न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की चर्चा, इसके लिए जिम्मेदार कौन है ?

यदि रामास्वामी को संसद के प्रस्ताव से हटा दिया जाता तो न्याय पालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार पर काबू पाने में सुविधा होती।

New Delhi, Dec 29: न्यायपालिका में करप्शन की चर्चा तो खूब होती है पर, इसके लिए कौन अधिक जिम्मेदार है ? खुद न्यायपालिका या राजनीतिक कार्य पालिका ? इस का जवाब एक खास प्रकरण से मिल जाता है। वह प्रकरण है जस्टिस रामास्वामी के खिलाफ महा भियोग का प्रकरण। रामास्वामी के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे। 10 मई 1993 को लोक सभा में सोम नाथ चटर्जी ने महाभियोग प्रस्ताव पेश किया था। कपिल सिबल ने लोक सभा में रामास्वामी के बचाव में छह घंटे तक बहस की। 11 मई 1993 को महाभियोग प्रस्ताव इसलिए गिर गया क्योंकि कांग्रेस और मुस्लिम लीग के 205 सदस्यों ने सदन में चर्चा के दौरान उपस्थित रहते हुए भी मतदान में भाग ही नहीं लिया। प्रस्ताव के पक्ष में मात्र 196 मत पड़े।

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ध्यान देने लायक बात यह रही कि महाभियोग प्रस्ताव के विरोध में एक भी मत नहीं पड़ा। यानी जिन सदस्यों ने मतदान में भाग नहीं लिया,वे लोग भी रामास्वामी के पक्ष में खड़े होने का नैतिक साहस नहीं रखते थे।जबकि कांग्रेस ने यह कहते हुए मतदान के लिए कोई व्हीप जारी नहीं किया था कि ऐसे मामले में लोक सभा को अर्ध न्यायिक निकाय के रूप में काम करना पड़ता है और सदस्योें की हैसियत जज की होती है।ऐसे में जजों को व्हीप के रूप में निदेश कैसे दिया जा सकता है।बेहतर हो कि कांग्रेस के सदस्य अपने स्व विवेक के अनुसार ही मतदान करें।पर जज का रूप लिए लोग भी खुद को कुछ और ही साबित कर गए।

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हां,सुप्रीम कोर्ट ने रामास्वामी के प्रति वही रुख नहीं अपनाया जैसा सत्ताधारी दल कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने अपनाया।इस अंतर पर गौर करिए। महाभियोग से बचने के बावजूद रामास्वामी के साथ सुप्रीम कोर्ट में कोई जज बेंच में बैठने को तैयार नहीं हुआ। अंततः 14 मई 1993 को रामास्वामी ने सुप्रीम कोर्ट से इस्तीफा दे दिया। लोक सभा के स्पीकर के आग्रह पर न्यायाधीशों की ही कमेटी ने रामास्वामी के खिलाफ आरोपों की जांच की थी। 14 में से 11 आरोप सही पाए गए थे।उसके बाद ही सदन में महाभियोग प्रस्ताव आया था।वह आजाद भारत का पहला मौका था जब किसी जज को पद से हटाने के लिए संसद में प्रस्ताव आया था।

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पर उस मौके को भी सत्ताधारी दल ने विफल कर दिया। यदि रामास्वामी को संसद के प्रस्ताव से हटा दिया जाता तो न्याय पालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार पर काबू पाने में सुविधा होती। यह संयोग नहीं था कि उस रामास्वामी ने 1999 में ए डी एम के के टिकट पर लोक सभा का चुनाव लड़ा।यह भी संयोग नहीं है कि  उस दल की सर्वोच्च नेता जय ललिता को भ्रष्टाचार के आरोप में सजा हुई थी। यानी राजनीति के बीच के भ्रष्ट लोग चाहते हैं कि न्याय पालिका में करप्शन बना रहे ताकि वे जरूरत पड़ने पर उसका लाभ उठा सकें।

(वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर के फेसबुक पेज से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)