क्या जिग्नेश मेवाणी बर्बाद कर देंगे मायावती की दलित राजनीति ?
क्या जिग्नेश मेवाणी गुजरात से बाहर निकलकर पूरे देश में दलितों की राजनीति करना चाहते हैं। मायावती पर इसका क्या असर पड़ेगा जानिए।
New Delhi Jan 10 : दलित राजनीति को लेकर लोगों की राय बंटी हो सकती है। लेकिन, एक बात तो माननी होगी कि कांशीराम के बाद देश में बीएसपी सुप्रीमो मायावती को ही दलितों का मसीहा माना जाता रहा है। ये बात दीगर है कि उनका पूरा का पूरा फोकस उत्तर प्रदेश की राजनीति पर ही रहता है। लेकिन, इसमें भी कोई शक नहीं है कि मायावती अपने जनाधार को देश के दूसरे हिस्सों में बढ़ाना चाहती हैं और उसके लिए लगातार कोशिशें भी करती रहती हैं। लेकिन, अब गुजरात के युवा और दलित नेता जिग्नेश मेवाणी भी इस सियासत में कूद पड़े हैं। ऐसे में ये कहना कतई गलत नहीं होगा कि आने वाले दिनों में मायावती को जिग्नेश मेवाणी से राष्ट्रीय स्तर पर कड़ी चुनौती मिलने वाली है। वो भी दलित राजनीति को लेकर। दोनों ही दलितों के नेता है। दोनों के राज्य बंटे हुए हैं। लेकिन दोनों में ही राष्ट्रीय स्तर पर आगे बढ़ने की छटपटाहट साफ दिख रही है।
तो क्या जिग्नेश मेवाणी आने वाले दिनों में मायावती से उनका ताज छीन लेंगे। ये सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं क्यों कि जिग्नेश मेवाणी ने दिल्ली पुलिस की रोक के बाद भी सरकार और पुलिस को खुली चुनौती देते हुए युवा हुंकार रैली को संबोधित किया और अपने तेवर दिखाए। खास बात ये रही कि जिस सहारनपुर मुद्दे को लेकर मायावती ने राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था उस कांड की सूत्रधार रही दलित सेना को भी जिग्नेश मेवाणी का समर्थन मिला। जिग्नेश मेवाणी की युवा हुंकार रैली में दलित सेना के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद के पोस्टर लहराए गए। जबकि दंगा भड़काने के आरोप में आजाद इस वक्त सहारनपुर की जेल में कैद है। पहले दलित सेना बीएसपी को सपोर्ट करती थी। लेकिन, आज चंद्रशेखर आजादी की सेना जिग्नेश के साथ खड़ी है। इस राजनीति को क्या समझा जाए। क्या ये मायावती के लिए झटका नहीं है। क्या ये दलितों का बंटवारा नहीं है।
या फिर ये समझा जाए कि दलितों को जिग्नेश मेवाणी के रुप में एक नया और युवा नेता मिल गया है। जो मायावती से कहीं ज्यादा आक्रामक और तेवर वाला है। मायावती के लिए चिंता की एक बात और भी है। जिग्नेश मेवाणी ने काफी कम वक्त में बीजेपी विरोधियों का समर्थन हासिल कर लिया है। जो कांग्रेस पहले बीएसपी के साथ खड़ी रहती थी आज वो भी गुजरात में जिग्नेश के साथ है। इसके अलावा उसे लेफ्ट पार्टियों का भी समर्थन हासिल है। हालांकि पुणे हिंसा में जिग्नेश मेवाणी खुद आरोपी है। लेकिन, इस कोरेगांव-भीमा लड़ाई को जिग्नेश ने अपने हिसाब से भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली तक बीजेपी विरोधी दलों का पूरा समर्थन हासिल किया। जबकि मायावती ने इस मसले पर ज्यादा कुछ बोलना मुनासिब नहीं समझा। शायद ये सोचकर कि कहीं इसका फायदा जिग्नेश को ना मिल जाए। फिर भी जिग्नेश ने पूरा सियासी फायदा उठाया।
जिग्नेश ने युवा हुंकार रैली से चंद्रशेखर आजाद को भी इंसाफ दिलाने की मांग कर डाली। इससे उसने एक तीर से दो निशाने साधे। एक तो दलितों का दिल जीता दूसरे दलित सेना का विश्वास। जिग्नेश के साथ जेएनयू का छात्रसंघ भी है। कन्हैया कुमार भी उनके साथ हैं और उमर खालिद भी। मेवाणी ने अखिल गोगोई का भी समर्थन हासिल कर लिया। आजकल तो रोहित वेमुला की मां भी उनके साथ खड़ी नजर आती हैं। दलित राजनीति में ये बदलाव के संकेत हैं। जिन लोगों को कल तक मायावती पर भरोसा था। वो आज जिग्नेश के पाले में दिख रहे हैं। मायावती के लिए जिग्नेश मेवाणी वाकई चिंता का सबब बन सकते हैं। जिन तेवरों के साथ वो गुजरात से निकलकर महाराष्ट्र पहुंचे और अब दिल्ली में डटे हैं ये संकेत मायावती के लिए शुभ नहीं हैं। देखना काफी दिलचस्प होगा कि आने वाले दिनों में दलितों का बड़ा नेता कौन साबित होता है मायावती या फिर जिग्नेश मेवाणी ?