दुर्गा बनाम महिषासुर !

असुर आदिवासी महिषासुर को अपना पुरखा मानते हैं जिसका महिमामंडन करने के लिए वे दुर्गा को खलनायिका के रूप में चित्रित करते हैं।

New Delhi, Sep 29 : देश में अरसे से ज़ारी सांस्कृतिक टकराव में हाल में एक अध्याय और जुड़ गया है- देवी दुर्गा बनाम महिषासुर। हिन्दू संस्कृति में स्त्री शक्ति की प्रतीक देवी दुर्गा के प्रति अपार भक्ति और सम्मान की भावना है। उनका पराक्रमसिद्ध करने के लिए उनके हाथों मारे गए असुरराज महिषासुर को पाशविक शक्तियों का प्रतीक बताया जाता है। इसके उलट असुर आदिवासी महिषासुर को अपना पुरखा मानते हैं जिसका महिमामंडन करने के लिए वे दुर्गा को खलनायिका के रूप में चित्रित करते हैं। कुछ सालों पहले दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में वामपंथी छात्र संगठनों द्वारा आयोजित एक सभा में महिषासुर को भारत के आदिवासियों और दलितों का गौरवशाली पूर्वज बताते हुए दुर्गा के विरोध में जमकर अपशब्दों का इस्तेमाल हुआ था। यह आयोजन हिन्दुओं के देशव्यापी विरोध की वज़ह बना। हिन्दू जनमानस प्राचीन काल से ही महिषासुर को शान्ति, समृद्धि तथा धर्म पर आघात करने वाली तामसिक शक्ति के एक प्रतीक और दुर्गा को उसके विनाशक के रूप में देखता रहा है। दुर्गा हिन्दुओं के शाक्त सम्प्रदाय के अनुयायियों की प्रमुख देवी है जिसे वे परम ब्रह्म के रूप में पूजते हैं। पुराण में दुर्गा को आदिशक्ति माना गया है जिसने माया शक्ति से सावित्री, लक्ष्मी और पार्वती के तीन रूप धरकर क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और शिव से विवाह किया था। इसके विपरीत असुर आदिवासी दुर्गा को आक्रमणकारी देवों द्वारा असुरों के खिलाफ़ इस्तेमाल की गई एक कठपुतली और महिषासुर को एक समतावादी तथा प्रतापी जननायक मानते हैं। देवताओं ने उसे पराजित करने की कई कोशिशें की,लेकिन हर बार असफल रहे। अंततः देवों ने उसके बारे में एक तथ्य का पता लगाया कि वह स्त्रियों और पशुओं की रक्षा के लिए कृतसंकल्प है और उन पर किसी भी स्थिति में वार नहीं करता। उसके चरित्र के इस पक्ष का लाभ उठाकर देवताओं ने युद्ध में दुर्गा को सामने कर न केवल महिषासुर की हत्या की, बल्कि बड़े पैमाने पर असुरों का नरसंहार भी किया। दशहरा इसी हत्या और नरसंहार का ब्राह्मणवादी जश्न है।

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असुर जनश्रुतियों के अनुसार महिषासुर के पराजित समर्थकों और अनुयायियों ने उसकी हत्या और असुरों के नरसंहार के पांच दिनों बाद शरद पूर्णिमा को एक विशाल सभा आयोजित की थी। सभा में उन्होंने अपनी संस्कृति तथा स्वाभिमान को जीवित रखने और देवों के हाथों लुटी अपनी संपदा को वापस लेने संकल्प किया था। इसी संकल्प की याद में असुर जनजाति के लोग दशहरा के पांच दिनों बाद आने वाले शरद पूर्णिमा को ‘महिषासुर शहादत दिवस’ के तौर पर मनाते हैं। दो आधुनिक इतिहासकारों – डी.डी कोशाम्बी और देवीप्रसाद चट़टोपाध्याय ने पुराणों से इतर कई प्राचीन ग्रंथों के विशद अध्ययन के बाद दुर्गा को ब्राह्मणों की कल्पना की उपज एक मिथक बताया, लेकिन महिषासुर उनकी दृष्टि में पशुपालकों का आराध्य एक वास्तविक और लोकप्रिय नायक था। असुर जनजाति के लोगों में प्राचीन समय से ही उसके लोक कल्याणकारी और शूरवीर रूपों की कहानियां कही जाती रही है। बुंदेलखंड के महोबा से करीब सत्तर किमी‍ की दूरी पर ग्राम चौका सोरा में भारतीय पुरात्तव सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित एक प्राचीन महिषासुर स्मारक मंदिर भी है।

