सुप्रीम कोर्ट विवाद: भारतीय न्याय तंत्र में बड़े सुधार की जरूरत

भारत की निचली अदालतें पहले से ही सवालों के घेरे में हैं। अब सवाल सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली पर भी उठाय़े गये हैं, वह भी स्वयं न्यायाधीशों द्वारा।

New Delhi, Jan 17: सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों के बीते शुक्रवार को दिये बयान, उस पर सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन की राय और देश के कुछ ख्यातिलब्ध अवकाश-प्राप्त न्यायाधीशों के मुख्य न्यायाधीश को लिखे खुले पत्र से भारतीय न्यायतंत्र की कुछ बड़ी खामियों का खुलासा हुआ है। यह खुलासा किसी बाहरी व्य़क्ति या मीडिया ने किया होता तो सवाल उठते या आपत्तियां दर्ज कराई जातीं पर यह बातें तो स्वयं देश के शीर्ष न्यायाधीशों की तरफ से सामने लाई गई हैं। शुक्रवार से शनिवार के बीच मीडिया, खासकर हिन्दी और अंगरेजी के कुछ चैनलों ने जिस तरह न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर,न्यायमूर्ति एम बी लोकुर, न्यायमूर्ति रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ की साझा प्रेस कांंफ्रेंस में व्यक्त किये मंतव्यों को राजनीतिक चश्मे से देखा और पेश किया, वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण था।

Advertisement

आजादी के बाद यह पहला मौका है, जब सुप्रीम कोर्ट के चार शीर्ष न्यायाधीशों ने कोर्ट की मौजूदा व्यवस्था, खासतौर पर मुख्य न्यायाधीश की कार्यशैली पर इस तरह सार्वजनिक मंच से सवाल उठाया। निस्संदेह, ऐसा कदम अभूतपूर्व है और यह अपवाद ही बना रहे तो अच्छा है। ऐसी परंपरा नहीं बननी चाहिए। पर जजों की प्रेस कांफ्रेंस से जो सवाल सामने आये, वे बेहद संजीदा, विचारोत्तेजक और हमारे लोकतंत्र के लिये महत्वपूर्ण हैं। इन सवालों का अब तक कोई जवाब नहीं मिला है। दरअसल, इनका किसी के पास रेडीमेड जवाब भी नहीं है। चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों द्वारा उठाये सवाल भारतीय न्यायतंत्र में बड़े सुधार की जरूरत को रेखांकित करते हैं। हाल के दिनों में जिस तरह के मसले और सवाल मेडिकल कौंसिल आफ इंडिया(एमसीआई), अरुणाचल के पूर्व मुख्यमंत्री कालिखो पुल के आत्महत्या से पहले लिखे कथित लंबे नोट या अब जज लोया की रहस्यमय मौत से जुड़े प्रकरण के दौरान प्रकाश में आये, वे सिर्फ किसी एक न्यायाधीश या किसी एक पीठ या किसी एक कदम के वश में नहीं हैं।

Advertisement

इनका दायरा बहुत विशाल है और ऐसे सवाल आये दिन उठते रहते हैं। कुछेक मामले मीडिया के जरिये सार्वजनिक चर्चा में आ जाते हैं और अनेक दबे रहते हैैं क्योंकि मीडिया की उनमें ज्यादा रूचि नहीं होती! हाल के मामले में भी मुख्यधारा मीडिया की भूमिका अच्छी नहीं रही। लेकिन भारतीय लोकतंत्र के लिये यह शुभ संकेत है कि सु्प्रीम कोर्ट बार कौंसिल और देश के कुछ अन्य ख्यातिलब्ध अवकाशप्राप्त न्यायाधीशों ने बड़े साहस और समझदारी के साथ जस्टिस चेलमेश्वर और अन्य तीन कार्यरत न्यायाधीशों द्वारा उठाये सवालों को महत्वपूर्ण माना है। इससे अपने न्यायतंत्र, खासकर शीर्ष अदालतों की कार्यप्रणाली की कमियों पर एक सार्थक बहस शुरू हुई है। यह सही है कि न्यायालयों में रोस्टर तय करने का अधिकार मुख्य न्यायाधीश का है। लेकिन अब कई हलकों से रोस्टर व्यवस्था की कमियां उजागर हो रही हैं। चार अवकाश प्राप्त न्यायाधीशों ने अपने खुले खत में कहा है, ‘मामलों की सुनवाई और पीठ तय करने के अधिकार को और तर्कसंगत व पारदर्शी बनाये जाने की जरूरत है।

