नई उम्मीदों वाले राहुल गांधी, सियासत में अब गंभीर हो रहे हैं

राहुल गांधी के सधे लक्ष्य और परिपक्व संबोधन के कारण ही लोग अब उन्हें संजीदगी से सुनने के लिए तैयार नजर आते हैं। प्रचार के दौरान जुटती भीड़ इसका सबूत है।

New Delhi, Nov 28: राहुल गांधी के लिए 47वां साल यादगार बनने जा रहा है। एक वजह तो तय है और दूसरी वजह पर नजर है। कांग्रेस का अध्यक्ष बनना वक्त का इंतजार करने जैसा है जिसके लिए उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है जबकि गुजरात में वक्त बदलने में दिन-रात जुटी है राहुल की टीम। राहुल से गुजरात में बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद की जा रही है। कुछ समय पहले तक ऐसा सोचना दिवास्वप्न कहा जाता था, लेकिन बदली हुई परिस्थितियों में अब राहुल के लिए ऐसा सोचा जाने लगा है। राहुल के लिए 2017 इसलिए भी यादगार रहेगा कि इस साल उन्होंने खुद को रिकवर किया है और अब वे राजनीति में गम्भीरता से लिए जाने लगे हैं।भारतीय राजनीति में राहुल आज भी ऐसे युवा नेता के तौर पर देखे जाते हैं, जो सीख रहा है। उनकी तुलना अक्सर कोरा कागज से होती है। जिस पर पहले से कुछ नहीं लिखा है। जिस पर राजनीति का ककहरा भी लिखा जाना बाकी है। इस तुलना को भले ही राहुल की कमजोरी के तौर पर बताया जाता रहा हो, लेकिन हकीकत ये है कि इस तुलना से उम्मीद जगती है। राहुल की प्रयोगधर्मिंता गुजरात में भी दिख रही है। राहुल अपने पिता राजीव गांधी के नक्शे कदम पर चलने की कोशिश कर रहे हैं।

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जिस तरह 1985 में माधव सिंह सोलंकी के साथ मिलकर राजीव गांधी ने आदिवासी, दलित, ओबीसी और मुसलमानों को एकजुट कर 182 विधान सभा सीटों में से 149 पर जीत हासिल की थी, उसी तरीके से राहुल गांधी ने भी भरत सिंह सोलंकी के साथ मिलकर यह कोशिश की है जिसमें उन्हें पाटीदारों का अतिरिक्त साथ मिल गया है। राहुल के लिए पंजाब में कांग्रेस की सरकार बनाने की उपलब्धि भी गुजरात में काम आ रही है। अगर पंजाब में कांग्रेस सफल नहीं होती या आम आदमी पार्टी ने लीड ले लिया होता तो आज गुजरात में भी तीसरे नम्बर की पार्टी बनी नजर आती। इस तरह आम आदमी पार्टी के रूप में अपना वोट बंटने देने की आशंका को कांग्रेस ने पंजाब में ही खत्म कर दिया था। गुजरात में एन्टी इनकम्बेन्सी को भुनाने के लिए राहुल की कांग्रेस के सिवा कोई नहीं है।यह राहुल के प्रयासों का ही नतीजा है कि पिछड़ा और अन्य पिछड़ा वर्ग के युवा नेता अल्पेश ठाकोर चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस में शामिल हो गए और दलित नेता जिग्नेश मेवाणी भी पर्दे के सामने और पीछे से कांग्रेस के साथ खड़े नजर आ रहे हैं। माना जा रहा है कि इन युवा नेताओं ने पिछले कुछ वर्षो में प्रदेश की राजनीति में नए समीकरण बना दिए हैं और इन्हें अपने समुदायों का भारी समर्थन हासिल है। राहुल ने जीत के लिए देश के जिस युवा वर्ग को लक्ष्य बनाया है, ये तीनों युवा नेता उसी की नुमाइंदगी करते हैं।

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गुजरात को मोदी के विकास मॉडल के रूप में देखा जाता रहा है, लेकिन विकास के इन दावों के बीच ये युवा नेता अपने-अपने समुदायों की उपेक्षा और अपमान के आरोप लगाते रहे हैं। राहुल ने इसी युवा आक्रोश को भुनाने का बड़ा दांव खेला है।औद्योगिक राज्य गुजरात में एक तरफ जहां राहुल ने नोटबंदी और जीएसटी को अपना प्रमुख मुद्दा बनाया है, वहीं बेरोजगारी और शिक्षा में युवाओं की उपेक्षा को आक्रामक ढंग से सामने रखा है। राहुल गांधी ने लगभग अपनी सभी सभाओं में दावा किया है कि जीएसटी ने देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ तोड़ दी है और मोदी सरकार देश के गिने-चुने पांच-छह उद्योगपतियों को ही लाभ पहुंचाने के लिए काम कर रही है। बीजेपी सरकार की आर्थिक नीतियों को उन्होंने एमएमडी यानी मोदी मेड डिजास्टर करार दिया, तो जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स बताया।दूसरी तरफ, युवाओं को संबोधित करते हुए उन्होंने मोदी के विजन पर जोरदार हमले किए हैं। शिक्षण संस्थानों में डोनेशन और गरीबों की अनदेखी के साथ बड़े पैमाने पर फैलती बेरोजगारी को उन्होंने अपना हथियार बनाया है।

