“हमसे सुनो, सारे फ़साने, अख़्तरी से बेग़म अख़्तर बनने तक के सफर की गवाह हैं हम !

अंग्रेज़ी में लिखे नाम पर उंगलियां फेर कर मैंने नाम पड़ा.. तो ये थीं बेगम अख़्तर! मां इन्ही के बारे में कितना बताती थीं।

New Delhi, Oct 07 : “कुछ तो दुनिया की इनायात ने दिल तोड़ दिया,
और कुछ तल्ख़ी-ऐ-हालात ने दिल तोड़ दिया”
1975! शहर कानपुर! मामा का घर! रिकॉर्ड प्लेयर में गोल घूमते तवे से निकलती, गूंजती आवाज़ जैसे नश्तर की तरह कलेजे के आर-पार हुई जा रही थी। सदर्शन फ़ाकिर के जादुई लफ़्ज़ों को समझने की न तो मेरी कोई उम्र थी, न रागदारी की समझ! नौ बरस की में भी कोई उम्र थी उस तिलिस्म को समझने की! बस, आवाज़ की कशिश, मन में बहुत गहरे बैठी जा रही थी। सामने पड़ा रिकॉर्ड का कवर उठा कर उस आवाज़ की मालकिन को जो मैंने ग़ौर से देखा तो बदले में मुझे एक रौशनी में नहाई रुआबदार शख़्सियत दिखाई दी! हाँथ में तानपुरा लिए, सिर ढके, बनारसी साड़ी में दुनिया देख चुकी आंखों की चमक और उनकी लौंग की दमक लगभग एक सी थी! अंग्रेज़ी में लिखे नाम पर उंगलियां फेर कर मैंने नाम पड़ा.. तो ये थीं बेगम अख़्तर! मां इन्ही के बारे में कितना बताती थीं।

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फिर तो धीरे धीरे न जाने कितनी ही बातें मैं जान गई। हमारे उस्ताद राहत अली ख़ान साहब उनके किस्से बताते! उनकी गायकी की बारीकियों से हमारी शनासाई कराते।
हमारा सीखने का दौर था।
और फिर क़रीब दस बरस बाद, जब हम लखनऊ में भातखंडे संगीत महाविद्यालय की चौखट पर आन खड़े हुए, तो ये सोच कर ही सिहर उठे, कि यहाँ कभी बेगम साहिबा सिखाने आया करती होंगी। ठुमरी की कक्षा के कमरे में झांक कर गुज़रे ज़माने के नजारे को मन ही मन बुना करते। लखनऊ रेडियो के स्टूडियो में कदम रखते ही, हवाएं भी सरगोशी करतीं,”हमसे सुनो, सारे फ़साने, अख़्तरी से बेग़म अख़्तर बनने तक के सफर की गवाह हैं हम!

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बेग़म अख़्तर जी के घर सन् 86 में उनके देवर एडवोकेट साहब के बुलावे पर मुझे गाने को कहा गया और इस तरह उन्हें अपनी ओर से पहली बार स्वरांजली देने का मौक़ा हाँसिल हुआ।
लखनऊ में उनको उठते बैठते गाते और ठहाके लगाकर देखने वालों की लंबी फेहरिस्त है जो अब धीरे धीरे हमारे बीच से जा रही है।
जो कुछ मैंने उनके बारे में बुज़ुर्गों से सुना वह जान यही समझा, कि फ़नकार किसी आवाज़ से नही, तबियत से होता है, दिल से होता है। असर तभी आता है। बेग़म अख्तर एक ऐसी जिंदादिल, रूमानी और दमदार आज़ाद सोच की औरत थी। रोम रोम सिर्फ अपने फ़न को सुपुर्द!

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मैं बेगम अख़्तर जी को एक ऐसी मुक़म्मल कलाकर मानती हूं, जिन्होंने अपनी मिट्टी की पूरी नुमाइन्दगी की। ठुमरी दादरा की उनकी शास्त्रीय तालीम थी लेकिन ग़ज़लों को उन्होने अपनी ज़ीनत पर पहुँचाया। बड़े बड़े शायरों के कलाम उनकी आवाज़ पाकर अमर हो गए। पूरब और पटियाला रंग का मणिकांचन संयोग थीं बेगम अख़्तर! यदि एक तरफ ग़ज़लों को उन्होंने अपने उन्वान पर पहुँचाया तो दूसरी ओर, पूर्वी, कजरी, झूला, होली, लोकगीत गा कर अवध के संगीत की उम्र लंबी कर दीं।
वक़्त बदल रहा है, गायिकी का सहूर भी बदल रहा है। बहुत कुछ अच्छा बुरा और नया भी हो रहा है
लेकिन, बेग़म अख़्तर एक ही हैं इकलौती हैं। न उनसे पहले कोई था, न आगे होगा!
हम सबको मौसिक़ी से इश्क़ करने का सलीक़ा सिखाने वाली बेग़म अख़्तर साहिबा को हमारा सलाम!

(लोकगायिका मालिनी अवस्थी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)