उजड़ने की कगार पर तो नहीं पहुंच गया है हजारों साल पुराना सोनपुर मेला?

एशिया के सबसे बड़े पशु मेला के रूप में मशहूर के इतिहास की यह संभवतः पहली घटना होगी जब दुकानदारों ने खुद ही मेले में बंदी की घोषणा कर दी है.

New Delhi, Nov 10 : जी हां, आज सोनपुर मेला बंद है. दिलचस्प है कि मेले के सभी दुकानदारों ने यह बंदी उन नर्तकियों की गिरफ्तारी के विरोध में किया है, जिन्होंने दो रोज पहले डांस थियेटर के संचालन की इजाजत नहीं मिलने पर विरोध प्रदर्शन किया था. स्थानीय प्रशासन का कहना था कि डांस थियेटरों के सामने लगे अश्लील पोस्टरों से लग रहा है कि अंदर अश्लील डांस होगा, इसलिए इजाजत नहीं दी गयी है. उधर आज मेला बंद करने वाले दुकानदारों का कहना है कि इन नर्तकियों की वजह से ही मेले में ग्राहक आते हैं और उनकी बिक्री होती है, ऐसे में वे उन नर्तकियों पर हो रहे अन्याय का कैसे विरोध न करें.

Advertisement

पिछले तीन-चार साल से मैं लगातार सोनपुर मेला जाता रहा हूं. यह सच है कि इस मेले में भीड़ हमेशा से दो-तीन वजहों से आती रही है. पहला पालतू पशुओं और पक्षियों की खरीद-बिक्री की वजह से, दूसरा इन डांस थियेटरों की वजह से. इन तमाम चीजों में कानून का लोचा रहता है, और इन्हीं कानूनी सख्तियों की वजह से मौर्यकालीन कहा जाने वाला एशिया का यह सबसे बड़ा पशुमेला उजड़ता जा रहा है. अब यहां न दुधारू पशु आते हैं, न हाथी, न पक्षी, प्रशासन का अगर यही रवैया रहा तो इन डांस थियेटरों का आना भी बंद ही समझिये.

Advertisement

इस पूरे मसले को समझने के लिए कायदे-कानून से इतर पहले सोनपुर मेला की परंपरा को समझना चाहिए. गंगा और गंडक नदी के संगम पर हरिहरनाथ मंदिर के पास लगने वाले इस मेले के बारे में कई मिथकीय और ऐतिहासिक कथाएं हैं. कुछ लोग इसे शैव और वैष्णव संप्रदायों का मिलन स्थल मानते हैं, तो कुछ लोग इसे गज और ग्राह के युद्ध से जोड़़ते हैं. कुछ इतिहासकारों का कहना है कि मौर्यकाल से ही यहां पशुमेला लगता रहा है. पालतू और युद्धोपयोगी पशुओं का यह सबसे बड़ा मेला है. राहुल सांकृत्यायन के हवाले से यह भी कहा जाता है कि हरिहरनाथ मंदिर में शुंगकालीन पत्थरों के अवशेष मिले हैं. चीनी यात्री ह्वेनसांग ने इस मेले का जिक्र अपने यात्रा वृत्तांत में किया है. अकबर के सेनापती मानसिंह द्वारा यहां सेना के लिए हाथियों और घोड़ों के खरीदने का जिक्र तो है ही. यह जिक्र भी है कि पहले मेला किसी और जगह लगता था, मौजूदा जगह पर इस मेले को लगने की शुरुआत औरंगजेब ने की.

Advertisement

इसका इतिहास जो भी हो मगर यह तय है कि इस मेले का महत्व सैनिकों और किसानों दोनों के इस्तेमाल के लिए पशुओं के एक बड़े बाजार के तौर पर था. यह मेला सबसे लंबे समय तक चलने वाले मेलों में से एक है. एक महीने से अधिक वक्त तक यह मेला लगता है. बाद में इस मेले के दुकानदार सिंहेश्वर, गुलाबबाग, बौंसी वगैरह जाते हैं और फिर लौट आते हैं. इस मेले में डांस थियेटरों की शुरुआत कब हुई इसकी जानकारी मुझे नहीं है. मगर मुमकिन है कि चुके सैनिकों का यहां आना-जाना रहता होगा तो उनके मनोरंजन के लिए नर्तकियां भी आती होंगी. वैसे भी यह इलाका वैशाली की नगरवधु आम्रपाली का रहा है.

तीन-चार सालों से मैं हर बार लिखता हूं कि सोनपुर अब पशुमेला नहीं रहा. आप पूरे सोनपुर मेले में घूम आइये. न गायें दिखेंगी, न बैल, हाथियों की खरीद बिक्री पर तो पहले से ही प्रतिबंध है. हां, घोड़े जरूर दिखेंगे. क्योंकि इस इलाके में और बिहार के दियरा इलाके में घोड़े के खरीदार बड़ी संख्या में हैं. और मोकामा के विधायक अनंत सिंह इनके ब्रांड अम्बेस्डर हैं. हर साल यहां तकरीबन एक हजार घोड़े बिक जाते हैं, जिनकी कीमत एक से पांच लाख तक होती है. पिछले साल मैंने आलेख लिखा था. स्कारपियो और सफारी के जमाने में कौन खरीद रहा है घोड़े.

मगर यह अपने आप में दुःखद तथ्य है कि अब सोनपुर मेले में दुधारू पशु नहीं बिकते. पिछले साल जब मैं गया था तो गाय बाजार में मुश्किल से 15-20 गायें और बछड़े नजर आये. बैल बाजार सूना पड़ा था. भैंसों का कोई अता पता नहीं था. हाथी बस रस्म अदायगी के लिये आये थे और चले गये. महज छह-सात साल पहले तक मेले के गाय बाजार में 50-55 हजार गायें जमा होती थीं, अब 20-25 गाय भी नहीं दिखती. आंकड़े बताते हैं कि सोनपुर मेले में 2013 में 94 और 2012 में 107 गायें बिकी थीं, 2014 और 2015 में तो गायों का आना ही बंद हो गया.