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यह सारा विवाद वस्तुतः दो प्राचीन संस्कृतियों के टकराव का है। ऋग्वेद में कृषि को यज्ञ कहा गया है। कृषि की खोज के बाद अपने भोजन और आजीविका के लिए पूरी तरह वनों और पशुओं पर निर्भर देवता या सुर कहे जाने वाले आर्यों ने खेती की शुरुआत की। कालांतर में खेती के लिए जमीन कम पड़ी तो उन्हें वनों की कटाई की आवश्यकता महसूस हुई। इसी आवश्यकता के तहत वनों की कटाई का अभियान चला और उनका विस्तार भी हुआ। अपनी आजीविका के लिए वनों और उनके उत्पादों पर पूरी तरह निर्भर वनवासी जनजातियों – असुर, दैत्य, नाग, दानव आदि ने वनों की कटाई और आर्यों की इस विस्तारवादी नीति का हर संभव प्रतिरोध किया। सुर-असुर या देवासुर संग्राम की यही वास्तविक पृष्ठभूमि रही है। यह संघर्ष हजारों साल तक चला। अपना जंगल बचाने के लिए असुर कभी सीधी लड़ाई में और कभी छिपकर देवों के यज्ञ या कृषि को नुकसान पहुंचाते थे। पुराणों और महाकाव्यों में असुरों, नागों और राक्षसों द्वारा आर्यों के यज्ञों में व्यवधान और आर्य नायकों द्वारा उनके विनाश के अनगिनत किस्से यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। रामायण काल में राक्षसों के इसी उपद्रव का शमन करने के लिए विश्वामित्र ने अयोध्या के राजा दशरथ के दो पराक्रमी पुत्रों राम और लक्ष्मण की मदद ली थी। वनवासी जनजातियों के इस कृत्य की प्रतिक्रिया में आर्य देवों ने उनसे प्रत्यक्ष युद्ध भी किए और धोखे से उनका संहार भी किया। कभी देवों की विजय हुई तो कभी असुरों की। ज्यादातर मामलों में देवता ही पराजित, असहाय और निरुपाय होकर कभी विष्णु, कभी शिव और कभी देवी से मदद की याचना करते दिखते हैं। इस संघर्ष का सबसे वीभत्स और अमानुषिक रूप पांडवों के वंशज परीक्षित-पुत्र जनमेजय के नागयज्ञ में दिखता है जिसमें कृषि या यज्ञ की खातिर जमीन हासिल करने के लिए जनमेजय ने अपने राज्य के एक विशाल वन को आग लगाकर नाग जाति के असंख्य लोगों को जिन्दा जला दिया था। हजारों वर्षों से चले आ रहे इस टकराव को देवता और असुरों का नहीं, दो संस्कृतियों के संघर्ष के रूप में देखें तो सब कुछ स्पष्ट नज़र आने लगेगा।

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आज भी स्थिति में बहुत बदलाव नहीं आया है। देवासुर संग्राम आज भी लगभग उसी रूप में ज़ारी है। पहले कृषि के लिए भूमि की तलाश में स्वयं को सभ्य मानने वाले देव या असुर वनों की निर्मम कटाई करते थे, आज उद्योगों के विस्तार के लिए सभ्य कहे जाने वाले उद्योगपति और ठेकेदार आदिवासी जनजातियों की आजीविका के एकमात्र साधन वनों की निर्मम कटाई कर रहे हैं। देश की सत्ता और उसकी पुलिस इस अभियान में उनके साथ खड़ी हैं। वनों की इस अंधाधुंध कटाई से वनों पर निर्भर लोगों की रोजी-रोटी पर ही नहीं, उनकी संस्कृति और पहचान पर भी ख़तरा उपस्थित हो गया है। ज़र,ज़मीन और जंगल की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध आदिवासी जनजातियां जंगलों की कटाई का मुखर विरोध कर रही हैं। पिछले कुछ दशकों से इस प्रतिरोध ने हिंसक रूप धर लिया है जिसका नाजायज फ़ायदा हिंसा की राजनीति करने वाले कुछ राजनीतिक संगठन उठा रहे हैं।

आज के पढ़े लिखे असुर आदिवासियों की मांग है कि उनके प्रतापी और लोक कल्याणकारी पुरखे महिषासुर की हत्या के ब्राह्मणवादी उत्सव दशहरा का आयोजन बंद कर दिया जाय। उनकी भावनाएं समझना मुश्किल नहीं है। लेकिन उन्हें भी आस्थावान हिन्दुओं की भावनाएं समझनी होगी। उनकी आराध्य दुर्गा के बारे में आपत्तिजनक दलीलों से दोनों संस्कृतियों के बीच टकराव बढ़ रहा है। पिछले हजारों सालों से देश के जनमानस में जिन सांस्कृतिक और धार्मिक आस्थाओं की जड़ें गहरी जमी हुई हैं, उन्हें आसानी से मिटा देना सरल नहीं है। वैज्ञानिक नज़रिए के विकास के बगैर मिथकों और पुराणों को हथियार बनाकर लड़ने से सामाजिक वैमनस्यता के सिवा कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। हमारा राष्ट्र पिछले हजारों वर्षों में हजारों जातियों और हजारों संस्कृतियों के अंतर्संघर्षों और समन्वय की विराट कोशिशों से बना है। यहां अपने विस्तार के क्रम में कृषि के लिए वनों की कटाई करने वाले आर्यों या देवों की भी पूजा होती है और वनों की कटाई का विरोध करने वाली प्रकृति पर निर्भर जनजातियों के नायकों की भी। देवी दुर्गा की भी और महिषासुर की भी। राम की भी और रावण की भी। कृष्ण की भी और जरासंध की भी। नागों के विनाशक जनमेजय की भी और नागों के जातीय नायकों वासुकी, कालिय और शेष की भी। जब आस्थावान हिन्दुओं को महिषासुर या रावण की पूजा से कभी कोई आपत्ति नहीं रही, तो आपको दुर्गा पूजा या दशहरा के आयोजन से कोई आपत्ति क्यों होना चाहिए ? एक परिवार में अगर परस्पर-विरोधी मान्यताओं का शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व संभव है तो एक बहुधर्मी, बहुसांस्कृतिक और बहुभाषी राष्ट्र में क्यों नहीं ?
अतीत के गड़े मुर्दे उखाड़ने के बजाय भविष्य की ओर देखना हमेशा बेहतर होता है।

(Dhurv Gupt के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)