फिर उठी संविधान की हूक ! पब्लिक स्‍पेस में पीछे छूट गया है ‘संविधानवाद’

हमारे भीतर संविधान आधारित नागरिकता की हूक उठ रही है। इसके पहलुओं को समझने के क्रम में हम आधी अधूरी जानकारियों के आधार पर ही लड़ते रहे।

New Delhi Oct 04 : देशद्रोह, मुक्त अभिव्यक्ति और निजता को लेकर हाल के दिनों में काफी बहस हुई है। राजनीति ने इसे और गरमा दिया। ये बहसें बता रही हैं कि हमारे भीतर संविधान आधारित नागरिकता की हूक उठ रही है। इसके पहलुओं को समझने के क्रम में हम आधी अधूरी जानकारियों के आधार पर ही लड़ते रहे। ख़ासकर हिन्दी पब्लिक स्पेस में। इस बहस में सबकी अपनी-अपनी राजनीतिक समझ ही हावी रही। संविधानवाद पीछे छूट गया। क़ानूनी विषय को लेकर पब्लिक स्पेस में चर्चा का मौका आया है, इसका मतलब है कि इस बहस का दूसरा चरण भी आएगा। इसी बहस की देन है कि इस दौरान अंग्रेज़ी में देशद्रोह, आस्था का अपमान, कानून व्यवस्था भंग होने का भय, नारेबाज़ी को लेकर दो अच्छी किताबें भी आईं। एक 2016 में आई गौतम भाटिया की। Offend, Shock, Disturb: speech under Indian Constitution, published by Oxford university press. इस किताब पर कभी और लिखूँगा।

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एक और किताब आई है पेंग्विन से। Republic of Rhetoric: Free speech and Constitution of India. इसे लिखा है अभिनव चंद्रचूड़ ने। काश ऐसी किताबें हिन्दी में भी आती। हिन्दी के पाठक भी इसे पढ़कर अपनी बहस क्षमता को समृद्ध कर सकते हैं। मज़ेदार ज़ुबान में है और दिलचस्प किस्से हैं। अभिनव की किताब संविधान में ब्रिटिश क़ालीन निरंतरता और बदलाव को ज़बरदस्त तरीके से रेखांकित करती है। आज़ाद अभिव्यक्ति को लेकर संवैंधानिक अंतर्विरोधों को अभिनव ने उदाहरण देकर उभारा है। क्या आप जानते हैं कि 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू होने के पहले तक सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लंदन स्थित प्रिवि काउंसिल में चुनौती दी जा सकती थी? IPC 1870 का सेक्शन 124-A देशद्रोह का कानून है। सरकार के ख़िलाफ़ नफ़रत और बुरी भावना फैलाना भी इसके तहत आता है। ग़ैर ज़मानती अपराध था। हमारे संविधान मे इसे जारी रखा गया। 1908 में तिलक पर राजद्रोह का मुक़दमा चला था।

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आज़ादी से पहले प्रेस परलएक प्रकार का सेंसरशिप था Prior Restraints. कुछ भी छापने से पहले अनुमति लेनी होती थी। राजा राम मनोहर रॉय ने इसके ख़िलाफ़ अपील की थी। 1950 के दशक में सुप्रीम कोर्ट ने इसे संवैधानिक माना था ! भारत में व्यवहार में यह कानून प्रेस पर लागू नहीं होता( दूसरे कई तरीके तो हैं ही) मगर आज भी सिनेमा रिलीज़ होने से पहले अनुमति लेनी होती है। 2009 में ब्रिटेन ने मानहानि को अपराध की श्रेणी से हटा दिया। भारत के सुप्रीम कोर्ट में मानहानि की संवैधानिकता को चुनौती दी गई तो खारिज हो गया। क्या आपको पता है कि ब्रिटिश राज में। एनी बेसेंट, बी जी हॉर्निमन ने आज़ादी के आंदोलन को आगे बढ़ाया। 1919 में बांबे क्रोनिकल के संपादक हॉर्निमन के ब्रिटिश जज ने वापस ब्रिटेन भेज दिया। उनकी याद में मुंबई के एलिफिस्टन सर्किल का नाम हॉर्निमन सर्किल रखा गया। उनके नाम की पट्टिका लगी है जिसमें कहा गया है कि भारत में रहे और यहाँ के प्रेस की आज़ादी के लिए काम किया। क्या आज उनके नाती पोतों को भारत का संविधान मुक्त अभिव्यक्ति का अधिकार देता है?

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अभिनव कहते हैं कि हमारे संविधान निर्माताओं ने मुक्त अभिव्यक्ति का अधिकार सिर्फ भारतीय नागरिकों को दिया है। क्योंकि हम आज भी विदेशी को शक की निगाह से देखते हैं। वसुधैव कुटुंबकम ! उसी तरह अश्लीलता को लेकर संवैधानिक प्रावधानों और सार्वजनिक समझ को अभिनव मे मज़ेदार तरीके से रखा है। 2009 में अक्षय कुमार और ट्विंकल खन्ना के ख़िलाफ़ अश्लीलता के आरोप में आपराधिक मामला दर्ज हो गया। एक फैसला शो में ट्विंकल खन्ना ने अक्षय की जीन्स का ऊपरी बटन खोल दिया। यह स्टंट कथित रूप से लेवी के unbuttoned line of jeans को प्रमोट करने के लिए था। किसी को हैरानी हो सकती है कि क्या वाक़ई इससे अश्लीलता फैली या कामुकता पैदा हुई होगी !

अमरीका में जज सुप्रीम कोर्ट के बेसमेंट में जाकर पॉर्न फ़िल्में देखते थे, जब अश्लीलता का मामला आता था। एक जज नेत्रहीन थे। उनका सहायक सीन दर सीन बोल कर बता रहा था। जज ने कहा क्या शानदार मूव है। एक जज ने कहा कि वे इस तरह के obscenity test के ख़िलाफ़ हैं। एक के लिए जो अश्लील है वो दूसरे के लिए सौंदर्य हो सकता है। अभिनव कहते हैं कि भारत में मुक्त अभिव्यक्ति पर सांस्कृतिक धारणाएँ हावी हैं, उन पर संविधान की छाया अभी बहुत कमज़ोर है। मैंने एक ही चैप्टर पढ़ा है। जीवन का एक ही मकसद होना चाहिए। जानते रहिए। जानकारी ही जीवन का विस्तार है। आत्मविश्वास है। एक ही चैप्टर में इतना कुछ जाना कि आपको बताने से ख़ुद को रोक नहीं सका। अंडरलाइन करके पढ़ने वाली किताब है। कीमत 599 रुपये है। समीक्षा बाद में, ये सूचना है।