वसुंधरा सरकार के ‘गैरकानूनी’ कानून पर मोदी की चुप्पी और कांग्रेस के अनैतिक विरोध की वजह

शाही परिवारों की रियासत और लोकतंत्र की सियासत का एक फर्क ये होता है कि रियासतों में राजा का ‘हुक्म’ हीं सबकुछ होता है और लोकतंत्र में जनता ही राजा होती है और वहां चुने हुए जनसेवक फैसले लेते हैं… फैसले, जनता के लिए।

New Delhi, 27 Oct : राजस्थान में शाही परिवार की बहू और मौजूदा मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया यही फर्क भूल गईं। और भूलीं भी कुछ यूं कि एक ऐसा बिल लाने की भूल कर गईं जिसको लेकर राजस्थान की सियासत में घमासान मचा है। बिल पहले तो किसी भी जज, मजिस्ट्रेट या सरकारी कर्मचारी के जांच के दायरे में आने से बचाता है क्योंकि बिल के मुताबिक जांच के लिए सरकार की इजाज़त लेना ज़रुरी होगा। दूसरे ये कि बिल मीडिया की स्वतंत्रता पर भी हमला करता है क्योंकि मीडिया को भी भ्रष्टाचार और भ्रष्ट को सामने लाने की इजाज़त नहीं देता। इतना ही नहीं, नियम न मानने पर मीडियाकर्मी को जुर्माने और 2 साल की सज़ा का भी प्रावधान है।हंगामा पुरजोर है लेकिन इस बिल को लेकर कुछ बातें समझना बहुत ज़रुरी है।

Advertisement

1.बिल को लाने का तर्क ही निराधार
सरकार का तर्क ये है कि बिल इसलिए लाया गया ताकि इमानदार कर्मचारियों और अधिकारियों को झूठे आरोपों की परेशानी से बचाया जा सके। लेकिन राजस्थान सरकार के इस तर्क को नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े ही खारिज कर देते हैं। NCRB के मुताबिक 2015 तक राजस्थान में भ्रष्टाचार के 1956 केस दर्ज हुए और जांच में इनमें से सिर्फ 34 केस ही गलत निकले। 338 मामलों में चार्जशीट दाखिल हुई है। अब ऐसे में सवाल है कि अगर गलत और अनरगल आरोपों का प्रतिशत इतना कम है तो ऐसे बिल की ज़रुरत ही क्यों पड़ी? अगर आंकड़े इस बात की तस्दीक करते कि हाल में सरकारी कर्मचारियों को जानबूझकर झूठे मामलों में फंसाने के मामले बढ़े हैं तो सरकार के कदम को समझा जा सकता था, लेकिन यहां ऐसा कुछ भी नहीं है।

Advertisement

2.अदालत की नज़र में गैरकानूनी है ऐसी कोशिश
वसुंधरा सरकार जो कानून लाना चाह रही है और जिस तरह भ्रष्टाचारियों को सुरक्षा कवच दे रही है, ऐसी किसी कोशिश को देश की सर्वोच्च अदालत यानि सुप्रीम कोर्ट पहले ही एक मामले में गैरकानूनी करार दे चुकी है।
2014 में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने फैसला सुनाया था। फैसला, दिल्ली पुलिस स्पेशल ऐक्ट के सेक्शन 6E को लेकर था और कोर्ट ने इस सेक्शन को खारिज कर दिया था। सेक्शन 6E के तहत ज्वाइंट सेक्रेटरी और उससे ऊपर के रैंक के अधिकारी, MLA, MP की जांच सरकारी इजाज़त के बिना नहीं हो सकती थी। अदालत ने सरकारी कर्मचारियों को अलग दर्जा देने और इस तरह के बचाव को गैरकानूनी बताया था।

