीज की पैकिंग, ऐसे ही न जाने कितने तरीके हैं, जिनसे हम कूड़ा-कबाड़ा बढ़ा रहे हैं। सफाई और खुशबू के नाम पर बढ़ रहे साबुन व अन्य रसायनों के चलन ने भी अलग किस्म के कचरे को बढ़ाया है। सबसे खतरनाक कूड़ा तो बैटरियों, कंप्यूटरों और मोबाइल का है। इसमें पारा, कोबाल्ट और न जाने कितने किस्म के जहरीले रसायन होते हैं। एक कंप्यूटर का वजन लगभग 3.15 किलोग्राम होता है। इसमें 1.9 किलोग्राम लेड, 0.693 ग्राम पारा और 0.04936 ग्राम आर्सेनिक होता है। शेष हिस्सा प्लास्टिक होता है। ऐसी अधिकांश सामग्रियां गलती-सड़ती नहीं और जमीन में जज्ब होकर मिट्टी की गुणवत्ता को प्रभावित करने और भूगर्भ जल को जहरीला बनाने का काम करती हैं। ठीक इसी तरह का जहर बैटरियों व बेकार मोबाइल से भी उपज रहा है। भले ही अदालतें समय-समय पर फटकार लगाती रही हों, लेकिन अस्पतालों से निकलने वाले कूड़े का सुरक्षित निबटान दिल्ली, मुंबई व अन्य महानगरों से लेकर छोटे कस्बों तक संदिग्ध है।

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अभी हर रोज सात हजार मीट्रिक टन कचरा उगलने वाला महानगर दिल्ली 2021 तक 16 हजार मीट्रिक टन कचरा पैदा करेगा। दिल्ली के अपने कूड़ा-ढलाव पूरी तरह भर गए हैं और आसपास 100 किलोमीटर दूर तक कोई नहीं चाहता कि उनके गांव-कस्बे में कूड़े का अंबार लगे। कहने को दिल्ली में दो साल पहले पॉलिथीन की थैलियों पर रोक लगाई जा चुकी है, पर आज भी प्रतिदिन 583 मीट्रिक टन कचरा प्लास्टिक का ही है। इलेक्ट्रॉनिक और मेडिकल कचरा तो यहां के जल और जमीन को जहर बना रहा है। हाल ही में गाजियाबाद नगर निगम ने दिल्ली नगर निगम के ऐसे दो ट्रकों को पकड़कर पांच-पांच हजार रुपये का जुर्माना लगाया था, जो दिल्ली का कचरा सीमावर्ती गाजियाबाद की कॉलोनियों में रात में चुपके से फेंक रहे थे। कूड़ा अब नए तरह की आफत बन रहा है, सरकार उसके निबटान के लिए तकनीकी व अन्य प्रयास भी कर रही है। मगर असल में कोशिश तो कचरे को कम करने की होनी चाहिए। इसके लिए केरल के कन्नूर जिले का उदाहरण सामने है कि जब जिला प्रशासन व समाज ने ठान लिया, तो अब वहां न तो पॉलिथीन मिलती है और न ही डिस्पोजेबल बरतन और न ही रीफिल वाले बॉल पेन।

(वरिष्ठ पत्रकार पंकज चतुर्वेदी के ब्लॉग से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)