बैल बाजार के आसपास रहने वालों ने बताया कि मेले की शुरुआत में कुछ बैल आये थे, मगर वे लोग कार्तिक नहा कर लौट गये. हाथी बाजार का भी यही हाल है. कार्तिक पूर्णिमा के दिन कुछ हाथी वाले इसलिए आ जाते हैं, क्योंकि सोनपुर मेले के पीछे गज-ग्राह ही कथा है. राज्य में हाथी की खरीद बिक्री पर पहले से ही रोक है. पिछले कुछ साल से हाथी वाले एक दूसरे के साथ हाथी की अदला-बदली कर इस परंपरा को निभा लेते हैं. बकरी बाजार के छोटे से कैंपस में कुछ बकरियां दिखती रही हैं.

राज्य का पशुपालन विभाग यहां से हर साल डेयरी पालकों के लिए 10-12 हजार गायें खरीदा करता था. पशुपालन निदेशालय के एक सीनियर ऑफिसर डॉ. रमेश कुमार बताते हैं, वे लंबे समय तक समस्तीपुर में पदस्थापित थे और मेले के दौरान हर साल के अपने जिले के लिए 300 से अधिक गायें खरीदा करते थे, यह 2001-02 की बात है. उस जमाने में बड़ी संख्या में डेयरी फार्मिंग से जुड़े बैंकर और पशुपालन विभाग के अधिकारी पूरे राज्य से मेले में पहुंचते थे. मगर 2005 में जब जदयू-भाजपा की सरकार बनी तो बिहार में पशुओं के आवागमन को लेकर कड़े कानून बना दिये गये. इसके अलावा पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में भी इससे संबंधित कानूनों को कड़ाई से लागू किया जा रहा है. इसलिए हरियाणा और पंजाब से ऊंची नस्ल के दुधारू पशुओं की आवक एकाएक बंद हो गयी.

गायों के इस मेले में नहीं पहुंचने की कई वजहें हैं. उनमें सबसे बड़ी वजह गौरक्षकों का आतंक है, जिसके कारण आज देश में कहीं भी गायों को एक जगह से दूसरी जगह लेकर जाना काफी मुश्किल काम हो गया है. सोनपुर मेला के बारे में तो राज्य के उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी कहते रहे हैं कि सोनपुर मेले के नाम पर पशु तस्कर भारी संख्या में दुधारू पशुओं को लेकर बिहार आते हैं और फिर उन्हें बांग्लादेश लेकर चले जाते हैं. 2005 में जब वे उप मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने बिहार से पशुओं के निर्यात पर रोक लगा दी. 2015 में राज्य में महागठबंधन की सरकार बनने पर 22 नवंबर को लालूजी पूजा करने सोनपुर पहुंचे थे. तब उन्होंने वादा किया था कि उनकी सरकार पशु मेले के गौरव को लौटाने के लिए कानून में बदलाव करेगी. मगर बात आयी गयी हो गयी. अभी भी स्थिति जस की तस है.

इस साल से मेले में चिड़िया बाजार भी बंद हो गया है. चिड़िया बाजार एक व्यवसायी अकेले लगाता था और वहां तोते और कुत्तों को बेचता था. हर साल बाहर के मीडिया वालों के लिए चिड़िया बाजार हॉट स्टोरी होता था कि यहां प्रतिबंधित पक्षी बिक रहे हैं. हालांकि दुकानदार कुछ लव बर्ड्स टाइप पक्षी भी रखता था, जिनके व्यापार पर रोक नहीं थी. पशु अधिकारों के एक्टिविस्ट भी इस मेले में छापेमारी के लिए आते रहे हैं. और तो और यहां एक थाने का नाम भी चिड़िया बाजार थाना था. अब यह बंद हो गया है और लोगों का एक और आकर्षण भी कम हो गया है. मैंने इनका समर्थन नहीं कर रहा. मगर कुत्तों और लव बर्ड्स टाइप पक्षियों की बिक्री पर कहीं रोक नहीं है. अगर प्रशासन चाहता तो इस दुकान को कानून के दायरे में लाया जा सकता था.

यह सच है कि इन नर्तकियों के जीवन में गहरा अंधेरा है. ये कई किस्म के शोषण का शिकार भी हो रही हैं. मगर इसे रोकना भी तो प्रशासन का ही काम है. प्रशासन का काम रास्ता निकालना है. हां, अगर बंद करना है तो बंद ही कर दे. इस मामले में मेरी कोई स्पष्ट राय नहीं है कि ऐसे नृत्य हों या न हों. मगर सोनपुर जैसे ग्रामीण मिजाज के मेलों के प्रशंसक के तौर पर मैं यह जरूर चाहता हूं कि ऐसे मेले जिंदा रहें यह पहली प्राथमिकता होनी चाहिए. मगर यह कहीं न कहीं लगता है कि कानूनी सख्तियों के नाम पर इस ग्रामीण मेले को खत्म किया जा रहा है. आज सोनपुर मेला में सिर्फ सरकारी स्टॉलों की प्रदर्शनियां नजर आती हैं. इस स्वतः स्फूर्त मेले का यह स्वरूप नहीं था. इसे लोगों ने बनाया और हजारों साल तक अपने तरीके से जिंदा रखा. मगर अब लगता है कि कहीं यह मेला उजड़ न जाये.
(वरिष्ठ पत्रकार पुष्य मित्र के फेसबुक पेज से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)