कोर्ट फैसले पर करणी सेना का उपद्रवः दलित या अल्पसंख्यक समूह ऐसा करता तो क्या होता!

कोर्ट को अपमानित करते करणी सेना के शासकीय संरक्षण-प्राप्त ‘कागजी शेरों’ की बातें सुनी जाती रहीं! सवाल उठता है, ऐसे लोगों को टीवी स्टूडियो में बुलाने का क्या औचित्य है?

New Delhi, Jan 20: बीते गुरुवार ‘पद्मावत’ फिल्म पर सुप्रीम कोर्ट का प्रतीक्षित फैसला आया। कोर्ट ने मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और हरियाणा जैसे प्रदेशों की सरकारों को बड़ा झटका देते हुए संजय लीला भंसाली की विवादास्पद फिल्म के प्रदर्शन का रास्ता साफ कर दिया। कोर्ट ने कहा कि अब से कोई भी राज्य सरकार सेंसर बोर्ड द्वारा मंजूर की गई फिल्म के प्रदर्शन पर अपने राज्य में प्रतिबंध लगाने की कोशिश नहीं करे! मतलब साफ है कि भाजपा-शासित राज्यों की सरकारों द्वारा फिल्म के प्रदर्शन पर लगाई गैर-कानूनी रोक को देश की सर्वोच्च कोर्ट ने सिरे से खारिज किया। इन प्रदेशों की सरकारों ने राजस्थान की एक खास जाति के कुछ दबंग लोगों की ‘करणी सेना’ को खुश करने के लिये अपने-अपने राज्य में फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाने का ऐलान किया था। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर करणी सेना और कई अन्य हिन्दुत्ववादी संगठनों के लोग अब आग उगल रहे हैं। कुछेक स्थानों पर तोड़फोड़ की गई। फिल्म के पहले प्रदर्शन के दिन राष्ट्रव्यापी विरोध-प्रदर्शन करने का ऐलान किया गया है।

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थोड़ी देर के लिये कल्पना करें कि सुप्रीम कोर्ट के किसी फैसले के खिलाफ अगर दलित-आदिवासी, ओबीसी या अल्पसंख्यक समूह सड़कों पर आकर नारा लगा रहे होते तो हमारी सरकारों और चौबीसों घंटे चालू रहने वाले चैनलों का क्या रवैया होता! देश के कथित राष्ट्रीय न्यूज चैनलों पर गुरुवार को चारों तरफ करणीसेना के नकली-तलवारबाज छाये रहे! हिमाचल-गुजरात के चुनाव से ऐन पहले, जब फिल्म को लेकर बवाल मचा हुआ था, देश के कई प्रमुख न्यूज चैनलों के स्टूडियो में करणी सेना के समर्थकों को तलवारों के साथ आने दिया गया। बहस के दौरान वे अपनी तलवारें अपने सामने लेकर बैठे दिखे। पता नहीं, चैनलों ने उन्हें इस रूप में क्यों आने की इजाजत दी, स्टूडियो में बहस करना था या तलवार चलाना था? गुरुवार को भी ज्यादातर चैनलों ने सुप्रीम कोर्ट के इस बेहद महत्वपूर्ण फैसले पर बात नहीं की। उनकी खबरों में सिर्फ करणीसेना के भावी कार्यक्रम, हंगामे, हिंसा और तोड़फोड़ की खबरें दिखाई जाती रहीं।

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कोर्ट को अपमानित करते करणी सेना के शासकीय संरक्षण-प्राप्त ‘कागजी शेरों’ की बातें सुनी जाती रहीं! सवाल उठता है, ऐसे लोगों को टीवी स्टूडियो में बुलाने का क्या औचित्य है? दुनिया के किस लोकतांत्रिक देश के टीवी चैनलों में बहस करने वाले हाथ में तलवार या कोई हथियार लेकर आते हैं? दरअसल, हमारे ज्यादातर चैनल आज किसी को भी नेता बनाने को तैयार हैं, बशर्ते कि वह ‘हिंदुत्वा ब्रांड’ का हो, खुराफ़ाती हो, अपढ़ किस्म का हो और समाज-विरोधी बातें पूरी उग्रता से कहने जानता हो! आमतौर पर ये चैनल किसी सकारात्मक सोच के समझदार और पढ़े-लिखे राजनीतिक या सामाजिक कार्यकर्ता को उतना महत्व नहीं देते! मतलब साफ है, इन चैनलों का एक खास एजेंडा है कि समाज और राजनीति में अवाम के वास्तविक मुद्दों को जगह नहीं मिले! नफरत, गुस्से और टकराव का कारोबार जारी रहे! आखिर करणीसेना जैसे उपद्रवी, सामंती और घोर जातिवादी समूह को इस कदर महत्व देने की और क्या वजह हो सकती है?

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इन टीवी चैनलों में बीते गुरुवार करणीसेना को इतना महत्व दिये जाने से शायद हमारे सत्ताधारी भी खुश हुए होंगे! इससे सुप्रीम कोर्ट विवाद के ऐसे पहलू नजरंदाज हो गये, जिनका सम्बन्ध सत्ताधारी दल के लोगों या उनकी अगुवाई में चल रही राज्य सरकारों से था। एक तरह से सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और हरियाणा की भाजपा-नीत सरकारों को बुरी तरह झटका दिया कि किसी फिल्म पर बैन लगाने का राज्य सरकारों को कोई अधिकार नहीं है। बैन का ऐलान कर इन सरकारों ने गैर-कानूनी कदम उठाये थे। चैनलों ने इन सरकारों को कठघरे में कहां खड़ा किया? वे तो बस ‘करणी-करणी’ करते रहे! इसके अलावा सत्ताधारी परिवार में विश्व हिन्दू परिषद के विवादास्पद नेता प्रवीण तोगड़िया के आरोपों से जुड़ी खबर भी दब गई। अगर करणी सेना की जगह कोई दलित, आदिवासी, ओबीसी या अल्पसंख्यक समूह कोर्ट के फैसले पर ऐसा उपद्रव करता तो सारे के सारे चैनल और सरकारें उसे देशद्रोही करार देते और अब तक सैकड़ों को गिरफ्तार कर लिया गया होता! भारतीय लोकतंत्र का यह एक कड़वा सच है!

(वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार उर्मिलेश उर्मिल के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)