मुस्लिम महिलाओं को ऐतिहासिक तोहफा

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तीन तलाक पर बन रहे कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का मन बनाया है। यह उनका हक है।

New Delhi, Dec 31: अपनी जड़ें जमा चुकीं बुराई को हटाने के लिए जितना संघर्ष करना पड़ता है, उतना संघर्ष शायद किसी नए सिद्धांत या प्रचलन को प्रस्थापित करने के लिए नहीं करना पड़ता। तीन तलाक यानी तलाक-ए-बिद्दत ऐसी बुराई थी, जिसे दूर हटाने की कोशिश में दुनिया की सबसे बड़े लोकतांत्रिक व्यवस्था को भी नाकों चने चबाने पड़ गए। कई लोगों के चेहरे ऐसे उतर गए मानो कड़वा घूंट पिलाया गया हो। मगर नरेन्द्र मोदी सरकार का यह ऐसा कड़वा घूंट है, जिसका असर दवा की तरह होगा और जिसे भारतीय इतिहास में उपलब्धि के रूप में लम्बे समय तक याद किया जाता रहेगा।तलाक-ए-बिद्दत की कुप्रथा शरीयत के मुताबिक नहीं थी, इसे शरीयत के विद्वान भी जानते हैं। यही वजह है कि पाकिस्तान समेत दुनिया के 22 देशों ने इस कुप्रथा से अपना पिंड बहुत पहले छुड़ा लिया, लेकिन हिंदुस्तान को फैसला लेने में वक्त लगा। इसकी वजह राजनीति में पैठ बना चुकी तुष्टीकरण की कुप्रथा है, लेकिन लोकतंत्र का सौंदर्य देखिए कि राजनीति ने ही मुक्ति का मार्ग भी दिखाया। इतना जरूर है कि यह राजनीति परम्परागत राजनीति की विपरीत धारा है।हिंदुस्तान का समाज धार्मिंक मतांतरों से ऊपर उठकर पुरु षवादी रहा है। सवाल ये है कि तीन तलाक के मामले में पुरु षवादी अहंकार अड़चन के रूप में इस बार सामने क्यों नहीं आया? इसका श्रेय अगर किसी एक व्यक्ति को दिया जाना चाहिए तो निस्संदेह वे स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी होंगे, जिन्होंने अपने हक की लड़ाई लड़ रहीं मुस्लिम महिलाओं का खुलकर साथ दिया।

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अदालत में सरकार के रुख में जो बदलाव आया, उसने उन महिलाओं को पुरु षवादी और धार्मिंक कट्टरता से लड़ने की हिम्मत दी और अदालत ने भी इस बात को समझा कि जितनी देरी होगी, उतनी ही बड़ी तादाद में मुसलमान महिलाएं तीन तलाक की शिकार होंगी।तीन तलाक ने पुरु षों को महिलाओं की मुख्तारी दे दी थी। जब चाहे वह अपने ऊपर आश्रित महिला को अपने जीवन से बेदखल कर सकते थे, उनका सुकून छीन सकते थे, उन पर अपने पैदा किए हुए बच्चों की जिम्मेदारी थोप सकते थे और खुद अपने लिए नया निकाह कर सकते थे। तलाकशुदा महिला यानी दोयम दर्जे की महिला के दोबारा निकाह की जिम्मेदारी भी पुरुष निभाते रहे हैं, लेकिन इस मेहरबानी से पहले उन्हें ‘‘हलाला’ के नर्क में धकेल कर उनके शरीर और आत्मा को अंदर से तोड़ दिया जाता था। ऑल इंडिया मुस्लिमपर्सनल लॉ बोर्ड ने यह मानने में देरी कर दी कि तीन तलाक गलत है। बाद में इसे माना, लेकिन इस दावे के साथ कि इस मामले को हल करने की जिम्मेदारी सिर्फ और सिर्फ उनकी है।

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लेकिन न ही अभियोजन पक्ष ने और न ही अदालत ने बोर्ड के इस दावे को माना। सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक की कुप्रथा को महिलाओं के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन माना और केंद्र सरकार को छह महीने के भीतर इससे छुटकारा दिलाने का प्रावधान करने को कहा।सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार जब मोदी सरकार ‘‘द मुस्लिम वुमन प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन मैरिज एक्ट’ लेकर सामने आई तो नया सवाल उठ खड़ा हुआ। सवाल उठाने वाले लोग वही थे जो प्राय: मोदी विरोधी राजनीति के परम्परागत प्रतिनिधि रहे हैं। लेकिन उनके सवालों में भी महिलाओं के हितों की चिंता नहीं, पुरु षों के हितों की चिंता अधिक थी। असदुद्दीन ओवैसी ने इस कानून को ‘‘मुस्लिम मदरे को जेल में डालने की साजिश’ करार दिया। बाकी दलों ने भी तीन तलाक के गुनहगारों को 3 साल की सजा के प्रावधान का विरोध किया। मगर मोदी सरकार ने सारी आपत्तियों को खारिज करते हुए सदन से इसे पारित करा लिया।

