ताजमहल को ’ताज‘ ही रहने दो, राजनीति का जरिया न बनाओ

योगी ने कहा है कि ताजमहल किसने बनवाया ये महत्त्वपूर्ण नहीं है, महत्त्वपूर्ण ये है कि इसे हिन्दुस्तान के मजदूरों ने अपना खून-पसीना देकर बनाया था

New Delhi, Oct 26: ताजमहल को उत्तर प्रदेश के प्राथमिकता वाले पर्यटन नक्शे से हटाने के अफवाह के बीच दूसरी और तीसरी पंक्तिके नेताओं की अनर्गल बयानबाज ने पूरे मामले को नया मोड़ दे दिया। इस बयानी जंग से जितना नुकसान ताज के पर्यटन को पहुंचेगा, उससे कहीं ज्यादा नुकसान इतिहास में दर्ज इस देश की गंगा-जमुनी तहजीब और साझा विरासत को होगा। पर्यटन कैलेंडर से ताज के बाहर होने को भी संकुचित राजनीति ने धर्म और नस्ल से जोड़ दिया जो सांस्कृतिक विरासत के साथ सामाजिक ताने बाने को भी चोटिल कर रहा है। सवाल यह है कि ताज को लेकर संगीत सोम और दूसरे नेताओं के बयान इतने अहम हैं कि उन्हें इतनी तवज्जो और इतना तूल दिया जाए? उससे बड़ा सवाल सवाल यह है कि उनके बयानों को इतनी तवज्जो आखिर किस तबके और समूह में मिल रही है? दरअसल, ताज के बहाने राजनीतिक भूचाल खड़ा करने के लिए अकेले संगीत सोम ही जिम्मेदार नहीं हैं। उन्होंने तो राजनीतिक बिसात पर एक चाल भर चली है।

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इस चाल से निकलने वाले नतीजों का उन्हें अंदाजा था और नतीजे ठीक वैसे ही आए, जैसा वह चाहते थे। दरअसल, ध्रुवीकरण की राजनीति में संगीत सोम ने अपनी ‘‘जरूरत’ को आजमाने की चाल चली थी। और अपनी इस आजमाइश में वह खुद को अहम साबित करने में कामयाब रहे हैं। उन्होंने न सिर्फ अपने नजरिये को खरा साबित कर दिखाया, बल्कि इस प्रयास में ध्रुवीकरण की लकीर भी खींच दी। ध्रुवीकरण की इस राजनीतिक दुनिया में घोर समर्थकों-विरोधियों और आक्रामक अनुयायियों की कमी नहीं है। जाहिर है समर्थन और दीवानगी साबित करने की होड़-सी लग गई। इस मौखिक युद्ध में आक्रामक समर्थन और विरोध ने फिल्मी संवादों को भी पीछे छोड़ दिया। संगीत सोम को अपने बयान के बाद अचानक ही बढ़ गए कद से ज्यादा और क्या चाहिए। राजनीति में बने रहने के लिए यही जरूरत है। ‘‘गद्दारों के बनाए हुए ताजमहल’ जैसे संवाद ने एक बार फिर अफगानिस्तान के बामियान की याद दिला दी। मार्च 2001 में बामियान में तालिबान ने गैर इस्लामिक बताते हुए 1500 साल पहले बनी गौतम बुद्ध की मूर्तियों को ध्वस्त कर दिया था।

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तालिबान ने तब इसे धार्मिंक चिंतकों और विद्वानों का फैसला बताया था। इस तालिबानी सोच के पीछे भी तर्क कुछ वैसा ही था ‘‘गैर इस्लामी पहचान को नष्ट करने की जरूरत’। गौरतलब है कि तालिबान के पास भी कट्टर और आक्रामक अनुयायियों और समर्थकों की एक पूरी फौज है। यहां यह बताना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि बामियान के आकर्षण का केन्द्र बुद्ध की ये प्रतिमाएं तब अस्तित्व में आई थीं, जब इस्लाम का ऐलान भी नहीं हुआ था। शाहजहां हिन्दुस्तान का एक शासक था। लेकिन वह बाबर की तरह कोई आक्रांता नहीं था। हां, वह बाबर का वंशज और पीढ़ियों बाद उसकी सल्तनत का वारिस था या राजगद्दी का उत्तराधिकारी था। अपने शासन काल के दौरान उसने भारत में जो निर्माण कराए, उसके लिए उसे सिर्फ हिन्दुस्तान का नहीं, बल्कि खूबसूरत इमारतों का भी शहंशाह कहा जाता है। तो वह गद्दार किस तरह था? जिस तर्क पर कट्टर और अलोकतांत्रिक तालिबान ने बुद्ध की मूर्तियों को गैर इस्लामी और गद्दारी की निशानी साबित कर दिया, उसी तर्ज पर देसी धार्मिंक विद्वान भी गद्दारी की नई परिभाषा गढ़ रहे हैं।मगर, न हिन्दुस्तान अफगानिस्तान है, न ही यहां बंदूक के बल पर चलने वाला तालिबानी शासन।