Advertisement

जब तक ऐसी व्यवस्था नहीं बन जाती तब तक सभी लंबित अति-संवेदनशील और महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम जजों की पीठ को करनी चाहिए।’ भारतीय शीर्ष अदालत में दो-दो या तीन-तीन जज की भी पीठ बनाकर अनेक मामलों की सुनवाई कर ली जाती है। ऐसी पीठें जो भी फैसला करती हैं, वे सभी उक्त अदालत की तरफ से किये माने जाते हैं। लेकिन अमेरिका या ब्रिटेन की शीर्ष अदालतें ऐसा हरगिज नहीं करतीं। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के सभी 9 न्यायाधीश सभी मुकदमों की सुनवाई और फैसले सामूूहिक रूप से करते हैं। इसी तरह ब्रिटेन में सभी 12 या कम से कम 5-5 जजों की पीठ होती है, जो मुकदमों की सुनवाई और उनके फैसले करती है। लेकिन भारत में सिर्फ 2जजों की पीठ पूरी कोर्ट की तरफ से अति गंभीर और संवेदनशील मामले में फैसले कर लेती है। उदाहरण के लिये मुंबई स्थित सीबीआई की विशेष अदालत के जज रहे दिवंगत लोया की मौत के मामले में दायर य़ाचिका की सुनवाई न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अगुवाई वाली दो जजों की पीठ कर रही है। इस बारे में यह दलील दी जा सकती है कि भारत की अमेरिका और ब्रिटेन से तुलना करना ठीक नहीं, जहां की शीर्ष अदालतों के समक्ष असंख्य मामले सुनवाई और फैसले के लिये लंबित हैं। ऐसे में पूरी बेंच अगर सारे मामलों की सुनवाई करती रही तो बैकलाग कभी खत्म नहीं होने वाला।

पर गंभीर और अति संवेदनशील मामले आमतौर पर कुछ खास-खास पीठों को ही सौंपे जाते रहें, यह भी उचित नहीं माना जा सकता। चार कार्यरत न्यायाधीशों ने अपनी प्रेस कांफ्रेंस के जरिये इस सवाल को शिद्दत के साथ उठाने की कोशिश की है। न्यायाधीशों ने ज्यादा खुलासा नहीं किया। पर प्रेस कांफ्रेंस में जस्टिस चेलमेश्वर का यह कहना सांकेतिक महत्व की गंभीर टिप्पणी थी, ‘ हम नहीं चाहते कि 20 साल बाद कोई कहे कि चारों वरिष्ठतम न्यायाधीशों ने अपनी आत्मा बेच दी थी। इसलिये हमने आज यह बातें कहने का फैसला किया। किसी भी मुल्क में लोकतंत्र को बरकरार रखने के लिये यह जरूरी है कि सर्वोच्च अदालत सही ढंग से काम करे। हमारी सुप्रीम कोर्ट में सबकुछ सही नहीं चल रहा है।’ इस तरह की अभूतपूर्व परिघटना के बाद अब कार्यपालिका, संसद और स्वयं न्यायपालिका को भी संजीदा होकर सोचने की जरूरत है कि न्यायतंत्र में किस तरह का सुधार हो, जिससे ऐसी समस्याएं न पैदा हों। भारत की निचली अदालतें पहले से ही सवालों के घेरे में हैं। अब सवाल सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली पर भी उठाय़े गये हैं, वह भी स्वयं न्यायाधीशों द्वारा। ऐसे में न्यायतंत्र में बड़े सुधार की जरूरत से इंकार करना या उसे लंबे समय तक मुल्तवी किये रहना हमारे लोकतंत्र के लिये अत्यंत घातक साबित हो सकता है।

(वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश उर्मिल के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)