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ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तीन तलाक पर बन रहे कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का मन बनाया है। यह उनका हक है। लेकिन सरकार की ओर से केंद्रीय कानून मंत्री ने आपत्ति जताने वालों को साफ तौर पर बता दिया कि तीन तलाक के गुनहगारों के अधिकारों की बात तो की जा रही है, लेकिन उन महिलाओं की आवाज कौन बनेगा, जो उनके गुनाहों की सजा भुगतती रही हैं। पीएम मोदी ने देश को आास्त किया कि इस कानून का मकसद महिलाओं से भेदभाव खत्म करना, उन्हें सुरक्षा और सम्मान देना है।राजनीतिक टकराव तो होते रहेंगे। इस बात पर भी बहस होती रहेगी कि सत्ताधारी बीजेपी का तीन तलाक कानून बनाने के पीछे मकसद पाक है या नहीं, लेकिन जब शरीयत के जानकार ट्रिपल तलाक को गलत बताते हैं, खुद ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इसे गलत मान चुका है, तब इसके विरोध पर अड़े रहना कितना सही है। यह संभव है कि कानून के मसौदे से कोई असहमत हो, लेकिन कानून बनाने की जरूरत से तो कोई असहमत नहीं हो सकता।

अगर सत्ताधारी बीजेपी के लिए मुसलमानों के प्रति दुराग्रह रखने या हिन्दूवादी होने के आरोप है, तो पूर्ववर्ती सरकार पर भी तुष्टीकरण की नीति पर चलने के आरोप हैं। ये आरोप-प्रत्यारोप अपने-अपने नजरिए से सही या गलत दोनों हैं, लेकिन इस आधार पर जिस तीन तलाक के प्रचलन को सुप्रीम कोर्ट ने नाजायज ठहरा दिया है, उसे नहीं हटाने की जिद करना तो बिल्कुल गलत है। इसलिए मोदी सरकार की दृढ़ता और मानसिक मजबूती की तारीफ की जानी चाहिए कि वह इस किस्म की राजनीति की चपेट में आने से बच सकी।तीन तलाक पर बन रहे कानून को लेकर यह आपत्ति जरूर ध्यान देने योग्य है कि कहीं इसका दुरु पयोग न हो। कहीं अदालत में लम्बित मामलों की संख्या में इस कदर बढ़ोतरी न हो जाए कि न्याय में विलम्ब वाला अन्याय बढ़ जाए। इससे व्यवस्था बनने के बजाए व्यवस्था बिगड़ जा सकती है। इसलिए जरूरी यह भी है कि तीन तलाक पर बने कानून के सही तरीके से लागू होने की निगरानी हो। इसमें जरूरी सुधार को स्वीकार किया जाए। आखिर हर हाल में इस कानून का जो मकसद है कि मुसलमान महिलाओं को राहत दी जाए, वह मकसद पूरा होना चाहिए।

यह उदाहरण दिया जाता है कि बाल श्रम कानून के रहते हुए भी बाल श्रम जिंदा है, बाल विवाह कानून के बनने के बाद भी एक करोड़ से ज्यादा बाल विवाह हो चुके हैं तो क्या इसी तरीके से तीन तलाक पर कानून बनने के बाद भी तीन तलाक की घटनाएं होती रहेंगी? इस पर निगरानी की व्यवस्था बनाना कानून बनाने से ज्यादा जरूरी है; क्योंकि ऐसा नहीं हुआ तो ये आशंका खारिज नहीं की जा सकती कि पहले जहां केवल महिलाएं जुल्म का शिकार हुआ करती थीं, अब पुरु ष भी इस कानून से प्रताड़ित हो रहे हैं। अगर ऐसा हुआ तो गलत होगा। कानून निर्माताओं को इस पर भी विचार करना होगा।अंत में, हमें सती प्रथा से भी सबक लेना चाहिए जो कानून के जरिए ही बंद हो सका। हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि तीन तलाक जैसी कुप्रथा से भी मुसलमान महिलाओं को छुटकारा मिलेगा। अगर सती प्रथा पर रोक 19वीं शताब्दी की उपलब्धि है, तो तीन तलाक पर रोक 21वीं शताब्दी की। तब सती प्रथा पर रोक के हीरो थे राजाराम मोहन राय और अब नायिका हैं खुद मुसलमान महिलाएं और नायक हैं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी। भारत के लिए यह सदी तीन तलाक को खत्म करने के लिए जानी जाएगी।

(वरिष्ठ पत्रकार उपेंद्र राय के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)