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दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है हिन्दुस्तान। यहां राजनीतिक विषवमन के लिए भी लोकतंत्र की जबान की जरूरत पड़ती है। स्वार्थी राजनीति के लिए भी लोकतांत्रिक मूल्यों का मुखौटा तैयार करना पड़ता है। हां, हैरत तब होती है जब जिम्मेदार हैसियत रखने वाला कोई शख्स घृणा के माहौल को हवा दे और उसे अनुशासित रखने वाले उसके आका उसे अभयदान दें। राहत की बात है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ताज को लेकर बनाए गए माहौल में बहस की गुंजाइश भर दी है। योगी ने साफ कहा है कि ताज किसने बनवाया ये महत्त्वपूर्ण नहीं है, महइत्त्वपूर्ण यह है कि इसे हिन्दुस्तान के मेहनतकश मजदूरों ने अपना खून-पसीना देकर बनाया था और आज यह दुनिया भर के पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र है। अब कोई कुछ भी कहे, ताजमहल को कोई खतरा नहीं है। यह साफ संकेत दे दिया गया है। हालांकि, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का बयान तब आास्त करेगा जब समर्थक और विरोधी बयानबाजों पर लगाम लगे, क्योंकि अफगानिस्तान की बामियान त्रासदी में तत्कालीन तालिबान मुखिया मुल्ला उमर का बयान अपना भरोसा नहीं रख सका था।

उमर ने पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बुद्ध की मूर्तियों को तोड़े जाने की आशंका से इनकार किया था। लेकिन, बाद में जो कुछ हुआ, उसका दोहराव जरूरी नहीं है। आजम खान जैसे लोग जब ये दावा करते हैं कि एक दिन ताज को भी बाबरी ढांचे की तरह गिरा दिया जाएगा, तो उनकी आशंका बामियान के इतिहास से ही उपजी होती है। हालांकि, ऐसे बयानों के पीछे एक खास राजनीतिक मकसद होता है, एक ऐसा रहनुमा बनने का, जिसके बयानों के दीवाने हों और उनके पीछे-पीछे चलें।भारत में कोई तालिबानी सरकार नहीं है जो बामियान की मूर्तियों को तोड़ने जैसा फैसला करे। लेकिन यहां लोकतांत्रिक सरकारों से इतर धार्मिंक सत्ता और संगठन इतने जरूर ताकतवर हैं कि वे सरकारों को प्रभावित कर सकें। कभी वोट बैंक बनकर प्रभावित करते हैं, तो कभी सामाजिक विभाजन का डर बताकर। कभी सरकार का रिमोट कंट्रोल बन जाते हैं, तो कभी खुद ही समानांतर सरकार बन कर मनमानी करते हैं।

यानी राजनीतिक स्वार्थ की फिजा भी लोकतंत्र के मुखौटे लगा कर तैयार की जाती है, जिन्हें उतारना सबसे जरूरी है।ताजमहल पर घृणास्पद बयान उतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, जितना यह कि ये बयान किसके लिए दिए जा रहे हैं। क्या वही पर्दे के पीछे की सत्ता जो इन सरकारों पर अपनी हुकूमत चलाती है? ताज को राजनीतिक विवादों में घसीटने वाले ये लोग इसलिए असरदार साबित हो रहे हैं क्योंकि दूसरे ध्रुव पर वही अल्पसंख्यक धार्मिंक केन्द्र हैं, जो ऐसे माहौल को हवा देकर अपनी सियासत को बनाए रखना चाहते हैं। लोकतांत्रिक मूल्यों के बहाने बहस की आजादी का इस तरह फायदा उठाया जा रहा है कि ध्रुवीकरण की राजनीति और मजबूत हो। इससे संस्कृति समृद्ध हो न हो, राजनीति तो समृद्ध होगी ही। यानी खतरा तो है, लेकिन लोकतंत्र का दोहन करने वाले शायद ये भूल जाते हैं कि अंत में ‘‘लोक’ ही इस ‘‘तंत्र’ का रक्षक बन जाता है, क्योंकि हर गति की एक सीमा होती है और अति का परिणाम कहीं अच्छा नहीं होता।

(वरिष्ठ पत्रकार उपेंद्र राय के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं )