बनियों पर क्यों बरसे कांचा इलैया ?

कांचा इलैया का कहना है कि इस बनिया जाति ने भारत के उद्योग-व्यापार पर कब्जा कर रखा है और यह आरएसएस के हाथ का खिलौना है।

New Delhi Oct 20 : श्री कांचा इलैया एक प्रभावशाली बौद्धिक हैं और दलितों के कट्टर समर्थक हैं। एक बौद्धिक के तौर पर वे आदर के योग्य है लेकिन उनके तर्कों से सहमत होना कठिन है। हाल ही में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘पोस्ट हिंदू इंडिया’ पर दक्षिण भारत के बनिया संगठनों ने प्रतिबंध की मांग की थी, जिसे अदालत ने रद्द कर दिया है। अदालत का मैं समर्थन करता हूं और यह मानता हूं कि ऐसी विवादास्पद पुस्तकों पर प्रतिबंध लगाने की बजाय उन पर जमकर बहस चलानी चाहिए। इस पुस्तक का एक अध्याय देश के बनिया लोगों पर है, खास तौर से आर्य-वैश्य लोगों पर ! कांचाजी मानते हैं कि दक्षिण के बनिया आर्य नहीं हैं। वे द्रविड़ वैश्य हैं।

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कांचा का कहना है कि इस बनिया जाति ने भारत के उद्योग-व्यापार पर कब्जा कर रखा है और यह आरएसएस के हाथ का खिलौना है। ये बनिये दूसरी जाति के लोगों को उद्योग-व्यापार में घुसने ही नहीं देते। कांचाजी यह मानने को तैयार नहीं हैं कि इस देश का पेट पालने की जिम्मेदारी बनियों की ही रही है और बनियों की वजह से ही भारत किसी समय दुनिया का सबसे मालदार और सबसे बड़ा व्यापारी देश रहा है। उनका मानना है कि भारत में यह जाति-व्यवस्था शोषणकारी वर्ग-व्यवस्था में बदल गई है। उच्च वर्ण के उच्च वर्ग में और उच्च वर्ग के उच्च वर्ण में बदलने का जितना सूक्ष्म विवेचन डाॅ. लोहिया ने किया है, किसी और ने नहीं किया है। कांचा इल्लाइहा ने कोई नई बात नहीं कही है।

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उनकी बात में नयापन यही है कि वे भाजपा और इस बनिया वर्ग में गहरी सांठ-गांठ का आरोप लगा रहे हैं। वे कहते हैं कि बनिया लोगों के लिए ही देश की अर्थ-व्यवस्था का निजीकरण किया जा रहा है। कांचाजी की यह बात गलत है लेकिन उसे सही मान लें तो भी इसका जितना दोष भाजपा के माथे है, उससे 10 गुना ज्यादा कांग्रेस के माथे पर है, क्योंकि लंबा राज तो उसी का रहा है। कांचा इल्लाइहा ने भाजपा और सवर्णों के विरुद्ध अपनी भडांस जमकर निकाली है लेकिन यह नहीं बताया कि देश में जातिवाद के खात्मे के लिए क्या-क्या किया जाए ? बाबासाहब आंबेडकर ने ‘जातिवाद का सर्वनाश’ पुस्तक जरुर लिखी लेकिन आज उन्हीं को दलित जातिवाद का मसीहा बना लिया गया है।

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वे आरक्षण के विरुद्ध थे लेकिन आज आरक्षण जातिवाद की सबसे मजबूत ढाल बन गया है। डाॅ. लोहिया आरक्षण के समर्थक थे लेकिन वे उसके साथ-साथ ‘जात तोड़ो’ आंदोलन भी चलाते थे। मैं भी आरक्षण का समर्थक हूं लेकिन जात के आधार पर नहीं, जरुरत के आधार पर! तथाकथित उच्च जातियों को कोसते रहने से समाज नहीं बदलेगा। जरुरी यह है कि शारीरिक श्रम और बौद्धिक श्रम की कीमतों में जो फासला है, उसे कम किया जाए। आय पर नहीं, खर्च पर कर लगाया जाएं और देश में जातिविहीन समतामूलक समाज स्थापित किया जाए। तभी ऊंचे और नीचे का भेद खत्म होगा। (वरिष्‍ठ पत्रकार वेद प्रताप वैदिक के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं।)