देश में कोई नेता है, क्या ?

समाज को चलाने के लिए जिस नैतिक शक्ति की आवश्यकता है, जिसे नेतृत्व कहते हैं, उसका अभाव दिखाई पड़ रहा है। कानून तो है लेकिन इसके बावजूद पटाखे बिके और छूटे …

New Delhi, Oct 24 : जैसा कि मैंने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर लिखा था, लगभग वही हुआ। पटाखों की बिक्री पर लगी रोक से कोई खास मतलब सिद्ध नहीं हुआ। लोगों ने जमकर पटाखे छुड़ाए और दिल्ली में प्रदूषण 23 गुना ज्यादा बढ़ गया। इसी दिन छपे ‘लांसेट’ के सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में 2015 में प्रदूषण के कारण कोई 25 लाख लोग मौत के घाट उतर गए।  सरकार ने इस सर्वेक्षण के आंकड़े पर कई प्रश्न-चिन्ह लगाए हैं और इस बात को रद्द कर दिया है कि प्रदूषण के कारण मरने वाले लोगों की सबसे ज्यादा संख्या भारत में है।

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हो सकता है कि हमारी सरकार का अभिमत ठीक हो लेकिन आज देश को यह सवाल खुद से पूछना चाहिए कि भारत में नेतृत्व नाम की कोई चीज है या नहीं ? नेता नाम का कोई व्यक्ति है या नहीं ? नैतिक बल नामक कोई शक्ति है या नहीं ? हर काम हम डंडे के जोर पर कराने के आदि हो गए हैं। हम सोचते हैं कि अदालत फैसला कर देगी तो लोग मान लेंगे। सरकार कानून बना देगी तो वह नीति लागू हो जाएगी। यह ठीक है कि शासन चलाने में अदालतों, सरकारों, कानूनों, दंड-विधानों की निश्चित भूमिका है लेकिन समाज सिर्फ इनसे नहीं चलता है।

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समाज को चलाने के लिए जिस नैतिक शक्ति की आवश्यकता है, जिसे नेतृत्व कहते हैं, उसका अभाव दिखाई पड़ रहा है। कानून तो है लेकिन इसके बावजूद पटाखे बिके और छूटे, कानून तो है लेकिन शराब धड़ल्ले से पी जा रही है, कानून के बावजूद गोवध होता रहता है, कानून का डर है जरुर लेकिन रिश्वत खाने में छोटे से बाबू और बड़े से बड़े प्रधानमंत्री भी कोई संकोच नहीं करते। हमारे साधु-संन्यासी, मौलवी-पादरी, गुरु और ग्रंथी क्या कर रहे हैं ? वे करोड़ों लोगों से संकल्प क्यों नहीं कराते कि वे न रिश्वत लेंगे और न देंगे, नशाखोरी नहीं करेंगे, शाकाहार ही करेंगे ।

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अंग्रेजी में अपना काम कम से कम करेंगे, न दहेज लेंगे, न देंगे, अपने दस्तखत स्वभाषा में ही करेंगे, हर व्यक्ति कम से कम एक पेड़ लगाएगा आदि। इस तरह के संकल्प स्वाधीनत संग्राम के दिनों में महर्षि दयानंद, बालगंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, विनोबा और लोहिया जैसे लोग करवाते रहते थे। वे असली नेता थे। कहां चले गए वे नेतागण? उनका आचरण अनुकरण करने लायक होता था लेकिन अब हमारे नेताओं को सिर्फ वोट और नोट की चिंता रहती है। उनमें इतना नैतिक बल है ही नहीं कि वे आम लोगों से शुभ-संकल्प करवाएं।