जब वे ऊंचा सुर लगाते तो गाने लगता था सारा आकाश !

गायिकी के लगभग साठ सालों में साढ़े तीन हजार से ज्यादा फ़िल्मी और गैर-फिल्मी गीतों को अपना स्वर ( सुर ) देने वाले मन्ना दा की रुपहले परदे पर गायन की शुरूआती यात्रा बहुत सहज नहीं रही थी।

New Delhi, Oct 08 : हिन्दी फिल्मों की धीर-गंभीर आवाज़ मन्ना डे उर्फ़ प्रबोध चन्द्र डे फिल्मी गीतों को शास्त्रीय संगीत की गरिमा और ऊंचाई देने के लिए जाने जाते हैं। मोहम्मद रफ़ी, तलत, मुकेश, हेमंत कुमार और किशोर कुमार के सुनहरे दौर में अपनी आवाज़ की गहराई, ऊंचाई और विविधता के कारण फिल्मी गायन में उनकी एक बिल्कुल अलग पहचान रही थी। बाद में उस दौर के सभी गायकों की नक़ल करने वाले लोग आए और चले गए, लेकिन मन्ना दा की संज़ीदगी कोई दुहरा नहीं सका। प्रसिद्ध संगीतकार अनिल विश्वास ने एक बार उनके बारे में कहा था – ‘मन्ना डे हर वह गीत गा सकते हैं जो मोहम्मद रफी, किशोर कुमार या मुकेश ने गाए हों, लेकिन इनमें से कोई भी मन्ना डे का गीत नहीं गा सकता।’ मोहम्मद रफी ने एक साक्षात्कार के दौरान स्वीकार किया था कि लोग भले ही उनके गीत सुनते हैं, लेकिन उन्हें जब भी मौका मिलता है वे मन्ना डे के गीत ही सुनता पसंद करते हैं। गंभीर गीत-संगीत के प्रेमियों के वे पहली पसंद रहे हैं। अपनी कालजयी कृति ‘मधुशाला’ को स्वर देने के लिए जब आवाज़ की ज़रुरत हुई तो कविवर हरिवंश राय बच्चन के सामने अकेला मन्ना डे का ही चेहरा था। उनकी गहरी, उनींदी आवाज़ में ‘मधुशाला’ को सुनना आज भी एक अतीन्द्रिय अनुभव है। बावज़ूद इसके गायिकी के लगभग साठ सालों में साढ़े तीन हजार से ज्यादा फ़िल्मी और गैर-फिल्मी गीतों को अपना स्वर ( सुर ) देने वाले मन्ना दा की रुपहले परदे पर गायन की शुरूआती यात्रा बहुत सहज नहीं रही थी।

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अपने संगीतकार चाचा के.सी डे से संगीत की प्रारंभिक शिक्षा लेने के बाद जब वे पार्श्वगायक बनने का सपना लिए पिछली सदी के चौथे दशक में उनके साथ बम्बई पहुंचे तो हिंदी सिनेमा के कई स्थापित संगीतकारों ने यह कहकर उन्हें खारिज कर दिया कि उनकी भारी, शास्त्रीय आवाज़ उस दौर के किसी गायक पर फिट नहीं बैठती थी। उन्होंने अपने चाचा, सचिन देव बर्मन तथा कुछ अन्य संगीत निर्देशकों के सहायक की भूमिका भी निभाई और कुछ छोटी-छोटी फिल्मों में स्वतंत्र संगीत निर्देशन भी किया। गायक के तौर पर पहला मौका उन्हें चाचा के.सी डे ने 1943 की चर्चित फिल्म ‘रामराज्य’ में कोरस गायक के तौर पर ही दिया। यह एकमात्र फिल्म थी जिसे महात्मा गांधी ने देखा था। उसी साल दूसरा मौका उन्हें फिल्म ‘तमन्ना’ में सुरैया के साथ गाने का मिला, लेकिन उससे कोई पहचान नहीं बनी उनकी। उस दौर में हर संगीतकार का अपना कोई प्रिय गायक होता था जिसे विस्थापित कर अपने लिए जगह बनाना मन्ना दा के लिए आसान नहीं था। उनकी गायन प्रतिभा का लोहा तो सभी मानते थे, लेकिन उनकी आवाज़ का इस्तेमाल नायकों के बज़ाय एक अरसे तक सह्नायकों, हास्य कलाकारों और फिल्मों में भिखारियों तथा साधुओं की भूमिका करने वाले कलाकारों के लिए ही होता रहा। पहली बार उन्हें पहचान मिली फिल्म ‘मशाल’ के एकल गीत ‘ऊपर गगन विशाल’ से जिसकी धुन बनाई थी सचिन देव बर्मन ने। पहली बार उनकी प्रतिभा को पहचाना संगीतकार शंकर जयकिशन ने। शंकर जयकिशन ने कुछ कालजयी गीतों में राज कपूर के लिए मुकेश की जगह उनकी आवाज़ का इस्तेमाल कर उन्हें पहली पंक्ति के गायकों के साथ ला खड़ा किया। इस प्रयोग के बाद मन्ना डे के घोर आलोचकों ने भी यह स्वीकार किया की राज कपूर की शैली को मन्ना डे की आवाज ज्यादा मुफीद लगती है। राज कपूर के लिए गाए उनके कुछ बहुत लोकप्रिय गीतों – प्यार हुआ इकरार हुआ है प्यार से फिर क्यों डरता है दिल, दिल का हाल सुने दिलवाला, आजा सनम मधुर चांदनी में हम-तुम, ये रात भींगी-भींगी, तेरे बिना आग ये चांदनी तू आ जा, जहां मैं जाती हूं वहीँ चले आते हो ने उन्हें सिनेमा में मजबूती से पांव टिकाने की जगह दी। मन्ना दा ने शंकरजी जयकिशन का आभार प्रकट करते हुए लिखा है – ‘उनकी सरपरस्ती न मिलती तो शायद मैं कामयाबी की ऊंचाई को नहीं छू पाता। वही एक व्यक्ति थे जिन्हें पता था कि मेरे अंदर से बेहतर गायक को कैसे बाहर लाना है।’

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शंकर जयकिशन के साथ मन्ना के कई चर्चित संस्मरण जुड़े हैं। एक दफ़ा शंकर जयकिशन ने 1956 की फिल्म ‘बसंत बहार’ में उन्हें राग बसंत पर आधारित एक युगल गीत ‘केतकी गुलाब जूही चंपक बन फूले’ गाने की पेशकश की। मन्ना दा को इस फिल्म में नायक की आवाज़ बननी थी। फिल्म में आयोजित एक गायन प्रतियोगिता में जीत नायक की ही होनी थी। उनके लिए यह गीत मुश्किल नहीं था। मुश्किल यह थी कि यह गीत उन्हें शास्त्रीय संगीत के एक महान गायक पंडित भीमसेन जोशी के साथ गाना था जिनकी आवाज़ का इस्तेमाल प्रतियोगिता में पराजित होने वाले गायक के लिए किया जाना था। पंडित जी का नाम सुनकर ही मन्ना दा के हाथ-पांव फूल गए। वे अपने सरपरस्त शंकर जयकिशन को इनकार भी नहीं कर सकते थे और पंडित जी के साथ गाकर अपनी भद्द पिटवाने का ख्याल भी उन्हें परेशान कर रहा था। उन्हें यह भी अच्छा नहीं लगा कि फ़िल्म की कहानी के हिसाब से ही सही, वे पंडित भीमसेन जोशी जैसे महान संगीतज्ञ को हराने की हिमाक़त करें। उन्होंने यह फैसला किया कि वे यह गीत नहीं गाएंगे। सीधे इनकार करने के बजाय कुछ दिन मुंबई से दूर पुणे में अज्ञातवास करेंगे और गाने की रिकॉर्डिंग रद्द होने की खबर मिलने के बाद ही लौटेंगे। अपने फैसले की सूचना जब उन्होंने पत्नी सुलोचना को दी तो पत्नी से उन्हें बेहिसाब झिडकियां सुनने को मिलीं। पत्नी द्वारा उत्साह बढ़ाने पर उन्होंने अपना फैसला बदला और पूरे पंद्रह दिनों तक इस गीत की तैयारी की। अंततः इस अमर गीत की रिकॉर्डिंग हुई। गीत में पंडित भीमसेन जोशी की बुलंद, मंझी हुई और परिपक्व शास्त्रीय आवाज़ की तुलना में उनकी आवाज़ और अदायगी कर्णप्रिय होने के बावज़ूद कहीं नहीं ठहरती, लेकिन जैसा कि मन्ना दा ने खुद कहा है, वे भाग्यशाली थे कि उन्हें पंडित जी के साथ गाने का मौका मिला और उनके लिए सबसे बड़ा सम्मान यह था कि पंडित जी ने उनके गायन की तारीफ़ की।