Advertisement

3.क्यों कांग्रेस को नहीं हंगामा मचाने का नैतिक अधिकार
वसुंधरा सरकार के बिल के खिलाफ सबसे ज्यादा शोर सूबे में कांग्रेसी नेता मचा रहे हैं। लेकिन कांग्रेस ऐसा करने का नैतिक अधिकार रखती भी है या नहीं, ये सवाल इसलिए खड़ा होता है क्योंकि सरकारी बाबुओं को सुरक्षा कवच देने के लिए 2013 में UPA सरकार ही थी जो प्रीवेंशन ऑफ़ करप्शन एक्ट संशोधन बिल लाई थी। और उस संशोधन में भी सरकारी कर्मचारियों के ख़िलाफ़ जांच के पहले सरकार से इजाज़त लेना ज़रुरी बनाया गया था। उस वक्त बिल स्टैंडिंग कमिटी को भेज दिया गया था और बाद में बिल राज्यसभा में पास नहीं हो पाया वरना भ्रष्टाचार करने की ये छूट कांग्रेस के ज़माने में ही मिल गई होती।

4.वसुंधरा सरकार के बिल पर क्यों खामोश हैं मोदी?
राजस्थान के सियासी हंगामे की बीच सबसे बड़ा सवाल तो यही खड़ा हो रहा है कि न खाउंगा और न खाने दूंगा की बात करनेवाले नरेन्द्र मोदी इस मसले पर चुप क्यों हैं। लेकिन तथ्यों को करीब से समझिएगा तो आपको पता चलेगा कि सवाल ये होना चाहिए कि इस मसले पर मोदी और बीजेपी बोलें भी तो किस मुहं से? क्योंकि सरकारी बाबुओं को जांच से बचाने के संशोधन को खुद मोदी कैबिनेट ने मंज़ूरी दी है और बाद में बिल सलेक्ट कमिटी को भेजा गया है। यानि मोदी सरकार भी चाहती है कि पुलिस और CBI जैसी जांच एजेंसियों के लिए सरकारी कर्मचारियों की जांच के पहले सरकार से इजाज़त लेना ज़रुरी बनाया जाए। इसके पीछे भी तर्क ईमानदार अधिकारियों की रक्षा को बताया जा रहा है।

इतना ही नहीं, जून, 2015 में महाराष्ट्र की फडणवीस सरकार CrPC की धारा 156(3) और 190 में बदलाव कर ऐसा ही प्रावधान ला चुकी है।यानि सीधे सीधे ये समझिए की हमाम में सब नंगे हैं। कांग्रेस भी ऐसी ही कोशिश कर चुकी है लेकिन आज राजनीतिक फायदे का मौका हा से जाने नहीं देना चाहती और उधर बीजेपी खुद केन्द्र में जैसा कानून लाना चाह रही है वैसे ही कानून का विरोध राजस्थान में करे तो कैसे करे। हां, ये ज़रुर हो सकता है कि हंगामे को देखते हुए मीडिया पर पाबंदी के क्लॉज़ को हटा लिया जाए लेकिन सवाल ये है कि क्या इससे मसला हल हो जाता है? इससे इनकार नहीं कि ईमानदार अधिकारियों को बचाया जाना चाहिए लेकिन बचाने की आड़ में भ्रष्ट मज़े लूटें, देश को लूटें ये नहीं होना चाहिए।

अगर जांच एजेंसियां ईमानदार अफसरों को बेवजह परेशान कर सकती हैं तो ऐसी जांच और ऐसी जांच एजेंसी की खामियों को खत्म कीजिए, लेकिन ऐसा सुरक्षा कवच तो मत तैयार कीजिए जिसमें भ्रष्ट भी बच निकलें। देश में ज्यादातर आम आदमी ऐसे मिल जाएंगे जो चोरी चकारी नहीं करते लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि अपराधियों को पक़ड़ने की बजाए ऐसा कानून आ जाए कि हर व्यक्ति को पकड़ने से पहले सरकार से इजाज़त लीजिए ताकि कोई ईमानदार परेशान न हो जाए। अगर सरकारें ऐसा ही करती रहेंगीं तो इस शक को बेवजह हवा मिलेगी कि नेता, सरकारी कर्मचारियों की आड़ में अपने भ्रष्टाचार को पर्दे के पीछे रखने की कोशिश तो नहीं कर रहे।
(पत्रकार सुशांत सिन्‍हा के फेसबुक वॉल से साभार। ये लेखक के निजी विचार हैं।)