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चुनाव अभियान की शुरुआत ही उन्होंने बेरोजगारी को लक्ष्य बनाते हुए की। मोदी के स्टार्ट अप इंडिया से लेकर मेड इन इंडिया तक के सपनों और चीन के मुकाबले भारत की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के दावों पर उन्होंने तीखे हमले किए। राहुल ने आंकड़ों के हवाले से कहा कि चीन में हर 24 घंटे में 50 हजार लोगों को सरकार रोजगार देती है, जबकि हमारे देश में यह संख्या महज 240 है। इसके अलावा, आज भी युवाओं के हाथ जो मोबाइल फोन दिखते हैं, उन पर मेड इन इंडिया के बजाय मेड इन चाइना ही लिखा नजर आता है। राहुल गांधी के सधे लक्ष्य और परिपक्व संबोधन के कारण ही लोग अब उन्हें संजीदगी से सुनने के लिए तैयार नजर आते हैं। चुनाव प्रचार के दौरान जुटती भीड़ इसका सबूत है।लेकिन राहुल के सामने मोदी विजन के मुकाबले राहुल विजन को स्थापित करना और लोगों तक उसे पहुंचाना बड़ी चुनौती है। यूनिर्वसटिी ऑफ कैलिफोर्निया में उन्होंने यह माना कि वह नरेन्द्र मोदी की तरह अच्छे वक्ता नहीं हैं।

अब सवाल यह है कि उन्हें सुनने के लिए जुटती भीड़ क्या वोटों में बदल पाएगी? क्योंकि यही भीड़ किसी को राजनीतिक दर्जा देकर उसे नेता बनाती है और यही भीड़ किसी नेता को नकार देती है। गुजरात चुनावों की बात करें तो राजनीतिक पंडितों का आकलन काफी कुछ राहुल के पक्ष में जाता नजर आता है। प्रेक्षकों का मानना है कि जिस तरह राहुल ने गुजरात में मोदी की नीतियों को निशाना बना कर युवाओं को अपने पक्ष में खड़ा किया है, उसने राज्य में 22 साल से सत्ता में मौजूद बीजेपी और उसके नेताओं की पेशानी पर पहली बार बल डाले हैं।हालांकि, 182 सदस्यों वाली विधान सभा में सरकार बनाने के लिए 92 विधायकों की जरूरत है, जो राज्य भर में जड़ों तक फैली बीजेपी और उसके चमत्कारी नेताओं मोदी और शाह के लिए बहुत मुश्किल काम नहीं है। फिर भी, यह राहुल ही हैं, जिन्होंने एक तरफ बीजेपी के लिए आशंकाओं के घेरे बना दिए हैं, तो दूसरी तरफ दो दशकों में पहली बार राज्य के कांग्रेसी नेताओं में उम्मीद की किरण भी पैदा कर दी है। दरअसल, राहुल पूरे चुनाव अभियान के दौरान आत्मविास से लबरेज नजर आए हैं। मोदी की काट में उन्होंने मोदी की तरह ही चुटीले व्यंग्य और चुटकुलों को अपना हथियार बनाया है। मुहावरों का बेहतर इस्तेमाल किया है और सधी हुई भाषा में मर्यादाओं का भी ध्यान रखा है।

माना जा सकता है कि उनकी इस रणनीति ने लोगों, खासकर युवाओं में उनकी परिपक्व छवि को बेहतर बनाया है। जिस यूपीए सरकार को देश के लिए घातक बताकर बीजेपी केन्द्र और उसके बाद अधिकांश राज्यों में सत्ता में आई है, अब राहुल उसी कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार को मोदी सरकार से बेहतर साबित करने के लिए परिपक्व ढंग से मुद्दा बना रहे हैं।तीन साल से राजनीति में सक्रिय राहुल अब तक कांग्रेसियों की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे हैं। औपचारिक रूप से वह भले ही कांग्रेस के मुखिया न रहे हों, लेकिन अनौपचारिक रूप से कांग्रेस की कमान उन्हीं के हाथों में रही है। इस दौरान कांग्रेस धीरे-धीरे पतन की ओर ही जाती रही है। इस लिहाज से तीन सालों से राजनीति में सक्रिय और पारिवारिक विरासत को गुणों के आधार पर देखने की नसीहत देने वाले गांधी परिवार के नुमाइंदे राहुल गांधी के लिए ये चुनाव अग्निपरीक्षा साबित होंगे।

(वरिष्ठ पत्रकार उपेंद्र राय के फेसबुक पेज से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)