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मन्ना दा से जुड़ा एक मजेदार वाकया फिल्म ‘दिल ही तो है’ के प्रसिद्द गीत ‘लागा चुनरी में दाग छुपाऊं कैसे’ के रिकॉर्डिंग का है। यह गीत भी कठिन शास्त्रीय राग पर आधारित था, लेकिन इस बार हाथ-पांव फूलने की बारी मन्ना दा की नहीं, फिल्म के नायक राज कपूर की थी। परदे पर इस गीत को राज कपूर को गाना था और इस गाने पर नृत्य करती हुई नृत्यांगना को पराजित करना था। जब तक मन्ना दा गीत के विलंबित हिस्से का रिहर्सल करते रहे, तब तक सब ठीक था। जैसे ही वे गाने के द्रुत और आलाप वाले भाग में पहुंचे, राज साहब घबड़ा गए। उन्होंने मन्ना दा को कहा कि गाने के इस रफ़्तार पर वे अभिनय नहीं कर सकेंगे। उन्होंने गीत के अंतिम हिस्से को कुछ धीमा कर देने का अनुरोध किया। संगीतकार रोशन ने उन्हें समझाया कि उन्हें गीत की तेजी से ही नर्तकी की चपलता को पराजित करना है और अगर इसे सपाट कर दिया गया तो गीत और नृत्य की युगलबंदी का रोमांच ही ख़त्म हो जाएगा। राज कपूर ने यह बात समझी। गीत की रिकॉर्डिंग मन्ना दा ने बिल्कुल उसी रूप में की जिस रूप में रोशन ने चाहा था। मन्ना दा के बेमिसाल गायन और रोशन की द्रुत शास्त्रीय बंदिश के कारण इस गीत का शुमार हिंदी सिनेमा के कुछ श्रेष्ठ शास्त्रीय गीतों में होता है।

संगीत को मन्ना डे इबादत का दर्ज़ा देते थे। उन्हें इसमें किसी तरह की तोड़-मरोड़ या विकृति सख्त नापसंद थी। संगीत की शुद्धता की उनकी ज़िद की वज़ह से कई बार गीतों की रिकॉर्डिंग के दौरान अप्रिय दृश्य भी उपस्थित हुए। ऐसी ही एक घटना 1968 की बेहतरीन हास्य फिल्म ‘पड़ोसन’ के एक गाने की रिकॉर्डिंग के दौरान घटी थी जो संगीत की दुनिया में अरसे तक चर्चा का विषय बनी रही। गीतकार राजेन्द्र कृष्ण और संगीतकार राहुल देव बर्मन द्वारा रचित शास्त्रीय संगीत पर आधारित यह गाना था ‘इक चतुर नार बड़ी होशियार’ जिसमें मन्ना दा को हास्य अभिनेता महमूद की आवाज़ बनना था। महमूद फ़िल्म में एक शास्त्रीय संगीत शिक्षक का किरदार निभा रहे थे और उन्हें फिल्म के हीरो सुनील दत्त से प्रतियोगिता हारनी थी। सुनील दत्त के लिए आवाज़ दे रहे थे गायक किशोर कुमार। मन्ना दा की शास्त्रीय संगीत पर पकड़ जबरदस्त थी, लेकिन किशोर कुमार सरगम के मामले में बहुत कच्चे थे। उन्होंने शास्त्रीय संगीत की विधिवत शिक्षा नहीं ली थी। सिचुएशन को मज़ाहिया बनाने के लिए गीतकार राजेन्द्र कृष्ण और बर्मन दा ने सरगम के बीच कुछ उटपटांग-से प्रयोग किए थे। दोनों गायकों को कहा गया कि आपको गीत के बीच-बीच में नोटेशन से अलग जाकर कुछ ऐसे शब्द भी बोलने होंगे जैसे वे गाने का हिस्सा हों। किशोर कुमार तो गाने के लिये तैयार हो गए, लेकिन मन्ना दा ने इसे गाने से मना कर दिया। उनका कहना था कि वे संगीत के साथ मजाक नहीं कर सकते। रिकॉर्डिंग के दौरान दोनों गायकों के बीच जबरदस्त खींचतान हुई। मन्ना दा ने गीत का अपना हिस्सा अपने स्वभाव के अनुरूप बिना किसी समझौते के गाया, लेकिन जब किशोर कुमार ने गलत नोटेशन का सहारा लिया तो मन्ना दा गाते-गाते रुक गए। उन्होंने बर्मन दा की तरफ देखकर सवाल किया – ‘यह कौन सा राग है ?’ अंततः हास्य अभिनेता और फिल्म के निर्माता महमूद को मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा।

दर्जनों सफल रूमानी गीत गाने के बावज़ूद मन्ना दा गंभीर शास्त्रीय गायक की अपनी स्थापित छवि से आजीवन मुक्त नहीं हो पाए। आम तौर पर निर्माता और संगीतकार उन्हें शास्त्रीय, शास्त्रीय संगीत या जीवन दर्शन पर आधारित गीतों के लिए ही ज्यादा याद करते थे। प्रसिद्द गीतकार प्रेम धवन ने उनके बारे में कितना सही कहा था – ‘मन्ना दा सिनेमा के अकेले गायक हैं जो हर रेंज में गीत गाने में सक्षम है। जब वे ऊंचा सुर लगाते है तो ऐसा लगता है कि सारा आसमान उनके साथ गा रहा है। जब वे सुर नीचे करते हैं तो लगता है कि उनमें पाताल जितनी गहराई है। और जब वे मध्यम सुर लगाते है तो लगता है सारी धरती उनके साथ झूम रही है।’

(Dhurv Gupt के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)